अंतर्यात्रा ..... २९
पुहप मध्य से उठी अवाजा - को तुम हो आये केही काजा. इसका मतलब यह नहीं कि, सत पुरुष को खबर ही नहीं कि कौन आया है और क्या करता है, बल्कि यह है की सत्य मार्ग पर आई नयी सुरत के आगे यह प्रश्न इसलिए उठाया जाता है, जिससे की उसमे सत पुरुष और सत गुरु के प्रति उमंग और प्रेम बढ़ कर भक्ति बन जाये. जिस तरह से आम तौर पर संसार में प्रेम-प्रीत का चलन और रिवाज़ है, जीव शुरू में सतगुरु से वैसा ही प्रेम करता है. पर सतगुरु संग प्रीत चाहे जिस भी रीत से करो, वे उसे धीरे-धीरे निर्मल परमार्थ में बदल देते हैं. सरनागत जो प्रीत अपने परिवार और कुटुंब के साथ संसारी रीत से करता है, सतगुरु उसे भी अपनी दया से परमार्थी भाव में बदल देते हैं. ऐसे जीव जो की व्यवहारिक सेवा और प्रसादी आदि को ही मुख्य जान कर, उसी में तृप्त और राजी रहते हैं, वह उनकी आदत बन जाती है और जो धीरे-धीरे आसक्ति में बदल जाती है. यह ठीक है की आदत पक्की हुए बिना कोई काम ठीक से नहीं हो सकता, पर उसमे इस कदर लिप्त नहीं होना चाहिए की जीव का उसमें बंधन हो जाये. क्यूंकि बंधन कोई और कैसा भी हो वह तो काटा ही जाएगा और तब कुछ तकलीफ भी होगी. बिना बन्धनों से छूटे, जीव अंतर में कभी धंस ही नहीं सकता. व्यवहारिक सेवा और प्रसादी अपने असर से खाली नहीं हैं, इससे मन निर्मल हो जाता है. पर संत सतगुरु वक्त के देह स्वरुप के उचित रीत से दर्शनों का जो लाभ है, उससे उससे संसार के सब भोगों से आसक्ति छूट जाती है. और इसी तरह ऊपरी मंडलों में सतगुरु का जो रूहानी स्वरुप है, उसके दर्शनों से जीव मौत का घाट भी तर जाता है – राधास्वामी सदा सहाय . पर जीव को यहीं नहीं रुक जाना है, बल्कि रूहानी स्वरुप के भी निज रूप के दर्शनों की अभिलाषा रखनी चाहिए है. और सुरत को उस घाट तक पहुंचाने के लिसे निरंतर प्रयास रत रहना चाहिए. इसे दोहराना ही, शगल या अभ्यास है. तो जैसे-जैसे ऊपरी मंडलों में आना-जाना बना रहेगा, हर बार कुछ न कुछ ऊपर के मंडलों में छूटता जाएगा. यह बहुत ही मुख्य बात है, इस प्रकार बा-होश बार-बार लगातार अभ्यास करने से, जब सुरत का आधे से अधिक अंश का ठहराव ऊपरी मंडलों में होने लगेगा, तो वहां उसका मुकाम बन जायेगा, उसी मुकाम पर सुरत पिंड देश से छूटने पर, बाद दैहिक म्रत्यु के वासा पाती है. और जैसे-जैसे इन मंडलों के आकाश में, वहां के तत्वों के अनुसार और आधार पर छाया या परछाईं बनती है, तब वहां की चीजे नज़र आतीं हैं. जिस प्रकार यदि जगत की चीजों की छाया हमारी दैहिक इंद्री – आँख में न बने तो हमें कुछ भी नज़र नहीं आ सकता. इसी प्रकार जब ऊपर के रूहानी मंडलों में वहां के अनुसार छाया बनती है तब उस स्तर के दर्शन प्राप्त होते हैं. अब इस प्रश्न में न उलझियेगा की वहां छाया कब बनती है ? यह, विषय को विस्तार में ले जाएगा, पर निश्चित है की बनती है. एक निज रूप से, उसके ऊपर के निज रूप और फिर उसके ऊपर के निज रूप की धारणा और अभिलाषा करते-करते सुरत मालिक की मौज से धुर धाम पहुँच जाती है. जिस मुकाम तक सुरत की रसाई होती है, वहां पहले उस मुकाम के आनंद और प्रकाश की झलक प्राप्त होती है, फिर जैसे-जैसे ठहराव बढ़ता जाता है, आनंद और रस मिलता जाता है. पर यदि और अधिक की ललक न जगाई जाये तो सुरत उसी स्तर पर तृप्त हो कर लोलीन हो जायेगी और फिर वह इस स्तर से आगे नहीं बढ़ सकती. मौज की जो प्रथम धार बड़े ही वेग से आई और जहाँ पर उसने एक ठहराव लिया, वही सत्पुरुष की काया और उसका रूप है. जो सुरतें, उस मौज की धार से चेत में आ कर रत हो गयीं वे “हंस” है. और मौज की उस बड़ी धार के साथ जो छोटी-छोटी collateral धारें छिटक कर आयीं, वे ही “अंस” या अंश हैं, और उनहोंने जिन सुरतों को जाग्रत किया वे “वंश” यानी हम हैं. संत, जो की सत लोक के वासी हैं, वे “निज अंस” हैं और उनके साथ जो सुरतें आती हैं – वे उनकी “अंस” हैं. फिर जिन सुरतों का उद्धार हो कर वे सत लोक में पहुंचती हैं, वे भी “हंस” हैं. “सतगुरु स्वामी सदा सहाय” राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित |
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