जिज्ञासा..... 26
सुरत (आत्मा) का देह मे आना और जाना किस तरह होता है .......
मालिक की कुदरत (विधि का विधान) से , निशेचन के समय जीवात्मा वासना के जोर और कर्मों के अनुसार देह में प्रवेश करती है और जीव के पैदा होने के वक्त देह में प्रकट होती है , फिर इसकी छाया (प्रभाव) धीरे-धीरे नीचे के चक्रों पर पड़ती जाती है , साथ ही प्राण आदि शक्तियां भी , सुरत के देह में प्रकट होते ही क्रियाशील हो उठती हैं।
फिर जब देह छूटने लगती है यानी वक्त मौत के जब कि वह नजदीक आ ही जाता है , तब देह से सुरत का भास (छाया) और ध्यान - जो कि वास्तव में आत्मिक ऊर्जा की ऊष्मा ही है , बड़ी ही बेचैनी और बे-होशी (जब कि जीव का खुद पर ही कोई बस नहीं चलता) के साथ , मूलाधार चक्र से खिंचना शुरू होते हैं और क्रमशः हर एक चक्र से होते हए आंखों तक पहुंचते हैं फिर यहां से सुरत तीसरे तिल यानी आज्ञा चक्र से होते हुए देह से निकल जाती है और आंखों के डेले उलट जाते हैं।
फिर विधि के विधान से गुजर कर , अपने कर्म, वासना के अनुसार समय आने पर दूसरी देह व जन्म धारण करती है। इन बातों को जीव के पैदा होते और वक्त मौत के देख कर समझा जा सकता है।
पर ..... सुरत-शब्द योग के अभ्यासी को सुरत के निकलने का अलग ही अनुभव होता है। वह प्रति दिन सुरत को सिमटाते और ऊपरी मण्डलों में चढाते हुए अभ्यास में ऐसा द्रढ हो जाता है कि वक्त मौत के जब वह नजदीक होता है, तब बिना बेचैन हुए और बिना बेहोश हुए , अपने पूरे होश में सुरत के भास,ध्यान और स्वंम सुरत को तीसरे तिल और वहां से ऊपरी मंण्डलों में जहां तक कि उसके अभ्यास की द्रढता होती है, पहुंचा देता है। साथ ही सामान्य जीवन में भी दैहिक व मानसिक कष्ट के समय भी अपनी सुरत को तीसरे तिल व ऊपरी मण्डलों में पहुंचा कर कष्टों से बच जाता है। और इस तरह कुल मालिक राधास्वामी दयाल के चरणों से अमी रस की धारा में महा आनंद को प्राप्त करता है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
सुरत (आत्मा) का देह मे आना और जाना किस तरह होता है .......
मालिक की कुदरत (विधि का विधान) से , निशेचन के समय जीवात्मा वासना के जोर और कर्मों के अनुसार देह में प्रवेश करती है और जीव के पैदा होने के वक्त देह में प्रकट होती है , फिर इसकी छाया (प्रभाव) धीरे-धीरे नीचे के चक्रों पर पड़ती जाती है , साथ ही प्राण आदि शक्तियां भी , सुरत के देह में प्रकट होते ही क्रियाशील हो उठती हैं।
फिर जब देह छूटने लगती है यानी वक्त मौत के जब कि वह नजदीक आ ही जाता है , तब देह से सुरत का भास (छाया) और ध्यान - जो कि वास्तव में आत्मिक ऊर्जा की ऊष्मा ही है , बड़ी ही बेचैनी और बे-होशी (जब कि जीव का खुद पर ही कोई बस नहीं चलता) के साथ , मूलाधार चक्र से खिंचना शुरू होते हैं और क्रमशः हर एक चक्र से होते हए आंखों तक पहुंचते हैं फिर यहां से सुरत तीसरे तिल यानी आज्ञा चक्र से होते हुए देह से निकल जाती है और आंखों के डेले उलट जाते हैं।
फिर विधि के विधान से गुजर कर , अपने कर्म, वासना के अनुसार समय आने पर दूसरी देह व जन्म धारण करती है। इन बातों को जीव के पैदा होते और वक्त मौत के देख कर समझा जा सकता है।
पर ..... सुरत-शब्द योग के अभ्यासी को सुरत के निकलने का अलग ही अनुभव होता है। वह प्रति दिन सुरत को सिमटाते और ऊपरी मण्डलों में चढाते हुए अभ्यास में ऐसा द्रढ हो जाता है कि वक्त मौत के जब वह नजदीक होता है, तब बिना बेचैन हुए और बिना बेहोश हुए , अपने पूरे होश में सुरत के भास,ध्यान और स्वंम सुरत को तीसरे तिल और वहां से ऊपरी मंण्डलों में जहां तक कि उसके अभ्यास की द्रढता होती है, पहुंचा देता है। साथ ही सामान्य जीवन में भी दैहिक व मानसिक कष्ट के समय भी अपनी सुरत को तीसरे तिल व ऊपरी मण्डलों में पहुंचा कर कष्टों से बच जाता है। और इस तरह कुल मालिक राधास्वामी दयाल के चरणों से अमी रस की धारा में महा आनंद को प्राप्त करता है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)
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