Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ३२
“गुरु मोहि अपना रूप दिखाओ” .....

गुरु के निज रूप के दर्शनों के लिए जो यह प्रार्थना के शब्द हैं इनमे सतगुरु के अंतरी या रूहानी स्वरुप के अंतर में दर्शनों की अभिलाषा व्यक्त की गई है.
बिना सगुन रूप के, जो की उनहोंने जीव के उद्धार के निमित्त धारण फरमाया है, बिना ध्याये किसी जीव का काज पूरा नहीं होता. और न ही सुरत ही अंतर में धंस सकती है. और बिना अंतर में धंसे, न संसार के दुःख, क्लेश और विकारों से छुटकारा हो सकता है, न विषय-भोगों से रिहाई मिल सकती है और न ही शीतलता यानी तृप्ति प्राप्त हो सकती है. जगत के तमाम बंधन, क्लेश और तपन, सतगुरु पूरे वक़्त के विशाल (महान) और मनोहर देह स्वरुप के दर्शनों और वचनों को सुनने से, जिसे भी भाग्य से वे प्राप्त हो जायें, निश्चित ही दूर हो जाते हैं.
यदि वे मौज से प्रकट रूप से मौजूद न हों, तो साध गुरु या दीक्षक या शिक्षक या अधिकारी जीव या प्रेमी-भक्त से ही प्रीती जोड़ लेनी चाहिए. पर सतगुरु के सगुन रूप की महिमा का तो वारा-पार ही नहीं है. सगुन की धारणा से ही उनके निर्गुण और रूहानी निज स्वरुप के दर्शन प्राप्त हो सकते हैं. यह सच है की निज रूप के दर्शन के बिना, म्रत्यु के भय और दर्द से छुटकारा नहीं मिल सकता. जब जीव अंतर में सतगुरु की मौज के आसरे, त्रिकुटी घाट और सहसद्ल्कंवल से ऊपर उठेगा तब उसके सभी पाप कर्म घुल जायेंगे और सतगुरु के रूहानी स्वरुप के दर्शन पायेगा (सतगुरु के “नूरानी” स्वरुप के दर्शन तो “सुन्न पद“ पर होंगे) . यह देह तो नाश्मान है, पर इसका कारन सुरत अविनाशी, जो की परम चैतन्य का अंश, सत्य–अविनाशी देश से आई और दया-प्रेम के सिंध से मिल कर एक रूप हो रही है, वह शब्द-चैतन्य नाश्मान नहीं है. इसी देह स्वरुप की धारणा से, अंतर में शब्द रूप के दर्शन और सगुन-निर्गुण के पार, सत्य देश में निज रूप के दर्शन प्राप्त होंगे. यदि प्रीत सिर्फ बाहरी स्वरुप से हो और अंतर में दर्शनों की अभिलाषा न हो, तो ऐसी प्रीत एक दिन तो टूटेगी ही.
जिस तरह देह स्वरुप से, जो संत सतगुरु रूप में मालिक ने धारण फरमाया है, रूहानी, नूरानी, शब्द और निज रूप के दर्शन प्राप्त होते है – वैसे ही ध्वनात्मक नाम का जो वर्ण है, वही उसका “लाखायक” यानी दर्शाने वाला है. ऊँ और सोहं भी ध्वनात्मक नाम हैं और इनका वर्ण ही इनका “लाखायक” है. जैसे घंटे की जो टन्न-टन्न की आवाज़ होती है, वह उस धुन की लाखायक है जिसे हम टन्नाहट कहते हैं. सांकेतिक और कृतिम नामों से ऐसी अभिव्यक्ति संभव नहीं है. जैसे “कुर्सी” एक साधारण वर्णात्मक शब्द है – यह ध्वनात्मक नही हो सकता क्यूंकि इससे किसी भी धुन की अभिव्यक्ति नहीं होती. ऐसा ही भ्रम राधास्वामी नाम को ले कर, की यह वर्णात्मक नाम है या ध्वनात्मक ? देखा की काफी अरसे से मत के अनुयायियों के मध्य फैला हुआ है और कुछ फिरकों ने इसे स्पष्ट न करते हुए इस भ्रम को बढ़ाया ही है. या जो बताया सो गलत. मे पूछता हूँ की यदि “राधास्वामी” वर्ण, उस धुन का लाखायक नहीं है, जो की अंतर में गूँज रही है, तब “सतनाम” कैसे हो सकता है ? सतनाम भी तो आखिर वर्ण ही है. तो जो “राधास्वामी” नाम को वर्णात्मक और सतनाम को ध्वनात्मक बताते है, वास्तव में वे “सतनाम” की महिमा भी नहीं जानते, यदि जानते तो कभी भी “राधास्वामी” नाम को वर्णात्मक न कह पाते. “राधास्वामी” नाम की धुन वही है जो अंतर में धुन्कार रही है, पर इस भेद को वही जान सकता है जो अंतर में पहुंचे. मात्र वर्ण का सुमिरन करने से कभी भी अंतर में पैठ नहीं हो सकती. कुल मालिक दयाल परम पुरुष समद हुज़ूर स्वामी जी महाराज ने “सार वचन” में फ़रमाया है की, “ नाम में कोई शक्ति नहीं, जो होती तो हजारों रट रहे हैं, किसी का तो भला होता .” यही वर्णात्मक और ध्वनात्मक नाम का फर्क है.
- जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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