Saturday, 30 May 2015

अंतर्यात्रा ..... २५ 

सुरत जो बहती जग की धार, या में दुःख अपार .....

जगत का कोई भी काम, बिना धार के ऊपर से नीचे की ओर बहे हो नही सकता. यही जग में बहना है. संसार में सुरत मन का अहम ओढ़ कर, मन की ही गति चल पड़ी है. 
संसार में जीव जो भी कार्यवाही अपने जीवन के लिए यानि अपने शरीर, घर-परिवार, कुटुंब और समाज के हित में कर रहा है, सब जग की धार ही है. जगत का कोई भी काम, बिना धार के ऊपर से नीचे उतरे या अंतर से बाहर आये बिना नही हो सकता.
मन काल का रचा हुआ है और काया माया की रची हुई है. काल, सुरत को नहीं बना सकता. इसी से सुरत को मन का अहम दे कर, काल, जगत के सब रस ले रह है. और सुरत भी जगत में मन-माया के रंग में रंग गई है. ऊपर से काल के अंश, मन ने भय व भ्रम का ऐसा फंदा डाला है की सुरत जगत में बेसुध-अचेत हुई डोल रही है, जिसे ज़रा भी होश नहीं की वोह कहाँ से आई है, किसकी अंश है और जाना कहां है. असल में माया-काल, सुरत-शब्द की छीज ही है, कहने को तो छीज कह दिया पर इनमें इतनी सामर्थ है की इन्होंने तीन लोक – पिंड, अंड और ब्रह्मांड – रच डाले हैं.
अब सुरत जो मन-माया से कुछ हद तक उदासीन हो और राई-रत्ती भर भी जागे तो सतगुरु की दया जीय में भक्ति का बीजा बो दे. इसमें कोई जबर्दस्ती नहीं की जा सकती, यदि जोर दिया गया तो जो बहिर्मुखी ताकत, जो “नाम” के प्रताप से अंतर के स्तर पर ख़त्म की जा सकती थी, वो अंतर में ही दबी रह जायेगी और निश्चित ही एक दिन गुरुत्वाकर्षण gravitation के सिधांत के अनुसार नीचे के स्तरों पर गिरा देगी. इस घाट पर बुद्धि द्वारा कोई काम नहीं बनेगा, हमे कोई मत परिवर्तन नहीं करना है. बल्कि अपनी प्रक्रति ही बदलनी होती है. तब ही रूहानी स्तर पर बदलाव Spiritual conversion सुम्भव होता है. Impulse या प्रेरणा का अंतर में अहसास ज़रूरी है. जीव का रोग या मोह, symptomatic treatment बाहरी लक्षण देख कर इलाज करने से अच्छा नहीं हो सकता. Constitutional treatment यानि जीव अपनी प्रक्रति में बदलाव ला कर, आत्मिक पुष्टता या सामर्थ प्राप्त कर सकता है.
संतमत के ये सिद्धांत कोरे नहीं है, ज़रुरत है इन्हें सीखने और सिखाने की, संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के संकल्प के पीछे यही अवधारणा है. – जगत में सद्भावना का और मानव की दिमागी, बौधिक, मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शक्तियों का विकास. जिसे “नाम” यानि “शब्द की धुन-धार” से चमकाया जा सकता है ..... यही भविष्य की कुंजी है .
तन और मन, सुरत को लासे बैठे हैं, अपने “मै” को “शब्द-धार” में डुबो कर ही सुरत अंग प्राप्त किया जा सकता है. जब सुरत किसी कदर ढीली पड़ेगी तब ही वह उस शब्द धार से , जो कि अंतर में ऊपरी मंडलों से आ रही है, एकरस हो पाएगी और सतगुरु की साध में आगे बढ़ पाएगी. शब्द धार के निकट आना ही सतगुरु की साध में बढ़ना है.
“ शब्द में तन मन दौनो गार,
सुरत से होजा सतगुरु लार. ”
तब जगत की माया से सहज वैराग हो कर अनहद नाद प्यारा लगने लगेगा और मालिक कुल के चरणों में सहज अनुराग पैदा हो जाएगा. शब्द ही पुरुष है, जिसकी तरफ सुरत का लगाव हमेशा से है. संसार के मतों-सम्प्रदायों की परमार्थी कार्यवाहियों में सुरत अंग शामिल नहीं है और सुरत का जागना या चेतना भी आसान नहीं है. जब इन्द्रियाँ थकित और मन गलित होगा तब जगत की अधिकतर सभी कामनाएं और आशाएं भुन कर अपना बीज खो देंगी.
“इन्द्री थकित गलित मन हुआ, आसा सकल भुनी.”
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... २४ 

निरख – परख .....

सत्य पद के खोजी को, जगत में सुख-दुःख की जो स्थिति है, उसे खुली आँखों और खुले दिमाग से देखना चाहिए. यानी जो भी चीज या बात वास्तव में जिस रूप में है, उसे उसके उसी वास्तविक रूप में ही देखना उचित है. जब तक जीवन है, जीना तो इसी जगत में ही है, पर जब इसकी मलीनता और नश्वरता का असली चेहरा नज़र आने लगेगा तो इन बातों की व्यर्थता को जान कर, इनमे आसक्ति और संसार का मोह, धीरे-धीरे अपने आप दूर होता जाएगा. संभव है कि काल और माया के झोको में कभी गिर भी जाय, पर फिर संभल जाएगा. इसी नज़र को निरख कहते हैं.
निरख आ जाने पर जीव जीव परख कर सकता है कि दुनिया जिन हालातों से गुज़र रही है, उनका उस पर क्या असर पड़ता है. फिर तो सारा संसार ही उसको बैरी नज़र आने लगेगा. एक बार तो सब को बैरी बनाना ही पड़ेगा. जब जगत देख लेगा कि अब ये हमारे बस का नहीं, तब सभी मीत बन कर साथ देने लगते हैं. देखने में यह दोनों ही बाते एक दूसरे के विपरीत मालूम देती हैं, पर हैं अटल. जब तक काल का कर्जा बना रहेगा, मन की गलियों से पीछा न छूटेगा.
सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज .
संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित

अंतर्यात्रा ..... २३ 

अखंड चैतन्य .....(१)

