Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ३१

जो अंतर में विद्धमान है, वह हर प्रकट पूज्य से बड़ा है .....

जीव का सच्चा उद्धार, बहारमुख कार्यवाहियों से कभी नहीं हो सकता. सुरत भी अंतर में है और मालिक भी अंतर में ही है . मालिक एक देशी भी है और सर्व देशी या सर्व व्यापी भी, जैसे सूर्य अपनी किरणों और प्रकाश के द्वारा अपने मंडल में व्यापक है, उसी तरह मालिक सारी रचना में सर्व व्यापक है, पर उससे मिलने का रास्ता अंतर में ही है. जो कुछ भी जीव अंतर में करता है या जो भी बाहरी कार्यवाही इसके निमित्त की जाती है, सिर्फ वही परमार्थ में गिनी गई है. बाक़ी कुछ कार्यवाहियां जिन्हें अक्सर परमार्थ समझ लिया जाता है, जैसे कर्म-कांड, शरियत, देश हित, सामाजिक हित, परोपकार आदि इनका परमार्थ में कोई अर्थ नहीं है. फिर यदि ये कर्म विधि पूर्वक बन भी जायें, तो जिस स्तर से ये शुभ-कर्म किये गये हैं, उसी स्तर के शुभ-कर्म-फल से अधिक कुछ भी प्राप्त नहीं होता, वो भी परिवर्तनशील और अपने स्तर से आगे नश्वर. इसी तरह ज़बानी तौर पर “नाम” का जाप भी, अपने स्तर के अनुसार शुभ-कर्म-फल ही देता है. शुभ-कर्मों का फल हमें सिर्फ विशेष मायक यानि भौतिक पदार्थ या सामान ही प्रदान करता है, जिससे उन पदार्थों का मद या नशा और लालसा ही बढ़ती है, जिसका परिणाम बिना किसी शक-ओ-शुबा के निश्चित रूप से अशुभ ही होता है. यही विधि का विधान है, इसी लिए एक परमार्थी के लिए कर्मों से कहीं अधिक महत्व “अभ्यास” का है, जो की उसे विधि के विधान के उस पार ले जाता है – “जहाँ यार बसत है.” ..... कर्म तो स्वतः ही साध जाते हैं .
पिंड के नीचे के तीन चक्रों में जीव, पशुवत ही व्यवहार करता है. यानी एक सीमा तक मनुष्य और पशु दोनों ही सामान हैं. यानी इस स्तर तक मनुष्य देह धारी भी नर-पशु ही है. सही मायनों में मनुष्यता तो तब प्राप्त होगी, जब इन चक्रों के स्तर से ऊपर उठेगा और सिर्फ आवश्यक व उचित व्यवहार ही इन निचले चक्रों तक सीमित रह जाएगा.
सच्चा और खालिस मार्ग तो वह है, जिससे जीव की चैतन्यता, मन और माया की देहों से न्यारी हो कर, अपने निज देश और धाम में वासा पाए. जब तक मन अंतर में न धंसेगा, उसे अपनी हैसियत और खामियों का कभी पता नहीं चल सकता. मालिक कुल सामर्थ है, पर इसका यह मतलब भी नहीं की सुरत को जबरदस्ती तन-मन से खींच कर निकाल लिया जाय, यदि जबरदस्ती से ही काम चल जाता तो रचना की ज़रुरत ही क्या थी ? मालिक अपनी दयालुता का अंग कभी नहीं छोड़ता, यही तो उसकी मिलकियत है. सुरत जब अपने पूरे होश और रजामंदी से और संसार की विषय-वासनाओं से उदासीन हो कर, तन और मन के घाट से थोड़ा-थोड़ा ऊपर उठेगी और बढ़ेगी, तब ही उद्धार का मार्ग मिल सकता है.
