अंतर्यात्रा ..... २७ .
अवतारों ने तुम्हें सवांरा .....
हर एक ब्रह्मांडीय शक्ति के अवतार धारण करने के पीछे यही मकसद रहा कि, जगत आबाद रहे और सुरत कभी भी इस पिंड देश से बाहर न निकल पाए. और इसी मकसद की पुष्टता के लिए उनहोंने अपने-अपने वक़्त में जो भी शिक्षाएं व उदाहरण पेश किये, उनमे मुख्यतः जगत की कार्यवाहियों, कर्म और पुनर्जन्म सिद्धांत की ही रक्खी. और इसी को द्रढ़ता प्रदान करने के लिए समय-समय पर जिन संस्कारों को पुष्टता प्रदान करी – वही जगत में व्याप्त, अनेंको “धर्म” हैं. जिस तरह गाय को चारा डाला जाता है ताकि वह स्वस्थ रहे, क्यूंकि तभी हमे दूध प्राप्त हो सकता है और हम पुष्ट बने रह सकते हैं. तो ब्रह्मांडीय शक्तियां भी हमारे स्वस्थ जीवन की कामना रखतीं हैं. शास्त्रों में कहा गया है की “देव हव्य से पुष्ट होते हैं”. इसीलिए मालिक की मौज से संतों का अवतरण इस मकसद से हुआ की जीव चौरासी से मुक्ति का मार्ग पा सके. ज़रूरी नहीं की हर सुरत संत सतगुरु वक़्त की सरन में आ ही जाय. जैसे-जैसे जीव के कर्मों के बंधन ढीले होते जाते हैं, जीव अपने वक़्त के संत सतगुरु की सरन में आता जाता है, पर उद्धार उसी का होगा जिसे सतगुरु पूरा मिलेगा. वरना कुछ दूर साथ दे कर बहुतेरे बैठ रहे. कर्मों के काटने की पूरी और मुकम्मल कार्यवाही तो संतों की रीत और सत्संग से ही हो सकती है. अन्य सभी रीतें तो जगत में फ़साने के वास्ते ही बनी हैं. योगी, ज्ञानी, ब्रह्म ज्ञानी, पीर, पैगम्बर, ओलिया, क़ुतुब सब जगत के सुधार के वास्ते ही आये.
मेरी बातें धार्मिक या मजहबी प्रवर्ती के जीवों को संभवतः रास न भी आयें, पर संत मार्गी व्रती जीवों के लिए सत्य से परिचित होना आवश्यक है.
जीव का मन, जिस घाट पर बैठा, जगत के मोह में फसा है, उस घाट से ऊपर उठने के नाम से ही बहुत घबराता है. और जब सुरत, मन से भिन्न हो कर अपने निज धाम में जाने को तैयार होती है, तब तो बहुत ही अकुलाता और बेचैन हो उठता है. इसलिए ज़रूरी है की मन को राजी रक्खा जाय, जैसे एक पिता अपने बच्चे को छूट भी देता है और नज़र भी पूरी रखता है, और जैसे ही बच्चे की दिशा भटकती है उसे समझा कर सही रास्ते पर ले आता है, वैसे ही हमे अपने मन को, अपना बच्चा ही समझना चाहिए, पर हम हैं की उसे अपना बैरी मान कर उसे मारने, कूटने और पीसने में लग जाते है. आखिर हम ये कर क्या रहे हैं ? मन तो भोला बच्चा है जी. हाँ, कुछ नटखट ज़रूर है, तो हम भी उसके पिता हैं जी, सुधार लेंगे. पर कुछ ऐसे नकारा और लटपटी हैं की मन को अपना बाप समझ कर खुद ही उसके गुलाम बने बैठे हैं, और कर्मों का बोझ बढ़ाते जाते हैं, ऐसे जीवों का अभी समय नहीं आया है.
