Friday, 31 May 2013

सुरत-शब्द ---- 1

     

जिस तरह देह की पुष्टता के लिये शारीरिक व्यायाम आवश्यक है और मन की पुष्टता के लिये अध्यन व अनुभव आवश्यक होता है , उसी प्रकार आत्मा की पुष्टता के लिये शब्द अभ्यास आवष्यक है। तब ही एक आत्मा अपने जीव  सहित, सुरत बन पाती है और शब्द खुलता है। अतः सुरत-शब्द अभ्यास एक प्रकार से आत्मिक व्यायाम ही है जिसका लक्ष्य शब्द को प्राप्त होना है। और मनुष्य जन्म का वास्तविक सत्य भी यही है कि , इस अवसर का लाभ उठाते हुए जीव , चौरासी-जून से स्यंम को मुक्त कर सके , अन्यथा तो रसातल ही है।
      देह में रहते हुए एक आत्मा की धार का प्रवाह बाहर की ओर ही होता है, साथ ही आत्मा का सम्बन्ध अपने मूल शब्द धार से भी जुड़ा रहता है,पर एक जीवात्मा और उसके मूल के मध्य  द्वार बन्द रहता है। कोई अधिकारी  जीव ही किसी भूली व जगत में भटकी हुयी जीवात्मा को चेताता है अर्थात उसके  चेत को जगाता है, साध गुरू जीव को मार्ग व उसका  भेद बताता  है और  जब  सतगुरू  से सामना होता है, तब  शब्द-द्वार खुल जाता है।
            अतः आवश्यक है कि, जीव अवसर रहते, अपने जीवन के सत्य  को  पहचान कर चेत जाए  और  सतगुरू की खोज में रहे।
                   साधारण जीव सतगुरू को परख  नहीं सकता।  सतगुरू  की पहचान यही है कि,उनके समक्ष एक जीवात्मा, भौतिकता से विरत हो, सत्य की दिशा में स्वतः ही अग्रसर होने लगती है  और  शब्द खुल जाता है, क्योंकि  सतगुरू  स्वयं  सतशब्द  स्वरूप होते हैं।
                                         सतगुरू स्वामी सदा सहाय.........                 
                                                                        -राधास्वामी हैरिटेज़
                   (संतमत विशवविद्यालय की  स्थापना के प्रति  समर्पित)

Sunday, 26 May 2013



जीवात्मा-का स्वरूप यह है कि,जब परम् तत्व भाव रूप मे प्रकट होता है, तब जीव के प्रारब्ध मे निहित कामनाऍ(अतृप्त इच्छाऍ), भाव के प्रति आकर्षित होती हैं, जिनके पीछे जीव का प्रारब्ध जुड़ा होता है ।
इस प्रकार जब भाव के साथ जीव की कामनाऍ मिलती हैं तब यही भावनाऍ बनकर प्रकट होती हैं ।
यही भावना जीव की सूक्ष्म देह का प्रथम स्तर है, यानी कारण देह पर सूक्ष्म देह की पहली परत है । और चूंकि भावनाऍ सीधे तौर पर जीव के प्रारब्ध से जुड़ी होती है, अतः प्रारब्ध के अनुसार ही जीव की प्रकृति का निर्माण होता है । जो कि आगे चलकर दैहिक विकास क्रम  में, जीव की स्थूल देह यानी योनि के रूप में प्रकट होता है । इस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार ही जीव की योनि, आयु, स्थिति व वातावरण निर्धारित होता है। जिसे विधि का विधान कहा गया है।
प्रसंग वश, यह जानना आवश्यक है कि , कामनाऍ, ब्रहमाण्डीय मन और प्रारब्ध , सूक्ष्म माया का अंग है और शब्द, चैतन्य का व भाव, निर्मल माया का अंग है ।
तो भावनाऍ जो कि कारण व सूक्ष्म देह की गाँठ है, और प्रारब्ध के अनुसार जीव की प्रकृति का निर्माण होता है, तो इस विकास क्रम में , जीव का प्रारब्ध उसकी प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो जाता है। और तन्मात्रा , प्रकृति का मायक रूप व भय और भ्रम , काल अंग रूप हैं । इस प्रकार तन्मात्रा , भय व भ्रम जीव की प्रकृति में अपने मूल रूप में समाहित होते हैं ।
प्रकृति-
प्रकृति के अनुसार ही जीव की प्रवृति, फिर प्रवृति के अनुसार आशाऍ, आशाओं के अनुसार विशवास और विशवास के अनुसार ही जीव की इच्छाओं का विकास होता है, जिसे अंर्तमन या चित कहा गया है और यही प्रकृति से ले कर इच्छाओं तक का विकास क्रम जीव का स्वरूप है ।
तो आत्मा जो की जीव के संग , भावनाओं के माध्यम से जुड़ी होती है, इसी जीव सहित आत्मा को जीवात्मा के रूप में जाना गया है। और यही एक सुरत, आत्मा व जीवात्मा में मूल भेद है ।
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Saturday, 25 May 2013

