Sunday, 29 June 2014

जिज्ञासा .......23

संत हमारे संचित कर्मों को किस  प्रकार कटवा  देते है.......
यह विषय  एक   अंर्तयात्री जीव के लिये गम्भीर अर्थ रखता है,
कर्म तीन तरह के होते हैं, जिन के फल से  जीव देह धारण कर के सुख व दुख  भोगता  है। ये हैं -   क्रियामान कर्म,, प्ररब्ध और संचित कर्म।.

क्रियामान कर्म वे हैं जिन्हें जीव देह में  रहते  हुए करता है और इसके अधिकांश भाग का फल भी जीव उसी वक्त प्रतिक्रिया  स्वरूप भोग लेता है।

प्रारब्ध वे कर्म हैं जिनके कारण देह मिलती है व जीवन में अच्छी-बुरी परिस्थितियां व वातावरण प्राप्त होता है।

संचित कर्म वे हैं  जो हर  एक जनम  में अलग जमा   होते   रहते हैं और फिर प्रारब्ध कर्मों में  मिल  जाते है।.

जब कोई जीव संतों की शरण   लेता  है  तब  उसके   कर्म  रुक जाते हैं , विषेश कर बुरे कर्म   और भले कर्म भी - जो  वह  करता है वह दयाल की मौज  में  करता और  खुद को करता  न मान कर  फल   की  इच्छा से रहित रहता है। --- यही   निश्काम कर्म है

इस तरह प्रारब्ध कर्म तो देह में भोग लिये जाते  हैं और  संचित   कर्म ध्यान व अभ्यास की अवस्था में कट  जाते हैं।..

संचित  कर्म जीवन में एक चक्र के समान घूमते रहते हैं, तो जब जिस कर्म के  भोगने   का   समय आता है तब जीव के मन में उस कर्म को भोगने चाह  पैदा होती है फिर  यदि इच्छा तीव्र हुई तो वह कर्म अवश्य ही भोगा जाता है।    पर शब्द योग का अभ्यासी जीव अभ्यास की स्थिति में , समय से पहले ही इन कर्मों को मार्ग में ही ध्यान की अवस्था में ही भोग लेता है।    तो जैसा कि ध्यान की अवस्था में स्थूल देह में व्यवहार नहीं होता है सो ये कर्म सूक्ष्म रूप व देह में ही भोग लिये जाते हैं।

एक तरीका और भी है - जैसा कि सभी  कर्म वासना के अनुसार ही भोगे जाते हैं। तो एक अभ्यासी जीव जिसने नित अंतरी और बाहरी सतसंग कर के , धीरे-धीरे जगत की सभी वासनाएं त्याग दी और भक्ति व प्रेम के आसरे माया के जाल से निकल कर त्रिकुटी के पद पर वहां के महा आनंद को प्राप्त करता है। तब वह माया की हद से निकल गया और वासना  भी जगत की ओर से पूरी तरह टूट व छूट जाती है। इस तरह संचित कर्मों का चक्र घूम ही नहीं पाता बल्कि वासनाओं के छूटते ही नष्ट हो जाता है।

वास्तव में देखा जाय तो इन दौनो सिद्धान्तो का फल समान ही  है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

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