पर जिन जिन जीवों का समय आ गया है और उनका मन जगत के मोह से किसी स्तर तक उदासीन हो गया है, और जिन्होंने अंतर यात्रा का मार्ग निश्चित कर लिया है, उन्हें उचित है की जितनी भी होशियारी और संभाल के साथ वे आगे बढ़ सकते हैं, बढ़ते रहे. फिर भी यदि किसी गफलत में उनसे कोई भूल हो जाती है तो मालिक के दरबार में माफ़ी का दस्तूर है जी, दयाल तो दया का सागर है, वह आप ही, अपने तरीके से संभाल लेता है. फिर भी यदि जीव इस बात की कोताही करता है की अपने भौतिक कर्तव्यों और दायित्वों से अलग जो सामर्थ वो मालिक की दिशा में लगा सकता था पर नहीं लगाता और जगत में खिंच जाता है, तो जीव अपना ही भार बढ़ाता है, तब यह भार मालिक के निज प्यारों से झटका दे कर दूर किया जाता है. तब कुछ तकलीफ भी होगी. जैसे टीचर के पास बच्चा खुशी से पढ़ने चला जाय तब तो ठीक, वर्ना पकड़ कर बुलवाया जाता है, और तब भी न माने , तो कभी-कभी तमाचा भी लगाना ज़रूरी हो जता है.
“राधास्वामी छोड़ें न जिसे गहें री.”
इस बात को समझना ज़रूरी है की, मन की या भावनात्मक भूल-चूक की जहां तक बात है, तो उसकी भरपाई तो अभ्यास से हो सकती है, पर वचन और कर्म से जो अपराध हो गया, उसके लिए तो सांसारिक रीत से ही दंड का भागी होना पड़ेगा.
जहाँ संत विराजमान है या प्रेमी व भक्त, कुल मालिक राधास्वामी दयाल का गुणगान करते हैं, वही सच्चा सत्संग है. सिर्फ ऐसे ही सत्संग से मन काबू में आ सकता है. और सुरत, किसी हद तक मन से न्यारी हो सकती है. संसारी कामनाएं यदि जोर दे कर कभी गिरा भी दें तो घबराना नहीं, बल्की मालिक की दया-मेहर के आसरे संभलना और फिर उठ कर आगे बढ़ जाना. आगे दयाल खुद संभाल लेंगे.
राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
अवतारों ने तुम्हें सवांरा .....
हर एक ब्रह्मांडीय शक्ति के अवतार धारण करने के पीछे यही मकसद रहा कि, जगत आबाद रहे और सुरत कभी भी इस पिंड देश से बाहर न निकल पाए. और इसी मकसद की पुष्टता के लिए उनहोंने अपने-अपने वक़्त में जो भी शिक्षाएं व उदाहरण पेश किये, उनमे मुख्यतः जगत की कार्यवाहियों, कर्म और पुनर्जन्म सिद्धांत की ही रक्खी. और इसी को द्रढ़ता प्रदान करने के लिए समय-समय पर जिन संस्कारों को पुष्टता प्रदान करी – वही जगत में व्याप्त, अनेंको “धर्म” हैं. जिस तरह गाय को चारा डाला जाता है ताकि वह स्वस्थ रहे, क्यूंकि तभी हमे दूध प्राप्त हो सकता है और हम पुष्ट बने रह सकते हैं. तो ब्रह्मांडीय शक्तियां भी हमारे स्वस्थ जीवन की कामना रखतीं हैं. शास्त्रों में कहा गया है की “देव हव्य से पुष्ट होते हैं”. इसीलिए मालिक की मौज से संतों का अवतरण इस मकसद से हुआ की जीव चौरासी से मुक्ति का मार्ग पा सके. ज़रूरी नहीं की हर सुरत संत सतगुरु वक़्त की सरन में आ ही जाय. जैसे-जैसे जीव के कर्मों के बंधन ढीले होते जाते हैं, जीव अपने वक़्त के संत सतगुरु की सरन में आता जाता है, पर उद्धार उसी का होगा जिसे सतगुरु पूरा मिलेगा. वरना कुछ दूर साथ दे कर बहुतेरे बैठ रहे. कर्मों के काटने की पूरी और मुकम्मल कार्यवाही तो संतों की रीत और सत्संग से ही हो सकती है. अन्य सभी रीतें तो जगत में फ़साने के वास्ते ही बनी हैं. योगी, ज्ञानी, ब्रह्म ज्ञानी, पीर, पैगम्बर, ओलिया, क़ुतुब सब जगत के सुधार के वास्ते ही आये.
मेरी बातें धार्मिक या मजहबी प्रवर्ती के जीवों को संभवतः रास न भी आयें, पर संत मार्गी व्रती जीवों के लिए सत्य से परिचित होना आवश्यक है.
जीव का मन, जिस घाट पर बैठा, जगत के मोह में फसा है, उस घाट से ऊपर उठने के नाम से ही बहुत घबराता है. और जब सुरत, मन से भिन्न हो कर अपने निज धाम में जाने को तैयार होती है, तब तो बहुत ही अकुलाता और बेचैन हो उठता है. इसलिए ज़रूरी है की मन को राजी रक्खा जाय, जैसे एक पिता अपने बच्चे को छूट भी देता है और नज़र भी पूरी रखता है, और जैसे ही बच्चे की दिशा भटकती है उसे समझा कर सही रास्ते पर ले आता है, वैसे ही हमे अपने मन को, अपना बच्चा ही समझना चाहिए, पर हम हैं की उसे अपना बैरी मान कर उसे मारने, कूटने और पीसने में लग जाते है. आखिर हम ये कर क्या रहे हैं ? मन तो भोला बच्चा है जी. हाँ, कुछ नटखट ज़रूर है, तो हम भी उसके पिता हैं जी, सुधार लेंगे. पर कुछ ऐसे नकारा और लटपटी हैं की मन को अपना बाप समझ कर खुद ही उसके गुलाम बने बैठे हैं, और कर्मों का बोझ बढ़ाते जाते हैं, ऐसे जीवों का अभी समय नहीं आया है.
पर जिन जिन जीवों का समय आ गया है और उनका मन जगत के मोह से किसी स्तर तक उदासीन हो गया है, और जिन्होंने अंतर यात्रा का मार्ग निश्चित कर लिया है, उन्हें उचित है की जितनी भी होशियारी और संभाल के साथ वे आगे बढ़ सकते हैं, बढ़ते रहे. फिर भी यदि किसी गफलत में उनसे कोई भूल हो जाती है तो मालिक के दरबार में माफ़ी का दस्तूर है जी, दयाल तो दया का सागर है, वह आप ही, अपने तरीके से संभाल लेता है. फिर भी यदि जीव इस बात की कोताही करता है की अपने भौतिक कर्तव्यों और दायित्वों से अलग जो सामर्थ वो मालिक की दिशा में लगा सकता था पर नहीं लगाता और जगत में खिंच जाता है, तो जीव अपना ही भार बढ़ाता है, तब यह भार मालिक के निज प्यारों से झटका दे कर दूर किया जाता है. तब कुछ तकलीफ भी होगी. जैसे टीचर के पास बच्चा खुशी से पढ़ने चला जाय तब तो ठीक, वर्ना पकड़ कर बुलवाया जाता है, और तब भी न माने , तो कभी-कभी तमाचा भी लगाना ज़रूरी हो जता है.
“राधास्वामी छोड़ें न जिसे गहें री.”
इस बात को समझना ज़रूरी है की, मन की या भावनात्मक भूल-चूक की जहां तक बात है, तो उसकी भरपाई तो अभ्यास से हो सकती है, पर वचन और कर्म से जो अपराध हो गया, उसके लिए तो सांसारिक रीत से ही दंड का भागी होना पड़ेगा.
जहाँ संत विराजमान है या प्रेमी व भक्त, कुल मालिक राधास्वामी दयाल का गुणगान करते हैं, वही सच्चा सत्संग है. सिर्फ ऐसे ही सत्संग से मन काबू में आ सकता है. और सुरत, किसी हद तक मन से न्यारी हो सकती है. संसारी कामनाएं यदि जोर दे कर कभी गिरा भी दें तो घबराना नहीं, बल्की मालिक की दया-मेहर के आसरे संभलना और फिर उठ कर आगे बढ़ जाना. आगे दयाल खुद संभाल लेंगे.
राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.
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