सुरत, आत्मा और जीवात्मा--



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सुरत-- अर्थात शुभ में रत, और शुभ वही है जो पूर्ण शुघ्द है। न काल का प्रभाव न निर्मल माया की मिलवट , तो वह क्या है। वह आत्मा नहीं वह है चेत। चेत यानी प्रकाश , हां मात्र प्रकाश और गति जिसका गुण है।और यही प्रकाशीय गति शब्द का कारण है , जिसके होने मात्र से शब्द उत्पन्न होता है। इस प्रकार शब्द प्रकाश कुल का है।
गति के प्रभाव से शब्द की जो लहर या तरंग उठती है और हमें अपनी ओर आकर्षित करती है , तो यही वह खिंचाव शक्ति है जिसे हम आकर्षण के नाम से जानते है और जिसका प्रकट स्वरूप प्रेम है। तो आदि शब्द के इसी आकर्षण व प्रेम को पवित्र माना गया और इस तरह परमात्मा व प्रेम को एक रूप माना गया।
आत्मा-- का भी वही स्वरूप है, जो कि परम् आत्मा का है, क्योंकि हर आत्मा, परम् आत्मा का अंश रूप है, अंश कहने का अर्थ यह नही कि, आत्मा, परम् आत्मा से अलग हुआ कोई टुकङा है।पर यही कि एक आत्मा के भी वही प्रभाव व गुण है जो कि परम् आत्मा के है, जैसे सूर्य व उसकी किरण व धूप में जो ऊष्मा है ,वह सूर्य की ही है। धरती पर सूर्य की किरण , धूप व ऊष्मा तो होती है पर सूर्य नही।
तो आत्मा प्रेम स्वरूप है यानी शुध्द चेत जब जगत में , प्रेम स्वरूप में प्रकट होता है वही आत्मा का स्वरूप है । इस प्रकार शुध्द चेत अपनी गती के प्रभाव से शब्द स्वरूप को प्राप्त हुआ और शब्द से जो लहर उठी , इसे ही हम अंतर् में उठनें वाले भाव कहते हैं और प्रेम स्यंम में भाव मात्र ही है।
इस प्रकार चचेत से भाव तक का विकास क्रम ही एक आत्मा का वास्तविक स्वरूप होता है-- और भाव ,शब्द का विकास व शब्द चेत का स्वरूप है। और भाव ही जीव की कारण देह होता है।











आत्मा चूंकि तत्व रूप है ,जिसे हम परम् तत्व के रूप में जानते हैं ,अतः भाव ही आत्मा का स्थूल रूप है और शब्द सूक्ष्म रूप व चेत ही आत्मा का कारण है। तो चेत जो कि सब रचना व देहियों का आदि कारण व मूल है,फिर यही चेत जब अपने मूल धुन धार की दिशा में प्ररित व अग्रसर होता है तब इसे ही शुभ में रत या सुरत कहा गया है।

एसा अकसर देखऩे मे आता है कि लोग थोड़ा बहुत सुमिरन तो करते है पर भजन नही हो पाता । क्योकि ध्यान स्थिर नही हो पाता। इस तरह वर्षो अभ्यासरत रह कर भी शब्द नही खुलता ।एसा इस लिये होता है क्योकि वे भारी बोझ उठा कर चलते है और जब मंजिल पर पहुच नही पाते तो थक हार कर बैठ जाते है। यदि हम व्यर्थ के बोझ को कम कर ले तो चलना सहज और मंजिल सुलभ हो जाएगी ।
इसके लिये जानना आवश्यक है कि काम की वस्तु क्या है और व्यर्थ का
बोझ क्या है।
पाता हूं कि लोग जीवात्मा को ही सुरत मान बैठे है और आगे बढ नही पाते।
सुरत न तो आत्मा है और न ही जीवात्मा। सुरत एक स्थिति है। जब कि जीव का चेत जो कि आत्मा का कारण है, अपने मूल स्रोत धुन धार की दिशा मे अग्रसर होता है, इसी शुभ मे रत स्थिति को सुरत कहा गया है। अतः आवश्यक है एक सुरत, आत्मा व जीवात्मा के भेद को जानना। तब ही हम स्यम को व्यर्थ के बोझ से मुक्त कर सकते है और शब्द स्वतः , सहज व सुलभ हो जाता है। यही शब्द का खुलना है।
और इसी उद्देश्य से मै अधिकारी जीवों के हित में सुरत , आत्मा व जीवात्मा के भेद का वर्णन करता हूं।

PARMATAMA WA SANTO KA BHEAD



AATMA ek Tatve hai aur Parmatma Param Tatve hai aur dono hi brehmandiay (Bhoutik) hai .Aapne thek hi kaha hai ki Avtar samaj ke liye hota hai . Aur Avtaran sada PARAM PURUSH ka hi hota hai , jo ki Jagat ki her Suret ke liye her Suret ke hit mukti ke liye hota hai. Avtar sukh data hai aur Avtaran muktidata ka hota hai . Avtar Brehmandeay Shaktion ka hota hai aur unki apni ichha se wey usey dharan kerte hai jabki Avtaran, Param Purush ki Aagya se hota hai jise Satya Loke wa us se uper ke roohani mandlon ki wasi Hans Surtey grahan karti wa Jagat mai Jeev Mukti hit mai Pragat hoti hai , jinhe sansar mai Sant , Param Sant aur Param Hans(Param Purush ke deah swaroop) ke roop mai jana jata hai. . SURAT ka wastvik swaroop CHEAT hai Brehmandeay seemao mai yahi CHEATANY , Sushm ster per CHEATNA aur Deahik star per ise hi CHEATANYTA kaha gaya hai . Is prakar SURAT ka swaroop CHEAT aur AATMA ka swaroop CHEATANY hota hai .Yahi Parmatama aur Santon ke Avtar wa Pragat Hone ka bhead hai.................RADHASOAMIJI