Monday, 17 June 2013

सुरत-शब्द-----13 .

 महा प्रकाशवान और महापवित्र सत्यलोक है। इस स्तर पर निर्मल और निर्मल चैतन्य ही चैतन्य है। यही, नीचे की समस्त रचना का आदि और अन्त भी है। शब्द का प्रकाट्य इसी पद पर हुआ है , यही अनहद और महानाद और सत्यनाम भी यही है। यह राधास्वामी पद से दो पद नीचे का पद है।
           राधास्वामी नाम जो गावे सोई तरे ।
       काल क्लेश सब नाश , सुखः पावे सब दुखः हरे।।
    
     सुरत जब इस स्तर पर पहुंचती है , तब बीन में से निकलते सत्-सत् शब्द को सुनती है। इस शब्द में इतना खिंचाव है कि सुरत इस शब्द से बंधी और खिंची चली जाती है। इस लोक में प्रकाश की सीमांए नहीं हैं , मात्र प्रकाश ही प्रकाश है और इसके घेरे को भी नाप पाना सहज नहीं। असंख्य सुरतें यहां की वासी जिन्हें हँस कहा गया है, सत्यपुरूष की महिमा और सानिध्य में विलास करती हैं और अमी      ( अम्रत का सार ) का आहार करती हैं। इस प्रकार सत्यपुरूष के दर्शन पा कर सुरत निहाल होती है और आज्ञा पा कर आगे बढती है।
       जो इस पद तक पहुंचा वही संत और देह में सतगुरू है , अन्य किसी को संत या सतगुरू कहलाने का हक नहीं , फिर भी जो ऐसा करता है वह दयाल का चोर है और नहीं जानता कि उसकी गति उसे कहां ले जाएगी।
       सत्यपुरूष की आज्ञा पा कर सुरत आगे बढती और अलखलोक में पहुंचती है। अलखपुरूष और लोक की महिमा , सत्यलोक से करोङो अरब गुना अधिक है।
     फिर अलखपुरूष की आज्ञा पा कर सुरत अगमलोक में प्रवेश करती है, जिसकी महिमा और पुरूष का नूर - अलख पद से अरबों खरब गुना अधिक है। इस लोक के वासी हँसों का रूप अदभुत और हर उपमा से रहित है। बहुत लम्बे अरसे तक सुरत का यहां ठहराव है और तब अगमपुरूष की आज्ञा से अनामीपुरूष - परमपुरूष पूरनधनी राधास्वामी दयाल का दर्शन होता है।
     यहां तो शब्द भी मौन है , अनन्त , असीम , अनामी यही परम संतो का बिलकुल निजी है , जिसमें समां कर सुरत अनन्त , असीम और अनामी हो जाती है। यहां कोई द्वै नहीं बस स्वामी ही है। इस प्रकार राधा - स्वामी में समा जाती है और राधास्वामी हो जाती है।
                एक ओंकार सतनाम अनामी ।
                राधास्वामी        राधास्वामी ।।

        राधा आदि सुरत का नाम , स्वामी शब्द निज धाम ।
       सुरतशब्द और राधास्वामी दौनों नाम एक कर जानी।।

सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

सुरत-शब्द------12 .

   भंवर गुफा सत्यलोक से नींचे की रूहानी या आत्मिक रचना है। आदि में अधा की जो धार सत्यलोक से नीचे गिराई गयी , वह बस एक बार ही गिराई गयी , ऐसा नहीं है कि निरंतर कोई धार सत्यलोक से जारी है।   तो नीचे की रचना का घेरा या मण्डल बांध कर धार जिस स्तर पर रूकी वही भंवर गुफा है।
        इस पद पर धार स्यंम में एक भंवर के समान घूम रही है। तो जैसा कि धार स्यंम में सुरतों का भंडार थी , तो इस भंवर में तमाम सुरतें सदा घूमती रहतीं हैं । इस पद के हर ओर असंख्य रूहानी मण्डल बने हुए हैं और उनमें सदा सोहं-सोहं का शब्द गूंजता रहता है , जिसमें कि वहां की वासी सुरतें सदा मगन रहती हैं।
         तो अभयासी को अवश्य है कि इस शब्द को कभी न छोङे , यही सत्य पद का सच्चा निशान है। भंवर गुफा को पार कर , सुरत जब आकाश में ऊपर चढती है , तब दूर से आती उस सुगंध को अनुभव करती है जिसका कोई उदाहरण इस जगत् में नहीं साथ ही ऐसी धुन सुनाई पङती है जैसी बांसुरी से निकलती है।   इसी आकाश के पार पद सत्यलोक का है।
        सबको राधास्वामी जी
        राधास्वामी हैरिटेज
        ( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

सुरत-शब्द-------11.

