Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ३०

परली पार मेरा यार बसत है.
जो पहुंचा सो मर के ..
अभ्यास में कभी कम रस आता है, कभी नहीं भी आता है, पर इसका यह अर्थ कतई नहीं की अभ्यास का कोई अर्थ नहीं. हमे समझना है की अभ्यास का माध्यम हमारा ध्यान ही है. अब यदि ध्यान कहीं और फसा होगा तो मुद्रा में बैठ जाने भर को अभ्यास नहीं कहा जा सकता. तब भला रस कैसे आएगा ?
जीव अगर संसारी भोग–विलास और सुख-दुःख में रच बस रहा है और उन्हीं की आशा में बंधा, जगत को ही मुख्य माने बैठा है, तो इससे ज़ाहिर होता है कि जो “नाम” किया सो ऊपरी अंग से ही, बस दूसरों की देखा-देखी या रीस में. इस तरह मिला “नाम” अंतर में नहीं समाता. जीव जितना जगत के विषयों से उदासीन होता जाएगा, उसका चित उतना ही मन-माया से न्यारा होता जाएगा और नाम व शब्द-धुन-धार में समाता जाएगा.
कलियुग में मात्र दो ही इन्द्री की संभाल से उद्धार का मार्ग मिल सकता है. एक तो बोलने वाली ज़बान और दूसरी काम इन्द्री, इसमें भी ज़बान की संभाल मुख्य है, काम इन्द्री, ज़बान के माध्यम से ही सामर्थ पाती है. असली कारज तो अंतर की श्रवण और द्रष्टि इन्द्री या अत्येंद्री से ही होगा पर वाह्य रूप से ज़बान की संभाल से बहुत सी व्यवहारिक संभाल हो जाती है.
गोश्त और शराब की मनाही इसलिए है क्योंकि इनमे तामसी अंग होता है. ऐसे ही कुछ ऐसे पदार्थ जिनमे तामसी अंग हो, उनसे भी अभ्यास रत और अभ्यासी व्यक्ति को परहेज़ करना उचित है, पर जो अभ्यस्त है , उसके लिए कोई बंधन नहीं है. उसके लिए तो भोजन और पानी के सामान ही है. मुख्य, हमारा भाव होता है, कि हम किसी बात या पदार्थ को भाव से ग्रहण कर रहे हैं या अभाव से, भाव से ग्रहण करने पर सकारात्मक प्रभाव होता है और उसी बात को अभाव से ग्रहण करने पर प्रभाव नकारात्मक हो जाता है. तामस, राजस और सात्विक तो गुण ही है, जिन्हें जीव अपने भाव के अनुसार ही ग्रहण करता है. यह बात गंभीर चर्चा का विषय हो सकती है और मै चाहता हूँ, की इस पर पूरी गंभीरता से चर्चा हो. तब ही हम कर्म के मर्म को समझ सकते है और गहराइयों पर पड़े परदे हट सकते है.
ठीक है की कुछ दशक पहले तक आम मनुष्य की बुद्धि और तर्क की सामर्थ इतनी नहीं विकसित हुई थी कि, आत्मिक व्यवस्था के गहन तकनीकी भेदों को समझ सके, इसी लिए पिछलों ने समयानुसार कुछ निषेध और बंधन बता दिए, साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया की संत मार्ग, हर बंधन से मुक्त मार्ग है, जिसका उद्धेश्य ही जीव को जगत के हर बंधन से मुक्त करना है.
अभ्यासी जीव के लिये उचित तो यह भी है की अपने भोज्य पदार्थों में से गरिष्ठ भोजन जैसे – राजमा, छोले, उरद, तला हुआ पदार्थ, पूरी-कचौरी आदि से भी कुछ हद तक परहेज करे, गरिष्ठ भोजन को पचाने में शरीर की काफी ऊर्जा खर्च होती है, जो की अभ्यास में बाधक है, परम पुरुष, पूरण धनि हुजुर स्वामी जी महाराज ने फरमाया है कि, अभ्यासी जीव को अपने सामान्य भोजन में भी धीरे-धीरे कमी कर देनी चाहिए.
अभ्यासी जीव जो कि, अभ्यस्त हो चुका है, और रोजाना कई-कई बार उस घाट पर पहुँचता है, जहाँ पहुँच कर सामान्य अवस्था में जीव की म्रत्यु हो जाती है, ऐसे अभ्यस्त पर किसी भी पदार्थ या तत्व का, कोई भी गुण अपना प्रभाव नहीं डाल पाता. जैसे किसी बकरी को दिन भर खूब खिलाओ-पिलाओ और शाम को पांच मिनट के लिए शेर के सामने बाँध दो, तो दिन भर का सब खाया-पिया बराबर हो जाएगा. यही हाल उनका है जो रोजाना अंतर अभ्यास में मृत्यु के घाट तक पहुँचते हैं. हज़रत मसीह के क्राँस या सलीब का भी यही अर्थ है. हजरत मुहम्मद ने भी यही फरमाया है – “मुतू कब्ल अज मुतू” , मतलब यही की – अंतर अभ्यास के ज़रिये से जीते जी मौत के घाट के परे निकल जाना.
- परली पार मेरा यार बसत है, जो पहुंचा सो मर के.
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित

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