अंतर्यात्रा ..... १५
हैरत हैरत हैरत होई, हैरत रूप धरा एक सोई .
हैरत रूप अथाह दवामी, अस मेरे प्यारे राधास्वामी ..
कुछ बातें भेद की ..... १ .
आम तौर पर लोग संतमत को मजहबी या धार्मिक विचारों से जोड़ कर देखते हैं. उनको और उन सत्संगियों को भी जो कभी-कभार ही सत्संग में पहुँच पाते हैं, उन्हें यह जानना ज़रूरी है की संतमत कोई मजहब नहीं है, पर दुनिया के हर मजहब की जान और हर मजहब का साझा है. सो संतमत को समझने के लिए रचना और उत्पत्ति से सम्बंधित कुछ मुख्य बातो और व्यवस्था के कुछ अटल सिद्धांतों को जानना आवश्यक हो जाता है. अक्सर ही इन बातों को सत्संग में बताया जाता है, पर जो कुछ जीव ने पहले से समझ रक्खा है, उसी के अनुसार वो इन अहम् बातों को, अपनी समझ के अनुसार घटा-बढ़ा लेता है, और इस तरह अपने ही बनाय भ्रमों के जाल से कभी निकल नहीं पाता.
मालिक कुल ही प्रेम, हर्ष, आनंद और शब्द रूप फिर अरूप, अडोल और अबोल है. वह चैतन्य का अथाह भंडार, हमेशा से ही है. उसमें न कभी कोई फर्क हुआ और न हो सकता है. उसका न आदि है, न अंत. वह अनामी पुरुष, अपने में ही आप समाया, हैरत रूप या अचम्भा है. वह खुद की खुदी में रज़ा, स्वयं में ही रत, प्रेम का अनंत भण्डार, अनादी और अनंत है.
सारा ब्रह्मांड, अंड, पिंड और कुल रचना, मालिक कुल की एक बूंद भर में समा जाती है. बुद्धि और ज्ञान उसकी अत्यंतता की कल्पना भी नहीं कर सकते. कुल रचना, अगम लोक की मुठ्ठी भर में समां जाती है, बाकी रचना को संतमत की दृष्टि तीन स्तरों में देखती है. एक वह जिसका आदि है पर अंत नहीं. दूसरा वह जिसका आदि और अंत दोनों है, पर यह रचना अत्यंत काल यानि बेहद लम्बे समय तक कायम रहती है, जीव अपने सम्पूर्ण योनी चक्र में भी इसका आदि और अंत नहीं देख सकता. तीसरा स्तर वह है, जिसका आदि और अंत पल-पल नज़र आता है, हम जीव इसी तीसरे स्तर के प्राणी है.
कुछ लोगों का विचार है की “पुरुष अनामी” में माया बीज रूप में मौजूद थी और यदि नहीं थी, तो कहाँ से आई – सरासर गलत है. ऊपर लिखीं बातें इसी बात को स्पष्ट करतीं हैं.
“सोत पोत में माया नाहीं, वहां प्रेम ही प्रेम रहान.”
तो माया का रूप क्या है ? और उसमे ख़ास क्या है ?
माया में जड़ता यानि inertia है. बगैर मदद दुसरे के, इसमें कोई हरकत या स्पंदन नही हो सकता, माया में खुद स्पंदित होने की ताकत नहीं है. माया में कोई भी हरकत, चैतैन्य धार के समावेशित होने पर ही होती है, इस तरह माया चैतन्य के
आधीन है. माया का झुकाव बहिर्मुख है, जिसका बहाव बाहर और नीचे की ओर है. तो माया स्वयं में परिपूर्ण नहीं है, यह सूरत चैतन्य की मोहताज है, बिना सूरत चैतन्य के यह कोई रस नहीं ले सकती. और ये सभी स्थितियां दयाल देश में नहीं हैं, इसलिए ये विचार कि दयाल देश में माया बीज रूप में मौजूद है, सिरे से ही गलत है. साथ ही इस बात को ठीक से समझने के लिए कि फिर दयाल देश और अंड, ब्रह्माण्ड व पिंड देश की रचना कैसे हुई ? संक्षेप में इस विषय को जानना आवश्यक हो जाता ह
अनामी पुरुष प्रेम का अथाह भण्डार है, जिसमे कभी कोई चेष्टा या हलचल नहीं हुई, वह सदा एकरस, सदा चैतन्य और निरंतर है.
सत्यलोक तक शब्द-सुरत युगल अवस्था में रत हैं यानी एक रूप हैं, जिन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता. “जुगल रूप की निसदिन टेका”. जैसे समुद्र और उसकी लहर, जो की समुद्र से निकल कर उसी में समा जाती है और कभी अलग नही होती. इस स्तर तक चैतन्य की कशिश अंतर्मुख है यानी स्वयं में ही रत है. जब यही चैतन्य धारा, बहिर्मुख हो कर ब्रह्माण्ड में उतरी, तब इसी आदि धारा का नाम “राधा” हुआ और इसके सिवा परम पुरुष को न कोई निरख सकता है, न निहार.