सुन्न पद पर पहुंच कर भी अभ्याय में कुछ समय के लिये एक ठहराव आता है और बहुत से कच्चे तैराक इस पद के अचरज में फंस कर अटक जाते हैं। पर सुरत सतगुरू की दया और मेहर पा कर आगे बढती है और सुन्न के स्तर को पार कर के सुरत जिस पद पर पहुंचती है वह महा सुन्न मैदान है।
अंधेरे के सिवा इस पद पर कुछ नहीं सूझता। सुरत अनन्त गहराइयों में उतरती चली जाती है पर कोई ठौर नहीं मिलता , तब फिर पलट कर ऊपर को चढती है और मार्ग की वह समझ जो सतगुरू ने दी थी उसी के सहारे आगे बढती है। इस पद पर तमाम सुरते जिनका सत्यलोक में प्रवेश वर्जित है , अपने-अपने स्तरों के अनुसार चार भागों या अपनी सीमांओ की हद में निवास करतीं हैं और अपने ही आत्मिक प्रकाश में व्यवस्थित रहतीं हैं। इन सुरतों को सतपुरूष के दर्शनों की आज्ञा नहीं होती। दरअसल ये वे सुरतें है जो कि सतपुरूष की आज्ञा से सतलोक से निकली गयी होती हैं । बहुत सी जटिल प्रकियाएँ व कार्यवाहियां इस स्तर पर हो रही हैं, जिसका जीव के मानसिक हित में गुप्त रहना ही निशचित है, तो जब एक सुरत दयाल की दया और सतगुरू की मेहर पा कर आगे बढती है तब स्यंम ही उस पद के कुल हालात से परिचित हो जाती है ।
पर जब संत या संतो की दया पा कर कोई सुरत उस मार्ग से गुजरती है तब जो निवासी सुरतें उनसे विनती करती हैं और सतपुरूष की उन पर दया हो जाए तब संतो का मान रखते हुए यदि सतपुरूष की इच्छा हो तो इन निकाली हुयी सुरतों को वापसी का मार्ग मिल जाता है।
इस से अधिक , इस स्तर का भेद प्रकट करने की आज्ञा संतो को भी नहीं । तो इस मार्ग से सुरत जब आगे बढती है तब पद भंवर गुफा का है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रि सर्पित )

सुरत-शब्द-------10.

प्रणव पद को पार कर के सुरत जब आगे बढती है और चिदकाश को भेद कर जिस पद पर पहुंचती है वह दसवां द्वार सुन्न का है। इस पद पर भारी अचम्भा है और समझ भी चौन्धिया जाती है , फिर भी कुछ कहता हूँ।
यहां का प्रकाश प्रणव पद से दस-पंद्रह गुना अधिक है और शब्द ररंकार है। कारण , सूक्षम और स्थूल दहों , तीनों गुण और पांचो तत्व और तन्मात्रा से मुक्त सुरत प्रेम की सामर्थ या ताकत से खिंची चली जाती है। यही पारब्रह्म है और पुरूष व प्रक्रति का इसी स्तर पर प्रकाट्य है। इसी पद को बैकुण्ठ भी कहा गया है , तो जो इस स्तर तक पहुंचा वही पूरा साध या साधक है।
इस पद पर बहुत सी सुरतों का वास है , इस पद पर अम्रत सरोवर से तमाम धाराएं बह रही हं और वासी सुरतें उसका आहार करती हैं। यहां के तेज चमकते प्रकाश में सुरतें चकती हुयी इधर सेउधर डोलती रहती हैं और तरह-तरह की खुशबुएं और रसीली धुनें यहां के वातावरण में फैली हुय़ी हैं। शीशे के समान पारदर्शी महलों में सतरंगी आभा से चमकती सुरतों का इनमें ठहराव या निवास है और यही सतरंगी आभा पूरे मण्डल में फैली हुयी प्रतीत होती है। इससे अधिक क्या कहूं, जो कहा अपनी समझ से बहुत कहा पर फिर भी कुछ न कह सका। इस स्तर को वही जान सकता है जो यहां पहुंचा।
सो.....सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

