अंतर्यात्रा ..... २८
मै नादान, माटी मिला .....
किस विध जानू रीत दरस की .
जीव को सत्संग में लगाय रखने के लिए सतगुरु जिज्ञासु की भावनाओं के अनुसार ही वर्ताव करते हैं .
साहब पलटू ने फ़रमाया है –
काजर दिहे से का भया ,
ताकन को ढब नाहीं .
- जिस तरह आँखों में काजल लगाने से, आँखों की रौशनी बढ़ जाती है, और सब कुछ स्पष्ट नज़र आने लगता है, उसी प्रकार भक्त को अपने सतगुरु के दर्शन एकाग्रचित हो कर, एकटक-टकटकी लगा कर (उनकी आँखों में झांक कर देखते हुए) एकटक दर्शन करना ही दर्शन की उचित रीत है. उस वक़्त किसी और की ओर न देखे, - उस वक़्त जो शीतलता और सुरूर पैदा होगा, वो बयान से बाहर है. – जो अगर यह ढंग (ढब) दर्शनों का नहीं आता है, तो चाहें लाख बार सृंगार (व्यवहारिक सेवा, सत्संग, सिमरन ) कर लो, स्वरुप का दर्शन कभी न होगा.
_ तो जिसकी जैसी भावना होती है, उसके साथ वैसा ही वर्ताव किया जाता है. इसी में दोनों का फायदा है, मंजूर तो यही है की जैसे भी बन सके जीव को सरन में लगाया जाय. इसलिए संत सतगुरु वही तरीका अपनाते हैं, जिससे सरनागत की डोर मालिक से लगी रहे या लग जाये. और इसी मकसद से उसके खिलवाड़ या खुराफात में मर्यादा के भीतर रहते हुए शामिल भी हो जाते हैं. इस तरह परमार्थी साधन को मुख्य रख कर उसके भीतर का कुछ ज़हर यानी नकारात्मकता को निकाल देते हैं. संत सतगुरु को जगत में किसी का डर नहीं, जिनकी सुरत का वासा हर पल-छिन सत् लोक में है, वे भला जगत में किस के मुताबिक़ चल सकते हैं ? वे राधास्वामी धाम से आये हैं, न तो किसी की खुशामद मंजूर है, न ही तारीफ़ और न ही वे झूठ ही बोलते हैं. पर “नाम” प्रदान कर के सतगुरु का जो रिश्ता एक बार जीव से लग जाता है, वह कभी नहीं टूटता. फायदा तो होगा ही, चाहे अब हो या भविष्य में, चाहे इसी जन्म में या अगले. जिसने भी “नाम” की कमाई कुछ भी कर ली, वह कभी खाली न जायेगी. मालिक की ऎसी ही मौज है. पर सुरत सत्संगी के संग ऐसा व्यवहार वे ही कर सकते हैं, जो खुद सभी बन्धनों से न्यारे होते हैं.
साहेब पलटू ने फरमाया है –
- जाकी जैसी भावना , तासे तस व्योहार .
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .
मै नादान, माटी मिला .....
किस विध जानू रीत दरस की .
जीव को सत्संग में लगाय रखने के लिए सतगुरु जिज्ञासु की भावनाओं के अनुसार ही वर्ताव करते हैं .
साहब पलटू ने फ़रमाया है –
काजर दिहे से का भया ,
ताकन को ढब नाहीं .
- जिस तरह आँखों में काजल लगाने से, आँखों की रौशनी बढ़ जाती है, और सब कुछ स्पष्ट नज़र आने लगता है, उसी प्रकार भक्त को अपने सतगुरु के दर्शन एकाग्रचित हो कर, एकटक-टकटकी लगा कर (उनकी आँखों में झांक कर देखते हुए) एकटक दर्शन करना ही दर्शन की उचित रीत है. उस वक़्त किसी और की ओर न देखे, - उस वक़्त जो शीतलता और सुरूर पैदा होगा, वो बयान से बाहर है. – जो अगर यह ढंग (ढब) दर्शनों का नहीं आता है, तो चाहें लाख बार सृंगार (व्यवहारिक सेवा, सत्संग, सिमरन ) कर लो, स्वरुप का दर्शन कभी न होगा.
_ तो जिसकी जैसी भावना होती है, उसके साथ वैसा ही वर्ताव किया जाता है. इसी में दोनों का फायदा है, मंजूर तो यही है की जैसे भी बन सके जीव को सरन में लगाया जाय. इसलिए संत सतगुरु वही तरीका अपनाते हैं, जिससे सरनागत की डोर मालिक से लगी रहे या लग जाये. और इसी मकसद से उसके खिलवाड़ या खुराफात में मर्यादा के भीतर रहते हुए शामिल भी हो जाते हैं. इस तरह परमार्थी साधन को मुख्य रख कर उसके भीतर का कुछ ज़हर यानी नकारात्मकता को निकाल देते हैं. संत सतगुरु को जगत में किसी का डर नहीं, जिनकी सुरत का वासा हर पल-छिन सत् लोक में है, वे भला जगत में किस के मुताबिक़ चल सकते हैं ? वे राधास्वामी धाम से आये हैं, न तो किसी की खुशामद मंजूर है, न ही तारीफ़ और न ही वे झूठ ही बोलते हैं. पर “नाम” प्रदान कर के सतगुरु का जो रिश्ता एक बार जीव से लग जाता है, वह कभी नहीं टूटता. फायदा तो होगा ही, चाहे अब हो या भविष्य में, चाहे इसी जन्म में या अगले. जिसने भी “नाम” की कमाई कुछ भी कर ली, वह कभी खाली न जायेगी. मालिक की ऎसी ही मौज है. पर सुरत सत्संगी के संग ऐसा व्यवहार वे ही कर सकते हैं, जो खुद सभी बन्धनों से न्यारे होते हैं.
साहेब पलटू ने फरमाया है –
- जाकी जैसी भावना , तासे तस व्योहार .
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .
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