चैतन्य की ही उपस्थिति और स्थिति, ऊपर से नीचे तक मौजूद है और जो कुछ भी है, वह उसी के होने से है. अंतर के अंतर में भी चैतन्य अखंड है, फर्क सिर्फ अधिकता और न्यूनता का ही है. जिस स्तर पर न्यूनता है वहां मन-माया उपस्थित हैं, जिसकी वजह से ही स्तरों की भिन्नता का आभास होता है. जो यदि चैतन्य, अंतर से अखंड न होता तो फिर कभी भी जुड़ नहीं सकता था, यह “सत्य” स्वंम सत्य, स्वंम सिद्ध और स्वंम ही प्रमाण है.
चैतन्य, स्वंम सिद्ध, सदा चैतन्य, सब से बढ़ कर और अधिक से भी अधिक है. उसको सबका ज्ञान है , यानि सब के सब कुछ से, चैतन्य वाकिफ है. जिस स्तर पर चैतन्य की न्यूनता है, वह अपने से अधिक से तब वाकिफ होगा या जानेगा, जब की वह अधिक के इतना नजदीक आये की बीच में कुछ भी शेष न रहे.
यदि दो चैतन्य शक्तियां बिलकुल बराबर स्तर की हों यानि उनमे से कोई अधिक या कम न हो, तो वे तदरूप हो जायेंगी, एक-दूसरे में मिल जायेंगी, उनका कोई अलग वजूद ही न रहेगा न होगा. बिना अधिकता और न्यूनता के कोई भी रचना नहीं हो सकती, चैतन्य स्वंम में ही अडोल, अबोल और अकर्ता हो कर भी सब का कारण कर्ता है.
फिर एक स्तर पर न्यूनता इतनी अधिक हो गई है किन तो उससे आगे चैतन्य उतर सकता है और न ही वहां कोई हरकत ही है. इस तरह वह स्तर भी अडोल और अबोल है पर Negative Pole या तलहटी है. इसके चारों ओर इसका बहस रुपी मंडल है. इस तरह Negative Pole से ले कर Positive Pole यानि तलहटी से ले कर चैतन्य के अधिकतम स्तर तक, रचना हर स्तर पर मंडलों में कायम है. तलहटी से आगे चल कर न्यूनता इतनी अधिक बढ़ गई है की उसका बहाव बाहार्मुख हो गया है. इसी बिंदु से अशांति, अस्पष्टता, भय और भ्रम आदि नकारात्मकताए पैदा हुई. और फिर उसको पूरा करने के लिए “कर्म” पैदा हुआ, पर नकारात्मकता और कर्म का साथ दो ऐसी बातों का है जो कभी तदरूप यानि मिल कर एक नहीं हो सकती. इसी कारन जगत में कर्म हमेशा प्रधान बना रहता है. और कर्मों से कभी मुक्ति नहीं मिलती. जो चौरासी जून का कारन बनता है, चौरासी में फंसना ही नकारात्मकता में डूबना है और यही नर्क है.
चैतन्य के स्वंम सिद्ध स्तर को छोड़ कर जो की सदा चैतन्य का आदि और अनंत भण्डार है, कुल रचना में चैतन्य के स्तर दर स्तर मंडल बंधे हुए हैं. जिनके चारो ओर, उनकी तुलना में जो कम चैतन्य के मंडल है वे घुमते याकी चक्कर काटते रहते हैं. और यही गुण कुल रचना का मूल आधार है, जो की हर पिंड, इंसान, हैवान यानि कुल जीव जगत, वनस्पति और जड़ पदार्थों, यहाँ तक की परमाणु तक में पाया जाता है.
ऊपरी मंडलों में भी यही हाल है. जिन लोकों या ग्रहों को सूरज से चैतन्य प्राप्त होती है वही सूर्य का मंडल या सौर्य-मंडल कहलाता है. ये सभी गृह अपनी धुरी पर घुमते हुए, अपने सूर्य का चक्कर काटते रहते हैं, जैसा की हम प्रथ्वी और अपने सूर्य के सम्बन्ध में पाते हैं. इसी तरह कुल रचना में Rotation यानि अपनी धुरी पर घूमना और Revolution यानि दूसरे की परिक्रमा करना पाया जाता है. ऐसा चैतन्यता के न्यून व अधिक स्तरों की वज़ह से है. इंसान भी आपे यानि अहम् भाव के ही चारों ओर घूमता हुआ ही जगत में डोलता फिरता है, और एक दिन जब थक हार जाता है, तब अपने से बड़े चैतन्य की खोज में निकल पड़ता है – खोजत फिरे साध गुरु जागा .....
सामान्य दिनचर्या में भी हम इस बात को देख समझ सकते हैं, जब की हम अपने दिन भर के कामो से थक जाते हैं, तब नींद की आगोश में जा कर फिर से अपनी चुकी हुई चैतन्य सामर्थ को, स्वप्नावस्था में ऊपरी सूक्ष्म मंडलों में जा कर प्राप्त करते है और इस तरह लौट कर जाग्रत अवस्था में आ कर फिर से चैतन्य हो जाते है. यही मनुष्य में rotation और revolution की स्थिति है. 

अधिक चैतन्य का स्तर, अपने से कम चैतन्य के स्तर को अपनी ओर खींचता ही है. यह आकर्षण हर स्तर में होता ही है, वेरना रचना टिक ही नहीं सकती थी और न ही उसकी संभाल संभव हो पाती. यह आकर्षण ही प्रेम है. ब्रह्माण्ड में well-pronounced individualities यानी वयकतियाँ या व्यक्तित्व नहीं है. वहां जोत निरंजन रलियाँ करते हैं. इसे इस तरह समझें कि, यहाँ जगत में जो प्रेम की आदर्श स्थितियां हैं जैसे, माता व पुत्र का प्रेम या पति-पत्नी का प्रेम, तो इनमे भी प्रीत राली-मिली नहीं है. हाँ, सांसारिक सम्बंधो के अनुसार कुछ हद तक तो प्रीत का अंश है, बाकी मसलों में उनमे भी यह प्रीत नज़र नहीं आती. यदि अंतःकरण के स्तर पर देखा जाय तो यह फर्क साफ़ तौर पर नज़र आता है.
आदि से ही जगत की सभी व्यवस्थाओं में समय के अनुसार परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव किया जाता रह है, वरना संस्कारों और अधिकारों में कभी परिवर्तन न आ पता. कलियुग में त्रेता या सतयुग के धर्म और संस्कार फिर से व्यवहारिक नहीं हो सकते. उन्हें फिर से व्यवहारिक बनाने के लिए शोर मचाना और लोगों को बरगलाना, मात्र ठग विद्या और पाखण्ड ही है. बल, पौरुष और संकल्प शक्ति के मतों का समय कब का गुज़र चुका, जो यदि होता तो जीव “संतमत” का अधिकारी कैसे बन पाता ? “संतमत” में बल, पौरुष और कल्पनाओं का कोई काम नहीं, यह एक व्यवहारिक मत है. सुरत-शब्द अभ्यास ही संतमत का मुख्य अंग है. शब्द से भी पहले सुरत को जानना ज़रूरी है, यानी सुरत का असली रूप क्या है और अब वह किस हालत में है ? “सुरत-शब्द” ही मात्र ऐसा अभ्यास है जिसके द्वारा जीव अखंड चैतन्य के धुर स्तर को प्राप्त हो सकता है, यही परम आनंद का धाम, आव-गमन से मुक्ति का प्रमाण है.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी ,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित

अंतर्यात्रा ..... २२ 

जोत निरंजन करते रलियाँ, यार बड़ा शातिर है ....