सुरत-शब्द------9

सुरत जब बंक नाल से ऊपर उठ कर दूसरे आकाश में आगे बढती है, तब पद त्रकुटी पर पहुंचती है, जो कि त्रिकोण के समान है । यहां का प्रकाश करोणों चांद व सूरज के समान सुनहला व रूपहला है। इसे ही ब्रह्म , प्रणव व ओंकार पद के नाम से जाना गया है और यही योगेश्वरों का सिद्धान्त पद भी है। जिससे आगे का मार्ग उन्हें प्राण की धार के आसरे होने के कारण न मिला।
इस स्तर पर हर वक्त ओं-ओं का शब्द बादलों की गरज के समान होता रहता है।इस स्तर पर पहुंच कर सुरत एक प्रकार की विषेश चैतन्य सामर्थ का अनुभव करती है।
त्रकुटी या ब्रह्म पद से ही महा सूक्ष्म तीन गुण पाँच तत्व (तन्मात्रा) और ब्रह्र्माण्डीय शब्द ओं प्रकट हैं। इसी पद को चिदाकाश (चैतन्य आकाश ) भी कहा गया है और चैतन्य प्राण का स्रोत भी यही पद है , जिस कारण इसे प्राण पुरूष के नाम से भी जाना गया है।
इस स्तर पर तरह-तरह की कार्यवाहियां अनवरत चलती रहती हैं। कर्मों का लेखा , प्रारब्ध का खाता, योनि निर्धारण , प्रक्रति का निर्माण व आयु की सीमा आदि का यही कारखाना है। योग मार्ग इस स्तर पर आ कर समाप्त होता है, अतः योगेशवरों का ज्ञान भी इस स्तर पर पहुंच कर मौन हो रहा।
इस पद से आगे जो मार्ग जाता है वही शब्द मार्ग है। इस स्तर से आगे बढने पर,सुरत का स्वरूप अब एक जीवात्मां का नहीं पर आत्मा का है। शब्द खुलने लगता है पर भाव गौङ होने लगते हैं और सुरत चैतन्य की धार को अनुभव करने लगती है , साथ ही कुछ समय के लिये अभ्यास में , इस स्तर पर पहुंच कर , एक ठहाव आ जाता है और कुछ समय तक सुरत इसी पद के आनन्द में मगन रहती है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

Sunday, 16 June 2013

सुरत-शब्द-------8

मनुष्य की समस्त दैहिक व मानसिक क्षमताओं का केन्द्र मस्तिष्क ही होता है। शब्द-अभ्यास की प्रक्रिया भी आँखों के पीछे तिल के स्थान से शुरू हो कर व पूरे मस्तषक से हो कर ही आगे बढती है। इस प्रकार सम्पूर्ण मस्तिष्क व उसका हर एक महीन से महीन बिन्दु भी चैतनय के प्रभाव से जाग्रत हो उठता है। अर्थ यह है कि, इस प्रक्रिया में मनुष्य की समस्त दैहिक व मानसिक क्षमताएँ जाग्रत हो उठती हैं ।.......क्रमशः


           निशचित है कि, मुक्ति आयु पूर्ण होने पर ही प्राप्त होगी , पर प्रश्न यह है कि एक अभ्यासी व्यक्ति में जो दैहिक व मानसिक क्षमताएँ जाग्रत हो उठती हैं, उनका अपने जीवन काल में वह अपने भौतिक जीवन में किस प्रकार उपयोग कर सकता है. और एक सहज व सुफल जीवन जी सकता है......
         यही प्रश्न एक अभ्यासी व्यक्ति के आत्मिक जीवन को उसके भौतिक जीवन व जीवन की आवश्यक्ताओं से जोङता है। जिसे परमपुरूष पूरनधनी हुजूर स्वामी जी महाराज ने स्वार्थ के संग परमार्थ के रूप में व्यक्त किया है ( वचन 18. जो कि परमपुरूष ने अन्तर्द्धान होने से पहले राधा जी से फरमाया )
         तो संतमत की शिक्षाओं का व्यवहारिक उपयोग , आज के समय में दुखः, क्लेशों व काल के प्रभाव से ग्रसित हर मनुष्य की आवशयक्ता व समाधान है। जो कि संतमत को एक व्यवहारिक विषय के रूप में जानने व समझने के लिये प्रेरित करती है , और यही संतमत विशवविधालय की स्थापना का उद्धेशय भी है।
          सबको राधास्वामी जी
          राधास्वामी हैरटेज
         ( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

सुरत-शब्द-----7

तो चैतन्य धार, सहस दल कँवल से जब ऊपर उठती है, तब आकाश मे सुई की नोंक के समान छिद्र या द्वार दिखाई पङता है। अभ्यासी को अवश्य है कि अपने चैतन्य द्वारा इस द्वार में प्रवेश करे
........क्रमशः


 सुरत-शब्द---7 का शेष.....