यह संतों और फुकारों - फकीरों का मत है, जो की उनके निज अनुभवों पर आधारित है. सामाजिक और देश – कालिक मतों का इसके समक्ष कोई ठिकान नहीं. सांसारिक मतों में कुछ इधर से, कुछ उधर से जोड़ – पकड़ कर, बुद्धि और वक्ती ज़रूरतों के हिसाब से मिला लेते है, ये सभी बुद्धी के मत है, जिनकी रीत, रिवाजों और मान्यताओं में वक़्त और ज़रुरत के हिसाब से परिवर्तन होता रहता है. जहाँ तक बुद्धि का सवाल है तो सत्य मार्ग पर बढ़ने के हिसाब से सब कूड़ा है, किसी काम की नहीं, इसकी सफाई की ज़रुरत है, जो यदि सफाई न की जाय तो इस पिंड देश में रहना ही दुश्वार हो जाय, जैसे की आज के वक़्त में सांसारिक हालात हो गये हैं, - यही कलियुग है. बुद्धि कहने से मतलब, इसमें मन-बुद्धि से ले कर ब्रह्म-बुद्धि तक सब प्रकार की बुद्धि आ गई. बुद्धि और विचारों का सत्य पथ पर कोई काम नहीं. पर इसका यह अर्थ भी नहीं की उनको पूर्णतयः त्याग कर आया जाय. जो उच्च स्तरीय ज्ञान है, उसका सम्बन्ध जहाँ तक बुद्धि-विचार से है, उसे अपनाना होगा और उसी के आधार पर अनुभवों को जगाना होगा.
झूठ तो झूठ ही है, संसार जिसको सच समक्झता है, वह भी झूठ ही है, और जो सच है उसकी खबर नहीं. इस सांसारिक – भौतिक स्तर पर जो कुछ भी दीखता है वह कभी एक सा नहीं रहता, उसमे हमेशा परिवर्तन होता रहता है. इस तरह समस्त भौतिकता नश्वर और कल्पित ही है. पर ऊपर के घाट से ही इसकी हकीकत पता चलती है, जैसे देह में कुछ चुभता है तो दर्द होता है, पर कितना, इस हकीकत को तो मन ही जानता है. इसी प्रकार मन के घाट की हर हकीकत, अंतर के घाट पर पहुँच कर, नश्वर काल्पनिकता में बदल जाती है. तो इस तरह हर घाट की अपमी एक बुद्धि और ज्ञान होता है और वही उस स्तर की वास्तविकता होती है. जीव जिस स्तर पर जीता है उसी स्तर की उसकी बुद्धि और ज्ञान होता है. सच्चा अनुभव और ज्ञान तो सत-संग से ही जागेगा. जो खुद जागे हुए हैं या उनके बताये मार्ग पर चल रहे हैं, तो जिसकी जितनी गति अंतर में होगी, उसी के अनुसार उसका मत होगा. गत के अनुसार ही मत होता है. पर फिलास्फरों और सैकोलाजिस्टो को अंतर का भेद कभी मालूम नहीं हो सकता. कल्पित और वैचारिक जहाँ तक है सब झूठ और नश्वर है, यह बुद्धि और ज्ञान तो घट भीतर मंथन करने से ही प्राप्त होगा.
यह सोच लेना की, हम जो प्रार्थना करते हैं, मालिक सब सुनता है और उससे हम उस तक पहुँच जायेंगे, गलत है.
यह तो सुच है की वह सब सुनता है, लेकिन अमूमन हमारी प्रार्थनाये दुनियांवी तरक्की और सांसारिक सुख प्राप्त करने के लिए ही होती हैं. मान लीजिये, गली-मोहल्ले का सीवर चोक है, तो इसके लिए हम मोहल्ले के सभासद के पास जाते हैं, तब सफाई का आर्डर क्या प्रधान मंत्री देगा ? जब जीव अपनी चाह को सवांर कर, मालिक के चरणों में रत होने की प्रार्थना करेगा – वह सर्व आनंद, सर्व ज्ञान और प्रेम का भण्डार – उसको सुनेगा और इस तरह मालिक कुल से मिलने का मार्ग, मालिक की मौज से बनने लगेगा. यूँ तो जगत में, अपने-अपने स्तर पर बहुत से खुदा हैं, पर जो खुद खुदा है, खोज उसी की करनी चाहिए. जब तक मन में दीनता न होगी, यह पर्दा भी न उठेगा.
दीनता उसको कहते हैं, जैसा साहेब पलटू ने फरमाया है – की “मे तो अत्यंत नीच और अधम हूँ, और मुझ पर ऐसी दया और मेहर हो रही है, ज़रूर वह कोई और ही पलटू होगा जिसके ऐसे सौभाग्य होंगे. किसी भूल से उसके बदले मुझ पर दया हो रही है; मेरे ऐसे भाग्य कहां हैं ?”
राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय.
राधास्वामी जी.
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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