“यार शातिर न बार ख़ातिर” . 
मालिक का सेवक, जो सतगुरु की सेवा में तत्पर है, अपना तन-मन सतगुरु की सेवा में लगाता है और इसी में उसे सच्ची ख़ुशी हासिल होती है. खुद अपने अहं का अहसास और मन को खुश करने का प्रयास उसकी चेष्टाओं में नहीं होता है, वही यार शातिर है. पर जो अपने किसी मतलब से या यूँही मनोरंजन के लिए सेवा करता है, वही बार ख़ातिर है.
“धाम अपने चलो भाई, पराए देश क्यों रहना.
काम अपना करो जाई, पराए काम नहीं फंसना.”
जो काम, सुरत को सांसारिक बन्धनों से दूर कर के जीव को निज देश में ले जाए, वही काम अपना है. और जो काम जगत के बन्धनों में फसाए, वह काम अपना नहीं है. मन तो अड़ियल घोड़े के समान होता है, उसे तो काबू में लाना ही होगा. अनाड़ी बैठा तो गिरेगा ही. पर जब शह सवार की रान के तले आता है तब एक ही ऐड़ में सध जाता है. पहले तो सख्ती से ही काम लेना पड़ता है पर जब मन समझ जाता है की यह सुरत राधास्वामी दयाल की मेहर में है और मेरे बस की नहीं, तब मीत बन कर साथ निभाने लगता है.
मन के साथ सख्ती का यह मतलब बिलकुल नहीं कि उसकी कोई बात ही न मानी जाय, ऐसा करने से मन निष्क्रिय हो जाता है. अभ्यास में मन को साथ ले कर चलना होता है. ब्रह्मांडीय मन यानि ब्रह्म पद तक तो मन को साथ ही ले कर चलना है, बगैर मन के इस पद तक रसाई नहीं हो सकती. इसलिए कुछ हद तक मन की जायज़ चाहतों को पूरा करने में कोई हर्ज़ नहीं है. पर जिस काम से अपने स्वार्थ को पूरा करने में दूसरों का नुकसान होता हो, वही पाप कर्म है. दसवें द्वार या सुन्न पद पर पहुँच कर सुरत मन से न्यारी हो जाती है.
आँखों में काल और माया की धारे आ रही हैं, बाएँ अंग में माया की धर प्रबल है और दाएं अंग में काल की. ब्रह्मांड की हद के ऊपर दोनों धारे एक तिल में हो कर गई हैं, जहाँ वे आपस में रली-मिली हुई हैं. “जोत निरंजन करते रलियाँ” .
पर इसके ऊपर फिर अलग-अलग दिखाई देतीं हैं. इसी तरह दोनों धारे पहले हर मंडल की हद पर, मिल कर आती हैं, अपना काम करती हैं और फिर अलग-अलग हो जाती हैं.
सतगुरु के देह स्वरुप के दर्शन, जो की उनहोंने जगत में धारण किया है, दोनों आँखों से बड़े गौर से पूरा ध्यान लगा कर करना चाहिए और सतगुरु की आँखों में आँखें डाल कर शब्द के देहिक स्वरुप का आनंद लेना चाहिए. आप जानते हो कि, जाग्रत अवस्था में सुरत की धार की बैठक आँखों में ही होती है, हांलाकि सतगुरु कभी सोते नहीं पर जब वे खुली आँखों के साथ दर्शन देते है, तब अपनी दया-द्रष्टि से जगत को निहाल ही कर रहे होते है.
“संत का घूरो द्रष्टि माथा, सत्य नूर का जहाँ हर पल वासा.”
नासमझ हैं वे जो संतों के सामने होने पर भी आँखें बंद कर के शीश झुका लेते है, उन पर तो पूरी दया-द्रष्टि ही नहीं पड़ पाती और वे अभागे अपने ही कर्मों से, वंचित रह जाते है, यह भी काल का ही खेल ही है जी. पर इस पिंड देश के मुकाबले, सतगुरु का जो सूक्ष्म रूप, चिदाकाश में, अति विशाल और चैतन्य है यानि नूरानी और रूहानी है, उसका दर्शन जब तक दोनों आँखों की धारें तीसरे तिल पर मिल कर एक न होंगी, नहीं होगा. यह कोई सहज भी नहीं है, पूरा जनम भी लग जाता है. पर जब मालिक की दया-द्रष्टि होती है तब जन्मों का काज पल-छिन में हो जाता है. तो अब से “शब्द स्वरुप” के दैहिक दर्शन, दोनों आँखिन खोल कर और द्रष्टि से द्रष्टि मिला कर ही करना. मालिक अपनी दया से हर कारज सुफल बनायेंगे .
मनुष्य चोला मिलना और फिर उसमे संत समागम होना और सतगुरु का सत्संग मिलना बड़े भाग की बात है. ऐसे शुभ अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए जीव को अंतर में “नाम” का दिया जला कर घट में व्याप्त अँधेरे को झट से दूर कर लेना चाहिए. यही भक्तों की सच्ची दिवाली है जी.......
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय.
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... २१ 
उनको नहीं उपदेश हमारा , जिनको जगत कामना मारा ..

जब जीव की लगन जगत से विलग होती है, तब उसके मन में यह विचार आता है कि क्या ऐसी भी कोई दुनिया है, जहाँ कोई दुःख न हो, क्लेश और कष्ट न हो ?
यदि भाग्य से उसे संत, साध, महात्मा (अभ्यासी) या भक्त (अधिकारी जीव) मिल जाएं तो उसकी साध पूरी हो जाए . 
सुरत मालिक की अंश है और इस मनुष्य देह में उसने किसी स्तर से आ कर तीसरे तिल पर डेरा डाला है. फिर यहाँ से अंतःकरण के घाट पर, मन का अह्मं और माया रूप इन्द्रियों के साथ जाग्रत अवस्था में, जगत में काज करती है. इसी अंतःकरण के घाट पर, सुख-दुःख और संकल्प-विकल्प पैदा होते हैं. इस प्रकार एक लम्बी अवधि तक जगत में वास करके और सुख-दुःख उठा कर, - यह ज़रूरी नहीं कि एक ही जन्म में ही जीव का मन जगत से उपराम हो जाय, यह कई जन्मों का बटोरा हुआ भी होता है जो कि प्रारब्ध के रूप में जमा होता रहता है और जीव इसे साथ ले कर जन्म लेता है. तब कहीं जा कर उसका चित जगत से विलग होता है और जगत के भोग-विलास और सुख-दुःख नाशमान और व्यर्थ नज़र आने लगते हैं. और यह विचार पैदा होने लगते हैं कि, क्या ऐसी भी कोई जगह है, जहाँ परम शांति मिल सके .... उस वक़्त यदि भाग्य से ऐसे गुरु मिल जाए जो खुद अंतर्मुख हों और अपनी सामर्थ से जिज्ञासु को भी अंतर में ले जा सके, तो जीव का कल्याण निश्चित है. इसके लिए ज़रूरी है कि गुरु पूरे हों, जो दयाल देश से आये और मालिक में रत हैं या साध गुरु हों, जो अंतर में मंडलों को तय करके ब्रह्म पद की चोटी तक पहुंचे हैं या साधक हों, जो पिंड के पार पहुंचे हैं या भक्त हों जो अधिकारी जीव होते हैं और संत मत के आधार भूत, मूल सिधान्तों से भली भाँती परिचित होते हैं, जो की हाल वक़्त में मार्ग पर चल रहे हैं और जिनका ध्यान मालिक कुल के चरणों में लगा हुआ है. ये मन-माया के झकोलों में गिरते हैं, संभलते हैं, फिर चलते हैं पर हार कर कभी थकते नहीं, रुकते नहीं – यही संत सिपाही, शूरवीर हैं.
“ विषयन से जो होय उदासा, परमारथ की जा मन आसा.
धन संतान प्रीत नहीं जाके, जगत पदारथ चाह न ताके.
तन इन्द्री आसक्त न होई, नींद भूख आलस जिन खोई.
बिरह बान जिन हिरदे लागा, खोजत फिरे साध गुरु जागा.
साध फकीर मिले जो कोई , सेवा करे करे दिलजोई.
ऐसी करनी जाकी देखे, आप आय सतगुरु तिस मिलें. ”
ऐसे ही जीवों के लिए संतमत राधास्वामी का उपदेश है. पर जो जीव संसारी, विषयी और टेकी हैं, उनके लिए हमारा उपदेश नहीं है.
जब मुर्शिद कामिल याकि सतगुरु पूरे से समझ और मार्ग की निशानी ले कर जीव अंतर में बढ़ता है, तब उस धार से जो मालिक के चरणों से आ रही है, एक रोज़ जा मिलता है, जिसे अनहद शब्द और सुल्तान-उल-अज़कार कहा गया है. फुकराए-कामिल और सतगुरु पूरे का एक ही मत है, भाषा के फेर में इन्हें अलहदा न समझा जाय. कर्मकांडी, वेदपाठी, क़ाज़ी, मुफ़्ती आदि, कामिल संतों के भेद को कभी भी जान नहीं सकते.
मालिक की ऐसी ही मौज है ....
सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज .
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

अंतर्यात्रा ..... २० 

छाप, तिलक सब छीनी मोसे,
रंगी तोर रंग, रंगरेज़ा रे ......
जब संत अवतरित होते हैं, .... इस अवतरित होने का अर्थ संत मत के अनुसार समझना आवश्यक है. 
संत कभी अवतरित नहीं होते , यानि संत कभी भी अवतार धारण नहीं करते. अवतार ब्रह्मांडीय शक्तियां धारण करती है, वह भी जीवों के पुकारने पर, यही अवतरित होना है. वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में और बौद्ध व जैन धर्मों में अवतार वाद को विशेष महत्व् दिया गया है .
फिर संतों के अवतरित होने का क्या अर्थ है ?
संतों का “अवतरण” होता है, यानि वे दयाल की मौज से संसार में आते हैं, और दयाल की ही इच्छा से गुप्त व प्रकट रूप में रहते है, पर धरा कभी भी संतों से रहित नहीं होती. जब धरती सत्यलोक की सीध में आती है यानि मध्य में कोई ब्रह्मांडीय-खगोलीय पिंड नहीं होता, तब सतलोक की किरण धरती पर पड़ती है, यही संतो का अवतरण है.
आप पूछ सकते है की जब यह किरण अन्य किसी पिंड पर पड़ती है तब क्या होता है ? यह एक आवश्यक प्रश्न है. उत्तर यह है की तब वह पिंड चेतना की विशेष सामर्थ से भर जाता है.
तो संत जीव के पुकारने पर अवतरित नहीं होते बल्कि हर वक़्त मौजूद होते हैं. मालिक की इच्छा से, कभी गुप्त, कभी प्रकट.
मालिक की आज्ञा से जब वे जगत में प्रकट रूप से कार्यवाही करते है, उसी को संतों का “अवतरित होना” कहा गया है.
..... तो जब संत संसार में “अवतरित” होते है, उस वक़्त में काल अवतार धारण नहीं कर सकता, यह विधि का नहीं पर कुल मालिक कर्ता का विधान है. जो कभी टल नहीं सकता. फिर भी काल अपने प्रभाव से, अनेक तरह के विघ्न सत्संग में डालता है. अक्सर तो सत्संग संगत में से ही किसी को विरोधी बना कर उभार देता है. पर जिज्ञासु जीव को उचित है कि वह अपने ध्यान को विरोध के घाटों पर न रख कर, सतगुरु के वचनों पर ही रखे, इसी में जीव का कल्याण है. संतों के दरबार में विरोध की गति अधिक लम्बी नहीं होती मालिक की मौज से शीघ्र ही सब घाट शांत हो जाते हैं .
सुधा रस, तो नाम की धार है जी. इसी से सु-धार – सुधार होगा. यानि जीव का कल्याण होगा. मन के सभी मैल और मलीनता साफ़ हो जाती है. और जीव सु-धार आ जाता है. पर अभी तो मन सुरत को अपने जाल में बांधे बैठा है. वह सहज ही उसको न छूटने देगा. जब संत “अवतरित” होते है और जो जीव बढ़ भागी, उनकी संगत पाते हैं, निश्चित ही उनके बंधन ढीले पड़ जाते है, संतों की यही दया है, जिसे जीव अपने जीवन में कल्याण के रूप में होता हुआ पाते है और एक दिन दयाल की मौज से निज धाम पहुँच जाते हैं. यही संतों के “अवतरित” होने का वास्तविक अर्थ है, वे अपने निज-आत्मिक पुत्रों को अपने साथ ले जाते हैं.
जो सच्चा भक्त है वह खुद ही नहीं तरता, वह तो तरन-तारण है, वह अपने साथ बहुतों को तार ले जाता है, वही सच्चा गुरमुख है. जब संत गुप्त होते है तब गुरमुख ही सुधा-रत है और जीवों के मध्य उद्धारक भी. तो जो भी उससे प्रीत रखते हैं, उन सब के तरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.
सतगुरु तो न्यारे ही हैं जी, मन-माया को नाथ कर, सुरत को साध लेते हैं. जगत में खुद तो बेहाल रहते हैं पर चैतन्य को बहाल कर देते हैं.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... १९

संसार के सुख-दुःख और बन्धनों से उदासीनता और सत्संग, अंतरी व बाहरी ही परमार्थी कार्यवाही के अंग हैं –

दैहिक रूप से जाग्रत अवस्था में मनुष्य, मन, बुद्धि, चित और अहंकार इन चार मुख्य अन्तः करणीय घाटों के द्वारा ही कार्य रत होता है. तो परमार्थ की कार्यवाही में भी पहले इन्हीं के माध्यम से आगे बढ़ना होगा. इसमें जगत के प्रति कुछ हद तक उदासीनता का पैदा होना ज़रूरी है. कम से कम इतना तो ज़रूर ही कि अगर जगत के बन्धनों और नाशमान सुखों से विमुख होने और मालिक कुल के चरणों में प्रेम-प्रीत सहित सम्मुख होने के विषय में कहा जाय तो वह उसे ध्यान से सुन और समझ सके.
अन्य योनियों या पशुओं को सिर्फ अपनी वर्तमान अवस्था और उस से सम्बंधित इच्छाओं का ही ध्यान रहता है. पर परमार्थ यानि पैदा होने से पहले और म्रत्यु होने के बाद के विषय में विचार का संस्कार, मनुष्य देह में ही प्राप्त होता है. चाहे कोई नास्तिक हो या निचले से निचले स्तर का ही मनुष्य क्यों न हो, जीवन में कभी न कभी, तीन मूल भूत प्रश्न अवश्य ही विचारों में कौंध जाते हैं कि, मै कौन हूँ ?, कहाँ से आया हूँ ? और कहाँ जाऊँगा ?
किन्तु जगत के प्रति उदासीनता इतनी सहज भी नहीं है, यह जन्म-जन्मान्तरों में अर्जित संस्कारों और कर्म फल से पैदा होती या उपजती है, जिसे ले कर जीव मनुष्य चोले में आता है. और ऐसा मालिक की मौज से ही होता है. यह ज़रूरी नहीं की सभी मनुष्य देह धारियों की ऐसी ही स्थिति हो, यह अधिकार तो मालिक की प्रीत से ही मिलता है. जो गफलत या वैराग किसी नामंज़ूर हादसे की वजह से पैदा होता है, परमार्थ की राह में उसका कोई अर्थ नहीं है, मालिक के चरणों में जो अनुराग के साथ वैराग पैदा होगा वही काबिल-ए-ऐतबार-ए-परमार्थ है.
सम्पूर्ण रचना में ऊपर से नीचे तक सभी मंडलों में एक तरह की समानता पाई जाती है, चक्र, कँवल की छाया है और कँवल, पदम् की, इस तरह मालिक का अस्क ऊपर से नीचे तक हर स्तर और मंडल में आता चला गया. इस तरह इंसानी चोला सयंम में सम्पूर्ण रचना का बेहद छोटे पैमाने पर एक नमूना या माडल ही है. हम पाते है की पशु, वनस्पति यहाँ तक की परमाणु में भी सर, धड़ और पैर समान रूप से नज़र आते हैं. इस तरह मालिक एक देशी भी है और सर्वदेशी भी, जैसे सूरज अपने स्थान पर एक देशी भी है और अपनी किरणों के द्वारा अपने मंडल में सर्वदेशी भी.
अब ज़रुरत इस बात की है की इस मनुष्य चोले में जो चैतन्य यह ऊपर से ले कर आया है उसे इस जगत में आवश्यकता से अधिक खर्च न करे बल्कि बचाए और समेट कर और आशा, अंतर में चलने और चढ़ने की बाँध कर, जो धर ऊपर से तीसरे तिल पर आ रही है, उसके साथ नाम और स्वरुप का मेल कर के उस चैतन्य धार की डोर थाम कर, ऊपरी मंडलों की ओर बढ़े, जिसकी युक्ति वक़्त नाम उपदेश के बताई जाती है. इस तरह सुरत मालिक के निज धाम तक पहुँच सकती है. यह “नाम” वर्णात्मक नहीं, पर “ध्वनात्मक नाम” है, जिसकी धुन अंतर में ही गूँज रही है. तीसरे तिल पर, नामी के नाम का, मन में सिमरन किया जाय और मन की ज़बान से दोहराया जाय, तो धीरे-धीरे इसका स्वर बदल कर उस धुन से मिल जाएगा जो की अंतर में गूँज रही है और इस तरह अंतर में वह “नाम” गाजने लगेगा जो सच्चा और ध्वनात्मक है. तीसरे तिल पर मनुष्य चोले में चैतन्य का निर्मल रूप है, जो की उसने इस जगत में धारण किया है और वहां पर धार ऊपर से आ रही है, इसी धार से मेल होने पर खिंचाव ऊपर की ओर होता है, यही अंतरी सत्संग है. जो जीव चेत कर इस अभ्यास में लगे हुए हैं, उनका संग-साथ ही बाहरी सत्संग है.
इस तरह अंतरी व बाहरी सत्संग से मालिक के चरणों में अनुराग पैदा हो कर संसार की नश्वरता से सच्चा वैराग पैदा होगा और जीव अंतर में सिमट कर चैतन्य धार में मिल कर, एक दिन निज धाम और सच्ची मुक्ति को प्राप्त हो जाएगा.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी ,
राधास्वामी हेरिटेज .
संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... १७ 
संसारी बंधन तो बहुत हैं, पर मालिक की मौज भी है ..... 
हर जीवात्मा “सुरत” नहीं होती, पर जो शुभ में रत है, वह जगत में मालिक की अमानत है.
संसारी बंधन तो बहुत हैं, यदि म्रत्यु से पहले वे कट न पाए या ढीले न पड़े, तो वक़्त मौत के बहुत कष्ट उठाना पड़ता है. राधास्वामी दयाल ने, उन जीवों के लिए, जो दयाल की सरन में आये हैं, उनके संसारी बंध काटने में बड़ी सहूलियत कर रक्खी है. सुरत, जीवों के पास मालिक की अमानत है. अतः जीव को उचित है की मालिक की अपार दया और महिमा को याद कर के पूरी प्रीत और लगन के साथ मालिक के चरणों में लग जाए. जब तक जीव स्वयं ही, मोह के बन्धनों से मुक्ति की इच्छा द्रढ़ न रक्खेगा और प्रयत्नशील न होगा, मालिक भी बंध छुड़ाने में जीव की कोई मदद नहीं कर सकता. जीव को अवश्य है की सच्चाई के साथ, मालिक से इन बन्धनों और कर्मों से छूटने के पक्के इरादे के साथ प्रार्थना करता रहे – प्रति दिन. यदि सिर्फ दो मिनट भी जीव, दीन चित हो कर मालिक से दुआ मांगे, तो मदद तो अवश्य ही मिलेगी.
....“चरण कँवल रज धरहूँ सिर-माथे, सतगुरु रहें सदा संग-साथे.”
हमारे अंतःकरण पर, हमारी वासनाओं और कर्मों का अस्क छाया रहता है, जो वक़्त मौत के यही यमदूतों के रूप में हमारे सामने आते हैं. जिन्हें सामने देख कर जीव दीवाना हो जाता है, घबरा जाता है और नवों द्वार बहने लगते हैं. पर किसी से कुछ कह नहीं पता. जगत के बंधन जितने द्रढ़ होंगे, वक़्त मौत के कष्ट भी उतना ही अधिक होगा, क्यूंकि सब कुछ यहीं छूट रहा होता है.
कुछ लोगों का अकाल म्रत्यु के विषय में कहना की इसमें कोई कष्ट नहीं होता और कुछ पता नहीं चलता, बिलकुल गलत है. ऐसी अवस्था में जब स्थूल छूट जाता है तब भी सूक्ष्म और कारण देहें, आयु भोगने के लिए कायम रहती है. अकाल म्रत्यु होने पर अमूमन लोग पिशाच योनी में ही जाते हैं. पर आम तौर पर, आयु पूर्ण होने पर, कुदरती मौत होने पर ऐसा अंदेशा कम होता है.
बंधन जो भी, जिस घाट या स्तर का होता है, वह उस स्तर के नाश होने पर कट जाता है. बहुत से देह के बंधन तो दैहिक म्रत्यु होने पर ही कट जाते है. पर जो बंधन ज्यादा गहरा हुआ तो अगले जनम में भी अपना असर ले आएगा .
संतो का जीव के करम कटवाने का तरीका कुछ अलग है. संत कभी किसी से यह नहीं कहते की, ऐसा करो या ऐसा न करो. संत तो जीव को सिर्फ मालिक की मौज में रहना और जीना बताते है, और अंतर अभ्यास में जीव स्वंय पता है कि, अंतर का आनंद, भौतिक सुखों से कहीं बढ़ कर है. इस तरह संतो के बताय तरीके पर, विशवास की द्ढ़ता और सच्ची लगन और पूर्ण समर्पण के साथ चल कर जीव, जीते जी स्वंय अपने कर्मो के बोझ को कम होते हुए देखता जाता है, जिसका प्रभाव अभ्यासी जीव की सोच और व्यवहार में स्पष्ट रूप से नज़र आने लगता है. और एक दिन मालिक अपनी दया से जीव को सभी कर्मों से मुक्त कर देते हैं, यही मालिक का जीव से प्रेम, दया और मेहर है.
..... “काल अंग ज़ारी है, पर दया अति भारी है.”
संत कभी किसी जीव को किसी बुराई या व्यसन से दूर हटने का हुक्म नहीं सुनाते, वे तो बस जीव को, सत्संग में पुकारते हैं, संगत का बड़ा भारी असर होता है और धीरे-धीरे जीव स्वंय व्यसनों से दूर हो जाता है. यही संतों की रीत है, जो जगत से निराली है. भय-भ्रम से कभी कोई काज स्थाई नहीं होता, पर प्रेम की डगर पर चलने से जीवन बदल जाता है, यही संतों का मार्ग, रीत और प्रीत है, ... मालिक की मौज में राजी रहना.
प्रीत का हाल यह है कि, प्रीत, सुरत के जितने नजदीक के स्तर से होगी उतनी ही भरोसे की और ज्यादा देर तक कायम रहने वाली होगी. सुरत, जीव के पास मालिक की अमानत है, जीव तो बस अमानत का अमीन ही है. तो जीव को उचित है की कुल प्रीत को मालिक कुल के चरणों में अर्पित कर दे, इससे जो आनंद प्राप्त होगा वो जगत के हर सुख से कहीं बढ़ कर होगा.
जब मालिक, सुरत को प्रीत बख्शता है तब सब “निज प्यारे” लगने लगते है, प्रेमी जन का मन स्वतः ही कोमल हो जाता है.
मालिक की दया का कोई वारापार नहीं, जीव को उचित है की सब कुछ मालिक की मौज पर ही छोड़ दे, पर इसके लिए ज़रूरी है की स्वंय मालिक की मौज में सदा राजी रहे. राधास्वामी दयाल हैं जी .....
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

अंतर्यात्रा ..... १६ 

सुरत रत शगल रूहानी ..... 

परमार्थ की कार्यवाही, तन-मन की सीमाओं से किसी हद तक ऊपर उठ कर, सुरत की लगन से ही हो सकती है. सुरत जो की मालिक का ही अंश है, तो सुरत, जब तक की मन व माया के आवरणों को भेद कर, निर्मल चैतन्य देश में न पहुंचेगी और अपने अंशी में न जा मिलेगी, तब तक उसको परम शांति, संतुष्टि, तृप्ति और परम आनंद प्राप्त नहीं हो सकता.
संसार में आम तौर पर जो भी धार्मिक रीतियाँ और तरीके परमार्थ के नाम पर ज़ारी हैं, उनसे सुरत कभी भी अपने परम लक्ष तक नही पहुँच सकती.. इस तरह के सभी तौर-तरीके सुरत को ब्रह्मांडीय व्यस्था में फसाय रखने के लिए, काल के रचे पाखण्ड ही हैं.
तीर्थ यात्रा से तो कर्मों का बोझा ही बढ़ता जाता है.तीर्थों का हाल यह है की वहां सिवाय व्यापारियों और बाजीगरों के तमाशों की कुछ नहीं बचा और जीव भी इन्हीं के रसों में फस जाता है.साफ नियत और सच्चे दिल से किया गया तीर्थ, विरलों से ही बन पाता है. जो कार्यवाही सच्ची भक्ति से की तो शुभ कर्म फल लाती है, और “पितृ लोक” या कोई विरला “स्वर्ग” तक पहुँच पाता है. पर अधिकतर को तो, देह छूटने पर प्रेत, पिशाच या पशु योनी में ही जाते देखा.
इससे बढ़ कर जो जगत में परमार्थी कार्यवाहियां देखीं, उसमे “विधा योग” की तो कोई वास्तविकता ही नहीं है, बड़े-बड़े विधावानों को तोते की तरह रट कर ज्ञान बघारते देखा है. “प्राण योग” की हद भी मात्र स्थूल देह तक ही सीमित है. “बुद्धि योग” से भी बस अंतःकरण की ही कुछ हद तक सफाई हो सकती है. “परा विधा” या सूक्ष्म प्राण योग की रसाई भी ब्रह्म पद को पार नहीं कर सकती. बशर्ते की ये सब योग विधी पूर्वक किये जाएं, यानि उस विधि के अनुसार किये जाए, जो की इन को जारी करते वक़्त, इनके जारी करता आचार्यों द्वारा बताई गई थीं. बड़े-बड़े सूरमा और पतिव्रता स्त्रियाँ स्वर्ग को गयीं, किन्तु परमार्थ में स्वर्ग की कुछ भी महिमा नहीं है.स्वर्ग पहुँच कर भी न तो आवागमन छूटता है और न ही निर्मल आनंद ही प्राप्त होता है. फिर इन योग मार्गों के लिए जिन संयमो को आवश्यक बताया गया है, वे उस काल में भी अति कठिन होते थे, तभी तो ऋषि और मुनि हजारों वर्ष तपस्या में लगा देते थे. पर आज के समय में न तो जीव को हजारो वर्ष की आयु ही प्राप्त है और न ही जीव में वह काबलियत और ताकत ही बची है की इन सयमों को अपनाते हुए तप कर सके.
जीव की इसी दीन-हीन और दयनीय दशा को देख कर स्वयं राधास्वामी दयाल ने नर देह में, गुरु रूप में अवतरित हो कर, माया और काल के जाल में कुंठित जीव के सच्चे उद्धार के निमित्त “सहज भेद” को खोल कर बताया, जो की अब तक गूढ़ और गुप्त था. इसी सहज मार्ग पर चलने के मार्ग को संतमत और मंजिल को राधास्वामी नाम से प्रकट किया. और “नाम” के भेद का उपदेश किया. साथ ही मुक्ति मार्ग पर चलने के तरीके को, मार्ग के स्तरों, ठहरावों और धुर-धाम दिहानी “राधास्वामी दयाल” तक सुरत को पहुँचाने का भेद खोलते हुए, उसका अभ्यास करवाया. इसी “अभ्यास” को हम “शब्द-योग”, “सुरत-शब्द” व “सहज-योग” अभ्यास के नाम से जानते है. और राधास्वामी दयाल के नर देह में अवतरण को – “ परम पुरुष, पूरन धनि, समद दयाल हुज़ूर स्वामी जी महाराज” के नाम से. जिनका सांसारिक नाम, हुज़ूर शिव दयाल सिंह सेठ रहा. आपके पिता जी महाराज हुज़ूर दिलवाली सिंह जी सेठ, कौम खत्री, मोहल्ला पन्नी गली, शहर आगरा के निवासी थे, जहाँ कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने नर देह में अवतरण किया और काल के जाल और गाल में फसे जीवो के सच्चे उद्धार के निमित्त सत्संग रुपी बेड़ा जारी किया और उसे आगे बढ़ाने का जिम्मा अपने गुरमुख शिष्य, परम संत “हुज़ूर महाराज” - श्री सालिग्राम जी माथुर, जो की प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जनरल हुए, निवासी मोहल्ला पीपल मंडी, शहर आगरा को सोंपा.
आज के युग में सिर्फ संतमत ही वह मार्ग है, जिस पर चल कर निर्बल जीव, मन-माया के देश से निकल कर, सुरत-शब्द द्वारा, जो की सत्पुरुष की जान है, निर्मल चैतन्य और परम आनंद के देश में पहुँच सकता है. यह ज्ञानियों और योगेश्वरो के पद से बहुत ऊपर है. और सिर्फ यहीं पहुँच कर जीव चौरासी के योनी-चक्र से छूट सकता है. इस निर्मल चैतन्य के आनंद के समक्ष स्वर्ग आदि का आनंद बेहद फीका और थोथा है. फिर जो शुभ कर्म, सयंम-तप आदि करनी किसी से बन भी पड़ी तो शुभ कर्मो का फल समाप्त होने पर जगत में फिर से जनम लेना ही पड़ेगा और उस कर्म का जो शेष फल रह जाता है, उसी के अनुसार, जगत में फिर जनम लेने पर जगत की सब माया और कामनाए भी प्राप्त होती है जिस में फस कर काल, जीव को फिर से अधो गति की ओर ले जाता है, शास्त्र ऐसे तमाम उदाहरणों से भरे पड़े हैं.
इससे साबित होता है की “सुरत-शब्द” अभ्यास के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों का फल नाशमान ही है. दान आदि भी नाश्मान चीजो का ही होता है, तो उनका फल भी नशमान ही है. सिर्फ सुरत-शब्द अभ्यास ही एक मात्र उपाय है, जो की चौरासी से बचा सकता है. यह साध, संत और फकीरों का मत है और संसार के सभी मतों से हमेशा से अलग रहा है. फकीरों इसी “सुरत-शब्द अभ्यास” को “शगल सुल्तान-उल-अज़कार” कहा है. यह मालिक के सच्चे प्रेमियों और भक्तों का मार्ग है, इस मार्ग पर हिन्दू, मुस्लमान, सिख, इसाई, बहाई, बौद्ध, जैन आदि का कोई भेद नहीं है, यह हर मज़हब की हर हद से बहुत ऊंचा है. जिसे मालिक के सच्चे भक्त ही समझ पाते हैं.
प्रसंग वश – अक्सर सत्संगी कारोबार के विषय में, उचित-अनुचित के ख्याल में अटक जाते हैं. तो परमार्थी नुक्ते-नज़र से, हक-हलाल की कमाई वही है जो जीव अपने सात्विक हुनर से कमाता है, जिसमे उसकी मेहनत और पसीना लगा हो, जैसे कारीगरी का काम, शिक्षण कार्य, खेती व ऐसी नौकरी जिसमे जीव सयंम को विकारों से रहित रख सके आदि पर वकालत और पुलिस की नौकरी करते वक़्त संशय बना ही रहता है.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी,
राधास्वामी हेरिटेज.
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... १५ 

हैरत हैरत हैरत होई, हैरत रूप धरा एक सोई . 
हैरत रूप अथाह दवामी, अस मेरे प्यारे राधास्वामी ..
कुछ बातें भेद की ..... १ .
आम तौर पर लोग संतमत को मजहबी या धार्मिक विचारों से जोड़ कर देखते हैं. उनको और उन सत्संगियों को भी जो कभी-कभार ही सत्संग में पहुँच पाते हैं, उन्हें यह जानना ज़रूरी है की संतमत कोई मजहब नहीं है, पर दुनिया के हर मजहब की जान और हर मजहब का साझा है. सो संतमत को समझने के लिए रचना और उत्पत्ति से सम्बंधित कुछ मुख्य बातो और व्यवस्था के कुछ अटल सिद्धांतों को जानना आवश्यक हो जाता है. अक्सर ही इन बातों को सत्संग में बताया जाता है, पर जो कुछ जीव ने पहले से समझ रक्खा है, उसी के अनुसार वो इन अहम् बातों को, अपनी समझ के अनुसार घटा-बढ़ा लेता है, और इस तरह अपने ही बनाय भ्रमों के जाल से कभी निकल नहीं पाता.
मालिक कुल ही प्रेम, हर्ष, आनंद और शब्द रूप फिर अरूप, अडोल और अबोल है. वह चैतन्य का अथाह भंडार, हमेशा से ही है. उसमें न कभी कोई फर्क हुआ और न हो सकता है. उसका न आदि है, न अंत. वह अनामी पुरुष, अपने में ही आप समाया, हैरत रूप या अचम्भा है. वह खुद की खुदी में रज़ा, स्वयं में ही रत, प्रेम का अनंत भण्डार, अनादी और अनंत है.
सारा ब्रह्मांड, अंड, पिंड और कुल रचना, मालिक कुल की एक बूंद भर में समा जाती है. बुद्धि और ज्ञान उसकी अत्यंतता की कल्पना भी नहीं कर सकते. कुल रचना, अगम लोक की मुठ्ठी भर में समां जाती है, बाकी रचना को संतमत की दृष्टि तीन स्तरों में देखती है. एक वह जिसका आदि है पर अंत नहीं. दूसरा वह जिसका आदि और अंत दोनों है, पर यह रचना अत्यंत काल यानि बेहद लम्बे समय तक कायम रहती है, जीव अपने सम्पूर्ण योनी चक्र में भी इसका आदि और अंत नहीं देख सकता. तीसरा स्तर वह है, जिसका आदि और अंत पल-पल नज़र आता है, हम जीव इसी तीसरे स्तर के प्राणी है.
कुछ लोगों का विचार है की “पुरुष अनामी” में माया बीज रूप में मौजूद थी और यदि नहीं थी, तो कहाँ से आई – सरासर गलत है. ऊपर लिखीं बातें इसी बात को स्पष्ट करतीं हैं.
“सोत पोत में माया नाहीं, वहां प्रेम ही प्रेम रहान.”
तो माया का रूप क्या है ? और उसमे ख़ास क्या है ?
माया में जड़ता यानि inertia है. बगैर मदद दुसरे के, इसमें कोई हरकत या स्पंदन नही हो सकता, माया में खुद स्पंदित होने की ताकत नहीं है. माया में कोई भी हरकत, चैतैन्य धार के समावेशित होने पर ही होती है, इस तरह माया चैतन्य के
आधीन है. माया का झुकाव बहिर्मुख है, जिसका बहाव बाहर और नीचे की ओर है. तो माया स्वयं में परिपूर्ण नहीं है, यह सूरत चैतन्य की मोहताज है, बिना सूरत चैतन्य के यह कोई रस नहीं ले सकती. और ये सभी स्थितियां दयाल देश में नहीं हैं, इसलिए ये विचार कि दयाल देश में माया बीज रूप में मौजूद है, सिरे से ही गलत है. साथ ही इस बात को ठीक से समझने के लिए कि फिर दयाल देश और अंड, ब्रह्माण्ड व पिंड देश की रचना कैसे हुई ? संक्षेप में इस विषय को जानना आवश्यक हो जाता ह


अनामी पुरुष प्रेम का अथाह भण्डार है, जिसमे कभी कोई चेष्टा या हलचल नहीं हुई, वह सदा एकरस, सदा चैतन्य और निरंतर है. 
सत्यलोक तक शब्द-सुरत युगल अवस्था में रत हैं यानी एक रूप हैं, जिन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता. “जुगल रूप की निसदिन टेका”. जैसे समुद्र और उसकी लहर, जो की समुद्र से निकल कर उसी में समा जाती है और कभी अलग नही होती. इस स्तर तक चैतन्य की कशिश अंतर्मुख है यानी स्वयं में ही रत है. जब यही चैतन्य धारा, बहिर्मुख हो कर ब्रह्माण्ड में उतरी, तब इसी आदि धारा का नाम “राधा” हुआ और इसके सिवा परम पुरुष को न कोई निरख सकता है, न निहार.
“ बैठक स्वामी अद्दभुती राधा निरख निहार .“
रचना की जो कुछ भी कार्यवाही हुई है, वह भास् रुपी चैतन्य से, जो कि पुरुष अनामी के चरणों में सिमटा था, उसी से हुई है.
भास् को इस तरह समझना चाहिए जैसे कोई बल्ब या लैंप जल रहा हो, और उसका भास् फैला हुआ हो. तो इस भास् में भी वही चैतन्य प्रकाश बसा होता है, जैसा की बल्ब या लैंप में. पर जैसे-जैसे दायरा बढ़ता जाता है, इसका प्रभाव कम से कमतर होता जाता है. भास् के इसी दायरे से जो चैतन्य, उस प्रथम चैतन्य की तरफ, जिसमे की स्वाभाविक रूप से आकर्षण या खिंचाव होता है, जितना खिंच सका, खिंचता गया. और केंद्र के चारों ओर इकट्ठा होता गया. रचना का मकसद भी यही है की, जितना भी मालिक की ओर और नजदीक खिंचा जा सके, खिंचता चला जाय. इस तरह कम अधिक की तरफ खिंचा और अपने से अधिक या आगे के चैतन्य में समाता चला गया और जो समाने से रह गया, वह अपने से नीचे या की पीछे के चैतन्य का गिलाफ या आवरण होता चला गया. इस तरह चैतन्य जिस स्तर पर कम होता गया, माया उतनी ही दढ़ यानी स्थूल होती चली गयी. और ऊपरी मंडलों में जहां कि चैतन्य द्रढ़ और अधिक द्रढ़ होता गया, उसी अनुपात में माया भी स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होती चली गयी. इसे ही माया का शुद्ध होना कहा गया है.
“ एक ठिकाने माया थोरी, सिंध प्रताप शुद्ध हुई जान. ”
तो जो चैतन्य पीछे छूट गया, वही सतलोक की तलछट के सामान है. इसकी दिशा बहिर्मुख हो कर, ब्रह्मांड में माया प्रकट हुई. इस तरह बहिर्मुख बहाव, अंतर्मुख खिंचाव की ही प्रतिक्रिया या प्रतिगति है. प्रत्यक्ष है की पिंड के मुकाबले ब्रह्मांड में माया सूक्ष्म है. यहीं से माया ने सुरतों के बीज से, जो की काल को सतलोक से निकाले जाने के वक़्त, रचना के लिए मिला था, जगत की रचना करी.
“ निकल जाओ तू यहाँ से खानाखराब. “
पर “निकाल देने” का अर्थ यह नहीं की काल से कोई बैर है. वह तो जगत की रचना और गति का एक अहम् कारक है. ब्रह्मांड में चैतन्य, माया का आवरण हो रहा है. इस स्तर पर भी आनंद और सुख व्याप्त है, पर महा प्रलय के वक़्त इस स्तर का भी ह्रास हो जाता है, यह ब्रह्मांडीय स्तर अज़र, अमर, अविनाशी नहीं है.
संसार यानी पिंड देश में मन-इच्छा ही काम करती है. माया इसके आधीन और चैतन्य गुप्त है. पर जगत का कोई भी काम बिना चैतन्य खर्च किये, होता भी नहीं. तो सतलोक तक, जहाँ से की चैतन्य धार जारी हुई है और हर चैतन्य बीज का स्वाभाविक जुड़ाव बना ही रहता है जब तक की अंश, अपने अंशी में समा न जाय, तो जीव जो भी चैतन्य जगत में खर्च करता है , स्वाभाविक रूप से उसती खबर सत्पुरुष तक पहुँच ही जाती है. – मालिक से जीव का कोई भी करम नहीं छिप सकता.
जगत का हाल तो रोज़ कुवां खोदने जैसा है, उंगली की जरा सी हरकत हो या मन का कोई ख्याल, बगैर चैतन्य को खर्च किये कुछ भी हो नहीं पता और चैतन्य की वृद्धि का तरीका एक मात्र “अंतर्मुख शब्द अभ्यास” ही है. तो एक सच्चे खोजी को समझना चाहिए की जगत में रहते हुए ऐसा वर्ताव करे की, अंतर चैतन्य खर्च तो कम हो और बढ़े ज्यादा. तब सुरत का उठान स्वतः ही ऊपरी मंडलों में होने लगेगा. – यही संतमत और संतों का मुख्य सन्देश और उपदेश है.
माया के विषय में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उस भास रुपी चैतन्य में उस सामन का वह अंश भर अंग ही था, जिससे माया ने जगत में यह रूप धारण कर लिया. और इसी अंश भर अंग से ही सम्बन्ध वक़्त और बसअत time and space की उत्पत्ति का भी है, पर उसकी व्याख्या करने का अभी उचित प्रसंग नहीं है.
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
- राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