..........इस द्वार को योग शास्त्र में ब्रह्म रंध्र कहा गया है, (चित्र में सं. 4)। इसमें प्रवेश करने पर चैतन्य , पहले सीधा ऊपर की ओर चढता है फिर नीचे की ओर उतरता और फिर जब पलट कर ऊपर की दिशा में सीधा चढता है , तब इस बिन्दु को योग शास्त्र में अधिपति रंध्र के नाम से जाना गया है (चित्र में सं. 5 )। तो ब्रह्म व अधिपति दौनों ही रंध्र मस्तिष्क में ऊपर से नींचे की ओर , 3 - 4 से. मी. की लम्बाई में , बाल से भी महीन होती है।
आकाश द्वार से हो कर चैतन्य जब आगे बढता है, और फिर पलट कर नीचा उतरता और फिर सीधा ऊपर चढता है , तो इसी पूरे मार्ग को संतमत में बंक नाल के नाम से जाना गया है । यहां तक की रचना हमें स्थूल देह में स्पष्ट होती है और मनुष्य देह को ब्रह्माण्ड के छोटे स्तर पर एक नमूने या माँडल के रूप में सिद्ध करती है। जैसे किसी बहुत बङी सी तस्वीर की कोई छोटी सी कापी होती है, उसी प्रकार मनुष्य देह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की समस्त कुदरती ताकतें छोटे स्केल या पैमाने पर मौजूद होती हैं।
इससे आगे जब चैतन्य बढता है,तब दूसरे आकाश में पहुंचता है। जिसे कि सुरत का चढना कहा गया है और चैतन्य अब सुरत कहलाता ह
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटज
( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

Saturday, 15 June 2013

सुरत-शब्द-----6

तो जब एक अभ्यासी की चेतना तिल पर स्थिर होती है , तब तमाम देह की कोई खबर नहीं रहती। मतलब यह कि चैतन्य की धार , देह व इन्द्रियों से सिमट कर तिल पर स्थिर हो जाती है और भीतर की ओर , जिस मार्ग से कि वह देह में आयी थी , उसी मार्ग पर उलट कर आगे बढती है। इसी प्रक्रिया को अंतर्यात्रा या अपने भीतर जाना कहा गया है। इस स्थिति में द्रष्टि भी भीतरकी ओर उलट कर आकाश को देखती है और सहस दल कंवल पर जा टिकती है।इस पद से प्रकाश हजारों पंखुणियों के समान हर दिशा में फैल रहा है। और यही तीनों लोकों के मालिक कर्ता ब्रह्म का स्थान है। जो कि तीनों लोकों की रचना को साध रहा है। संतमत में इस पद को ज्योत-निरंजन का स्थान कहा गया है । संतमत में अभ्यास की शुरूआत इसी पद से करवाई जाती है। इसी पद पर तन्मात्रा यानी तत्वों का सूक्षम रूप , प्रकट हुयी और उससे स्थूल तत्व , इन्द्रियां , प्राण व प्रक्रति प्रकट हुए औरयही पद बहुत से दुनियांवी धर्मों व मजहबों का धुर पद है।
शरीर विज्ञान की भाषा मे इसे Thalamus के नाम से जाना गया है। मस्तिष्क के इसी भाग में चैतन्य धार का प्रकाशमय शब्दस्वरूप प्रकट है। जिसकी छाया पहले तिल के स्थान पर फिर आंखों में हो कर समस्त देह में व्याप्त हो ही है।

 
सुरत-शब्द---6 का शेष....
शब्द की धार जो कि शुद्ध चेत है, जब वह ब्रह्म के स्तर पर प्रकट होती है , तब उसे ही चैतन्य कहा गया है। इसी चैतन्य की छाया जब तिल के स्थान पर पङती है, तब चेतना कहलाती है और दैहिक स्तर पर इसे ही चैतन्यता कहा गया है। शब्द-अभयासकी प्रक्रीया में पहले चैतन्यता , देह से सिमट कर चेतना में, फिर चेतना-चैतन्य में और चैतन्य-चेत में समाहित होता जाता है। इसे ही जीते जी मरना कहा गया है।
तो जब चेतना तिल के स्थान से आगे बढती है और Amygdala के स्तर पर पहुंच कर आकाश की ओर घूमती है , तब तमाम देह की खबर नहीं रहती और आँखों के डेले भी पलट जाते हैं। एक अभ्यासी को इस स्थिति का अनुभव , बिना सतगुरू या साधगुरू के सानिध्य के नहीं करना चाहिये । इस स्तर पर कुछ खतरे हो सकते हैं जिनका निवारण साधगुरू या सतगरू के सानिध्य व सहयोग से ही संभव हो पाता है , जिसे एक अभ्यासी ही समझ सकता है।
तो जब Amygdala के स्तर से द्रष्टि , आकाश की ओर घूमती है , तब अमयगदाला के स्तर पर एक बन्ध पङ जाता है , जो कि अमयगदाला के स्तर को बढने नहीं देता। इसी कारण एक अभ्यासरत व्यक्ति का चेतन मस्तिष्क क्रियाशील रहता है और वह आत्मिक अनुभवों को प्राप्त करता है। और जब भी उत्तेजना की स्थिति आती है तब एक प्रेमी सतसंगी उसे नियंत्रित कर पाता है, तो विकार भी प्रकट नहीं होते। यही एक सतसंगी के विकार रहित होने का भेद है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विशवविधालय की स्थापन के प्रति समर्पित )

सुरत शब्द------5

शब्द का खुलना व शब्द अभ्यास एक आतमिक प्रक्रिया है। जो कि व्यवहारिक धरातल पर होती है , अतः इसे किसी आध्यात्मिक सिद्धान्त के रूप में नहीं समझना चाहिये।
संतत राधास्वामी में , आत्मा का ठहराव,देह में,दौनों भुकटियों के मध्य , कुछ भीतर की ओर बताया गया है। जाग्रत अवस्था में आत्मा की धार इसी स्थान से उतर कर आंखों में आती और फिर पूरी देह में व्याप्त हो जाती है। तो दौनों भुकटियों के मध्य जो बिन्दु है,वही शब्द धार का देह में ठहराव और आंखों में जो प्रकट होता है, वह भाव है। फिर देह की जो क्रियाशीलता है वह भावनाओं पर आधारित होती है और भावनाऎ सकारत्मक व नकारात्मक दौनो प्रकार की होती हैं , जो कि जीव के वर्ताव व व्यवहार में स्पष्ट होती रहती हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि देह व मन की क्रियाशीलता का कारण , शब्द धार की उपस्थिति ही है। इसी लिये संतमत में ध्यान को मध्य बिन्दु पर एकाग्र करने का विधान है।
मध्य बिन्दु या तिल , मस्तिष्क का एक भाग या अंग है और शरीर विज्ञान की भाषा में इसे ओलफैक्टरी बल्ब कहा जाता है , जैसा कि चित्र में स्पष्ट है। ------------ क्रमशः


 तिल के दूसरे छोर पर स्थित भाग को अमयगदाला Amygdala कहा कहा गया है । जो कि मनुष्य की सकारात्मक , नकारात्मक व भावनात्मक सोच का केन्द्र होता है। सामान्य अवस्था में Amygdala का स्तर सामान्य होता है और जीव का व्यवहार भी , पर उत्तेजना की स्थिति में अमयगदाला का स्तर भी बढने लगता है , और जैसे-जैसे यह स्तर बढता जाता है , उत्तेजना के साथ-साथ जीव के वर्ताव व व्यवहार में नकारत्मक्ता या विकार प्रकट होने लगते है। और अत्यधिक उत्तेजना की स्थिति में मनुष्य का चेतन मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर देता है और अवचेतन मस्तिष्क में समाहित समस्त नकारात्मक्ता व विकार( काम , क्रोध , लोभ , मोह व अहंकार ) जीव के व्यवहार में प्रकट होने लगते हैं।
एक मनुष्य और अन्य सभी जीवधारियों में यही मूल भेद है। अन्य सभी जीवों में केवल अवचेतन मस्तिष्क ही होता है। इसीलिये वे मुख्यतः अपने अनुभवों के आधार पर मात्र प्रतिक्रया ही करते है और किसी भी विषय पर मनन् व चिंतन नहीं कर सकते। अतः उत्तेजना की उच्च स्थिति में मनष्य भी पशुवत व्यवहार करनें लगता है।
तो किस प्रकार मनुष्य उत्तेजना की स्थिति पर नियंत्रण कर सकता है
.......इसका भेद शब्द-अभ्यास की रीत में छिपा है । जिसे एक प्रेमी सतसंगी और अभ्यासी व्यक्ति ही जान सकता है।
सबको राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