“ बैठक स्वामी अद्दभुती राधा निरख निहार .“
रचना की जो कुछ भी कार्यवाही हुई है, वह भास् रुपी चैतन्य से, जो कि पुरुष अनामी के चरणों में सिमटा था, उसी से हुई है.
भास् को इस तरह समझना चाहिए जैसे कोई बल्ब या लैंप जल रहा हो, और उसका भास् फैला हुआ हो. तो इस भास् में भी वही चैतन्य प्रकाश बसा होता है, जैसा की बल्ब या लैंप में. पर जैसे-जैसे दायरा बढ़ता जाता है, इसका प्रभाव कम से कमतर होता जाता है. भास् के इसी दायरे से जो चैतन्य, उस प्रथम चैतन्य की तरफ, जिसमे की स्वाभाविक रूप से आकर्षण या खिंचाव होता है, जितना खिंच सका, खिंचता गया. और केंद्र के चारों ओर इकट्ठा होता गया. रचना का मकसद भी यही है की, जितना भी मालिक की ओर और नजदीक खिंचा जा सके, खिंचता चला जाय. इस तरह कम अधिक की तरफ खिंचा और अपने से अधिक या आगे के चैतन्य में समाता चला गया और जो समाने से रह गया, वह अपने से नीचे या की पीछे के चैतन्य का गिलाफ या आवरण होता चला गया. इस तरह चैतन्य जिस स्तर पर कम होता गया, माया उतनी ही दढ़ यानी स्थूल होती चली गयी. और ऊपरी मंडलों में जहां कि चैतन्य द्रढ़ और अधिक द्रढ़ होता गया, उसी अनुपात में माया भी स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होती चली गयी. इसे ही माया का शुद्ध होना कहा गया है.
“ एक ठिकाने माया थोरी, सिंध प्रताप शुद्ध हुई जान. ”
तो जो चैतन्य पीछे छूट गया, वही सतलोक की तलछट के सामान है. इसकी दिशा बहिर्मुख हो कर, ब्रह्मांड में माया प्रकट हुई. इस तरह बहिर्मुख बहाव, अंतर्मुख खिंचाव की ही प्रतिक्रिया या प्रतिगति है. प्रत्यक्ष है की पिंड के मुकाबले ब्रह्मांड में माया सूक्ष्म है. यहीं से माया ने सुरतों के बीज से, जो की काल को सतलोक से निकाले जाने के वक़्त, रचना के लिए मिला था, जगत की रचना करी.
“ निकल जाओ तू यहाँ से खानाखराब. “
पर “निकाल देने” का अर्थ यह नहीं की काल से कोई बैर है. वह तो जगत की रचना और गति का एक अहम् कारक है. ब्रह्मांड में चैतन्य, माया का आवरण हो रहा है. इस स्तर पर भी आनंद और सुख व्याप्त है, पर महा प्रलय के वक़्त इस स्तर का भी ह्रास हो जाता है, यह ब्रह्मांडीय स्तर अज़र, अमर, अविनाशी नहीं है.
संसार यानी पिंड देश में मन-इच्छा ही काम करती है. माया इसके आधीन और चैतन्य गुप्त है. पर जगत का कोई भी काम बिना चैतन्य खर्च किये, होता भी नहीं. तो सतलोक तक, जहाँ से की चैतन्य धार जारी हुई है और हर चैतन्य बीज का स्वाभाविक जुड़ाव बना ही रहता है जब तक की अंश, अपने अंशी में समा न जाय, तो जीव जो भी चैतन्य जगत में खर्च करता है , स्वाभाविक रूप से उसती खबर सत्पुरुष तक पहुँच ही जाती है. – मालिक से जीव का कोई भी करम नहीं छिप सकता.
जगत का हाल तो रोज़ कुवां खोदने जैसा है, उंगली की जरा सी हरकत हो या मन का कोई ख्याल, बगैर चैतन्य को खर्च किये कुछ भी हो नहीं पता और चैतन्य की वृद्धि का तरीका एक मात्र “अंतर्मुख शब्द अभ्यास” ही है. तो एक सच्चे खोजी को समझना चाहिए की जगत में रहते हुए ऐसा वर्ताव करे की, अंतर चैतन्य खर्च तो कम हो और बढ़े ज्यादा. तब सुरत का उठान स्वतः ही ऊपरी मंडलों में होने लगेगा. – यही संतमत और संतों का मुख्य सन्देश और उपदेश है.
माया के विषय में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उस भास रुपी चैतन्य में उस सामन का वह अंश भर अंग ही था, जिससे माया ने जगत में यह रूप धारण कर लिया. और इसी अंश भर अंग से ही सम्बन्ध वक़्त और बसअत time and space की उत्पत्ति का भी है, पर उसकी व्याख्या करने का अभी उचित प्रसंग नहीं है.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
- राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .