सुरत-शब्द ---- 1
जिस तरह देह की पुष्टता के लिये शारीरिक व्यायाम आवश्यक है और मन की पुष्टता के लिये अध्यन व अनुभव आवश्यक होता है , उसी प्रकार आत्मा की पुष्टता के लिये शब्द अभ्यास आवष्यक है। तब ही एक आत्मा अपने जीव सहित, सुरत बन पाती है और शब्द खुलता है। अतः सुरत-शब्द अभ्यास एक प्रकार से आत्मिक व्यायाम ही है जिसका लक्ष्य शब्द को प्राप्त होना है। और मनुष्य जन्म का वास्तविक सत्य भी यही है कि , इस अवसर का लाभ उठाते हुए जीव , चौरासी-जून से स्यंम को मुक्त कर सके , अन्यथा तो रसातल ही है।
देह में रहते हुए एक आत्मा की धार का प्रवाह बाहर की ओर ही होता है, साथ ही आत्मा का सम्बन्ध अपने मूल शब्द धार से भी जुड़ा रहता है,पर एक जीवात्मा और उसके मूल के मध्य द्वार बन्द रहता है। कोई अधिकारी जीव ही किसी भूली व जगत में भटकी हुयी जीवात्मा को चेताता है अर्थात उसके चेत को जगाता है, साध गुरू जीव को मार्ग व उसका भेद बताता है और जब सतगुरू से सामना होता है, तब शब्द-द्वार खुल जाता है।
अतः आवश्यक है कि, जीव अवसर रहते, अपने जीवन के सत्य को पहचान कर चेत जाए और सतगुरू की खोज में रहे।
साधारण जीव सतगुरू को परख नहीं सकता। सतगुरू की पहचान यही है कि,उनके समक्ष एक जीवात्मा, भौतिकता से विरत हो, सत्य की दिशा में स्वतः ही अग्रसर होने लगती है और शब्द खुल जाता है, क्योंकि सतगुरू स्वयं सतशब्द स्वरूप होते हैं।
सतगुरू स्वामी सदा सहाय.........
-राधास्वामी हैरिटेज़
(संतमत विशवविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)