Wednesday, 5 June 2013

                                            सुरत शब्द---4
  हमारी इन्द्रियां ही मुख्यतः,हमारी देह से ऊष्मा व ऊर्जा के निकास का द्वार होती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियां व पाँच कर्मेन्द्रियां। ज्ञानेन्द्रियों से मुख्यतः ऊष्मा का निकास होता है और कर्मेन्द्रियों से ऊष्मा के साथ ही ऊर्जा का भी निकास होता है। द्वार बन्द करने का अर्थ है इन्द्रियों को रोकना, पर कैसे ....
           कर्मेन्द्रिया प्रकट व ज्ञानेन्द्रिया सूक्ष्म रूप में होती हैं।दौनो ही इन्द्रियों का सम्बन्ध हमारी बुद्धी से जुड़ा होता है। इस प्रकार बुद्धी दौनों ही इन्द्रियों के मध्य एक सम्पर्क सूत्र की तरह कार्य करती है। और कर्मेन्द्रियों द्वारा ही मुख्य रूप से हमारी ऊष्मा व ऊर्जा का निकास होता है। इसमें जबान जिसके द्वारा वाणी का उच्चारण करते हैं, आंख व कान मुख्य हैं जिनके द्वारा हमारा ध्यान या ऊष्मा व ऊर्जा का बहाव जगत् की दिशा में अधिक होता है।
               तो जब ज़बान,आँखें व कान बन्द होते है तब हमारी ऊष्मा यानी ध्यान भी भीतर ही रूकने लगता है, और धीरे-धीरे वाह्य जगत से सिमटने लगता है। देखने और सुनने में अवरोध की स्थिति में कर्मेन्द्रियां शिथिल पड़ जाती है,पर ज्ञानेन्द्रियां अधिक क्रियाशील हो उठती हैं और मन में उठते विचारों के साथ कल्पनाओं में लिप्त हो जाती है। तो अब आवश्यक्ता है,मन में उठते विचारों  में शिथिलता और ध्यान के अभ्यास की।
         ध्यान का अभ्यास यही है कि,हमें ध्यान को अपने भीतर ही रोके रखना है। इसके लिये  संतो ने बहुत ही सहज उपाय बताया है कि,दोनों भुकटियों(भवों) के मध्य कुछ भीतर की ओर,करीब एक से॰ मी॰, अपने ध्यान को एकाग्र कर, स्थिर रखना है।
            ऍसा करने से ज्ञानेन्द्रियां शिथिल होने लगती है और फिर कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की शिथिलता के कारण उत्पन्न बोध के अभाव में बुद्धि की क्रियाशीलता भी कम होने के साथ-साथ मन में उठते विचारों का प्रवाह भी थमने लगता है। हमें सिर्फ इतना करना है कि ध्यान को  अपने स्थान पर स्थिर रखना है, इसके लिये मन में उठते विचारों के पीछे चलना नहीं है,बल्कि साक्षी भाव से बस उन्हें  देखते रहना है। अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में उठें, उनकी तुलना न करो,बस उन्हें उठने दो और बहने  दो। यदि विचारों के पीछे चल पड़े तो ध्यान भी अपने स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता, वह भी भटक जाएगा।
                 इस तरह विचारों का प्रवाह कम पड़ने के साथ-साथ,मन भी शान्त होने लगता है, और एक समय विचार शून्यता की स्थिति आ जाती है। यही समाधीषट होना है।
           तो  जैसे-जैसे मन शान्त होता जाता है, हमारी ऊष्मा जगत् के प्रति प्रवाहित न  हो कर, ऊर्जा में समाहित होने लगती है। इस प्रकार,ऊष्मा या ध्यान जो कि हमारा भाव होता है, उसका ऊर्जा यानी शब्द में समाहित होना ही शब्द का खुलना है।
                                                                             राधास्वामी जी
                                                                        राधास्वामी हैरिटेज
                     (संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

                                            सुरत शब्द---4
  हमारी इन्द्रियां ही मुख्यतः,हमारी देह से ऊष्मा व ऊर्जा के निकास का द्वार होती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियां व पाँच कर्मेन्द्रियां। ज्ञानेन्द्रियों से मुख्यतः ऊष्मा का निकास होता है और कर्मेन्द्रियों से ऊष्मा के साथ ही ऊर्जा का भी निकास होता है। द्वार बन्द करने का अर्थ है इन्द्रियों को रोकना, पर कैसे ....
           कर्मेन्द्रिया प्रकट व ज्ञानेन्द्रिया सूक्ष्म रूप में होती हैं।दौनो ही इन्द्रियों का सम्बन्ध हमारी बुद्धी से जुड़ा होता है। इस प्रकार बुद्धी दौनों ही इन्द्रियों के मध्य एक सम्पर्क सूत्र की तरह कार्य करती है। और कर्मेन्द्रियों द्वारा ही मुख्य रूप से हमारी ऊष्मा व ऊर्जा का निकास होता है। इसमें जबान जिसके द्वारा वाणी का उच्चारण करते हैं, आंख व कान मुख्य हैं जिनके द्वारा हमारा ध्यान या ऊष्मा व ऊर्जा का बहाव जगत् की दिशा में अधिक होता है।
               तो जब ज़बान,आँखें व कान बन्द होते है तब हमारी ऊष्मा यानी ध्यान भी भीतर ही रूकने लगता है, और धीरे-धीरे वाह्य जगत से सिमटने लगता है। देखने और सुनने में अवरोध की स्थिति में कर्मेन्द्रियां शिथिल पड़ जाती है,पर ज्ञानेन्द्रियां अधिक क्रियाशील हो उठती हैं और मन में उठते विचारों के साथ कल्पनाओं में लिप्त हो जाती है। तो अब आवश्यक्ता है,मन में उठते विचारों  में शिथिलता और ध्यान के अभ्यास की।
         ध्यान का अभ्यास यही है कि,हमें ध्यान को अपने भीतर ही रोके रखना है। इसके लिये  संतो ने बहुत ही सहज उपाय बताया है कि,दोनों भुकटियों(भवों) के मध्य कुछ भीतर की ओर,करीब एक से॰ मी॰, अपने ध्यान को एकाग्र कर, स्थिर रखना है।
            ऍसा करने से ज्ञानेन्द्रियां शिथिल होने लगती है और फिर कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की शिथिलता के कारण उत्पन्न बोध के अभाव में बुद्धि की क्रियाशीलता भी कम होने के साथ-साथ मन में उठते विचारों का प्रवाह भी थमने लगता है। हमें सिर्फ इतना करना है कि ध्यान को  अपने स्थान पर स्थिर रखना है, इसके लिये मन में उठते विचारों के पीछे चलना नहीं है,बल्कि साक्षी भाव से बस उन्हें  देखते रहना है। अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में उठें, उनकी तुलना न करो,बस उन्हें उठने दो और बहने  दो। यदि विचारों के पीछे चल पड़े तो ध्यान भी अपने स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता, वह भी भटक जाएगा।
                 इस तरह विचारों का प्रवाह कम पड़ने के साथ-साथ,मन भी शान्त होने लगता है, और एक समय विचार शून्यता की स्थिति आ जाती है। यही समाधीषट होना है।
           तो  जैसे-जैसे मन शान्त होता जाता है, हमारी ऊष्मा जगत् के प्रति प्रवाहित न  हो कर, ऊर्जा में समाहित होने लगती है। इस प्रकार,ऊष्मा या ध्यान जो कि हमारा भाव होता है, उसका ऊर्जा यानी शब्द में समाहित होना ही शब्द का खुलना है।
                                                                             राधास्वामी जी
                                                                        राधास्वामी हैरिटेज
                     (संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

Monday, 3 June 2013

सुरत शब्द----3

                                            
   ध्यान के विषय में बहुत चर्चा हो चुकी है, सतयुग से कलयुग तक़। बहुत कुछ लिखा, पढ़ा और उपदेश किया गया है। हमें लगता है हमने सब जान लिया। फिर भी ध्यान नहीं सधता।
          तो क्या हम जानते हैं कि ध्यान वास्तव में  है क्या.... ध्यान को साधने से पहले आवश्यक  है,ध्यान से परिचय।
          ध्यान एक सम्पर्क है, जो हमारे वातावरण व देह से लेकर  हमारी  आत्मा तक व्यापक है। और जिस भी स्तर पर हम उससे सम्बन्ध स्थापित कर पाते हैं, हमें लगता  है कि हमने  उसे  साध लिया। चाहें भौतिक या दैहिक, वैचारिक,मानसिक या भावनात्मक। कोइ विरला ही भावात्मक स्तर पर ध्यान को साध पाता है और यही प्रेम है।
               मनुष्य देह  सम्पूर्ण  आत्मिक और भौतिक रचना का, छोटे स्तर  पर एक नमूना या मॉडल ही है,  तो ध्यान का  केन्द्र व मूल भी इस देह  में ही
है। पर कहॉं.......... यही खोज का विषय है।
              देह मे  आत्मा है ,उर्जा है और उष्मा भी है।  ध्यान वास्तव में हमारी आत्मिक उर्जा की उष्मा ही है और यही ध्यान का वास्तविक स्वरूप है। जिसका  केन्द्र  व स्रोत हमारी उर्जा व मूल आत्मा है।
             आत्मा  प्रकाशमय शब्द स्वरूप है। प्रकाश जो कि चेत है, उसकी ऊर्जा ही शब्द है और हमारा भाव ही इस ऊर्जा की ऊष्मा है।
          जब हम भौतिक जगत के प्रति अपने द्वारों को बन्द कर लेते हैं, तब इस ऊष्मा का निकास वातावरण में काफी हद तक रूक  जाता है।इस प्रकार हमारी ऊष्मा , ऊर्जा  में समाहित  होने लगती है और ऊर्जा सिमट कर चेत यानी प्रकाश की दिशा में  अग्रसर  हो जाती  है, यही एक सुरत की  स्थिति है।
          अक्सर लोग  कहते हैं कि, मैं ध्यान करता हूं। कोई दस मिनट, कोई आधा घण्टा , कोई दो घण्टा ध्यान करने का दावा करता है, .....तो यह उनका भ्रम मात्र ही है। ध्यान किया नहीं जा सकता , ध्यान हो जाता है। स्वतः वह स्थिति आ जाती है जब कि  जीव  ध्यान की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। चूंकि ध्यान का सम्बन्ध  स्वः यानी  चेत से है, अतः ध्यान स्वतः ही होता है , किया नहीं  जा सकता  ।
          ध्यान  न तो कर्म है और न ही क्रिया , ध्यान एक प्रक्रिया है। जो कि  ऊष्मा व ऊर्जा के जगत के  प्रति  बहाव  को रोक कर  ही संभव  हो पाती है, और द्वार बन्द करना हमे आता नही। तो प्रशन यह है कि ऊष्मा व ऊर्जा  के निकास के  द्वारों को  बन्द  कैसे करें.............
                                                                                 राधास्वामी जी
                                                                         राधास्वामी  हैरिटेज
                      (संतमत  विशवविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

Sunday, 2 June 2013

सुरत-शब्द--2

                                  
      सतसंग,सुमिरन और भजन ,यही परमार्थ के तीन मुख्य अंग हैं।सतसंग परमार्थ का भौतिक स्वरूप है, सुमिरन मानसिक और भजन आत्मिक अंग है। इसमें भजन यानी अभ्यास मुख्य है, क्योंकि उद्धार आत्मा का होता है, तन तत्वों मे और मन चिदाकाश यानी ब्रहमाण्डीय मन में लीन हो जाता है।
     सतसंग से बुद्धी स्पषट होती है तो कर्म निश्काम हो जाते हैं।सुमिरन से मन निर्मल होता है तो विचार, विकार रहित हो जाते हैं और भजन से आत्मिक सामर्थ प्राप्त होती है तो एक जीवात्मा-सुरत बन जाती है। 
     यदि सत्संग में ध्यान न लगे तो बुद्धी विकारों से ग्रसित हो जाती है। सुमिरन में ध्यान न लगे तो नााम गुप्त हो जाता है और भजन में ध्यान न लगे तो शब्द नहीं खुलता। इस प्रकार हम पाते हैं कि , परमार्थ की राह में ध्यान ही मुख्य है। ध्यान साधन है और इसका उपयोग साधना।
        कुछ लोग कहते हैं कि ध्यान नहीं टिकता या मन में उठने वाले विचार नहीं रुकते या कि वर्षों हो गये पर शब्द नहीं खुलता। दरअसल ये वो लोग हैं जो सत्संग तो नियमित  रूप से सुनते है पर  सत्संग किया कभी नहीं। सुनने मात्र से कल्पनाओं का विकास होता है और सतत्संग करने से मार्ग पर बढने की तकनीक प्राप्त होती है। तो ऎसे लोग कल्पपनाओं में ही सारा मार्ग तै कर लेते हैं और सब कुछ रट कर वाचक ज्ञानी बन जाते हैं।
      तो सतसंग किया कैसे जाय. -- .....ध्यान दे कर। हम बच्चों से कहते हैं कि पढाई में ध्यान द वरना फेल हो जाओगे या तुम्हारा ध्यान किधर है......अर्थ यह है कि हमारा ध्यान जब हमारे पास होगा , तब ही तो हम उसका उपयोग कर पाएंगे, वह तो जगत् में विचारों के पीछे-पीछे न जानें कहां-कहां भटकता रहता है, फिर भला एक बिंदु पर  टिके कैसे....तो भजन की शुरूआत , शब्द के नहीं, पर ध्यान के अभ्यास से शुरू होती है। यही गलती, अक्सर जीव जल्दबाजी में कर बैठता है -- ध्यान साध नहीं पाता और शब्द को पकड़ने दौड़ पड़ता है और जब कुछ प्राप्त नहीं होता तब निराश हो कर बैठ जाता है। कहने का अर्थ यही है कि साधन के बिना साधना नहीं होती और साधना के बिना सिद्धी प्राप्त नहीं होती। तो अभ्यास की शुरूआत ध्यान को साधने से होती है और शब्द स्वतः खुलता है।
                                                                 राधास्वामी जी
                                                                 राधास्वामी हैरिटेज      
  (संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)