अंतर्यात्रा ..... १४ 
सारा जग है प्रेम पसारा .....
नशा भी खालिस और नशेबाज भी खालिस चाहिए, वोही प्रेम का मर्म जान सकता है. और धर्म निभा सकता है 
जगत में जो कुछ भी है और स्वयं जगत की भी, उत्त्पत्ति, विकास और पोषण, प्रेम से ही है. और प्रेम ही जगत से उबारता भी है. जगत की लालसाओं में अचेत जीव में, प्रेम भाव का चेता, भक्ति से ही आता है. और जब चेता तब संसार के सभी भोग-विलास फीके लगने लगते हैं. मन तो पारे की तरह चंचल होता है, इसे रोक कर भक्ति में लगाना, ऐसा ही मुश्किल है, जैसे पारे को भस्म बनाना. मन तो गुरु-भक्ति बांध कर ही रुक पाता है.
भक्ति और प्रेम दो नहीं पर एक ही है, पर व्यवहार में दो रूपों में नज़र आते है और अंत में जा कर एक हो जाते है. दरअसल भक्ति व्यवहार है और प्रेम भाव है. तो भक्ति, प्रेम का ही व्यवहारिक रूप है. जो की स्तर दर स्तर स्थूल से सूक्ष्म, फिर उससे भी सूक्ष्म और अत्यंत सूक्ष्म हो कर, प्रेम भाव में समाहित हो जाती है.
इस तरह हम समझ सकते हैं कि भक्ति ही प्रेम का मार्ग भी है और पथ भी. जिसने भी अपने भीतर भक्ति के रस को पा लिया, उसे संसार के बाकी सभी रस और भोग-विलास खुद-बा-खुद फीके और बे-मज़ा लगने लगते हैं. वास्तव में रस तो उस शब्द-धुन-अम्रत धार में है जो ऊपरी मंडलों से आ रही है. नशा तो जगत का मजा है, सुन्न पद पर इस नशे की मस्ती भर रह जाती है और इससे भी आगे सत्तलोक में ये मस्ती भी जाती रहती है, सिर्फ सुरूर ही रह जाता है – यही प्रेम है, खालिस प्रेम. तो जैसे-जैसे सुरत ऊपरी मंडलों में उठती जाती है, रूहानी नशे का यह सुरूर भी बढ़ता जाता है.
मन की फितरत ही चंचल है, जब तक कोई ताकत इस मन को खींच कर बाँध न ले यह डोलता ही फिरता है. मन सिर्फ गुरु भक्ति से ही बांध सकता है, पर बेहद मुश्किल काम है, जीते जी मरने के सामान है. इन बातों का यह मतलब हरगिज़ नहीं की भक्त को संसार के सुखों से वंचित रहना होगा, बल्कि सच तो ये है की, मालिक ने सभी सुख, अपने भक्तों के लिए ही पैदा किये हैं.
कुरआन शरीफ की आयत “लौलाक” में खुदा ने फरमाया है की – “मैंने जो कुछ पैदा किया है वो, ऐ मेरे महबूब, तेरे लिए पैदा किया है.” लेकिन हमे इन सुखों में बहुत ही संभल कर वर्तना होता है. उपयोग और उपभोग के फर्क को समझे बिना, ऐसा कर पाना कतई संभव नहीं.
राधास्वामी सदा सहाय.....
राधास्वामी जी
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

अंतर्यात्रा .....१३ 
सुरत सुहानी मालिक सरना ......
राधास्वामी दयाल ने एक बार जिसे सरन दे दी यानि जिसके भीतर शब्द खुल गया, उसे मालिक फिर कभी नहीं छोरता, तो शब्द भी कभी नहीं बिसरत. हाँ, जीव मन-माया के फेर में अपने स्तर से ज़रूर गिर सकता है, पर द्वार कभी बंद नहीं होता. 
काल बहुत भोकाल मचाता है, माया भी तरह-तरह से घातें लगाती है. दोनों मिल कर बहुत हल्ला-गुल्ला करते हैं, शब्द से छुराना चाहते हैं, मन कितना ही चिल्लाय पर सुरत जो एक बार चेत गई, वो फिर अलग हो नहीं सकती – सुरत तो दयाल का अंश है जी. जैसे सूरज और किरण का साथ, इन्हें अलग नहीं किया ज सकता.
जिस भी सुरत में जरा सी भी काबलियत पैदा हो गई की उसे जगाया ज सके, उसे दयाल अपनी निज सरन में ले लेते हैं. अन्य सभी जीवों पर, उनकी देहिक और आत्मिक व मानसिक स्थिति के अनुसार दया की धर बहती रहती है.
जिन जीवों में सरन की लगन नहीं होती और संसार के रस ही प्रधान होते हैं, और अंतर रस को व्यर्थ जान कर नकारते हैं, उनके परमार्थी भाग जागने का अभी समय नहीं आया है.
सुरत को मन-माया के सुख-दुःख में फसा देख कर काल बहुत खुश होता है, ऐसी सूरतें उसका भोग जो हैं. काल इन्हीं भटकी हुई सूरतों को भोगता है. हर सुरत का स्वाभाविक खिंचाव दयाल देश की ऑर ही होता है. पर काल और माया का तनाव उसे जगत की दिशा में रोके रहता है. जैसे लकड़ी पानी में डूब नहीं सकती, पर जब उस पर बोझा भारी होता है तब उस बोझ के कारण डूबी रहती है. यही कर्मों का बोझा है जो सुरत को चेतने नहीं देता, पर जब कर्मों का बोझा हल्का पड़ता है, सुरत चैतन्य ऊपरी मंडलों में पैठने लगती है और जो कर्मों का कुछ बोझा बाख रहता है, वही शेष कर्म हैं, जिनका निपटारा सत्संग में होता है.
मालिक चाहे इन सभी बोझों को एक पल में काट दे, पर मौज ऐसी नहीं. यदि एकदम से कर्म कट जाएँ तो सुरत तो सीधे सतलोक में खिंच जायेगी पर अचेत ही रह जायगी, और बेसुधी में मालिक के चरण-सरन के आनंद से वंचित ही रह जायगी साथ ही वह अर्थ भी पूर्ण न होगा जिसलिए सुरत को जगत में भेजा गया है. तो यही मालिक की मौज है की, सुरत अचेत न रहे बल्कि चेते और चेत कर करे – “अंतर्यात्रा” , अनंत की . तो सही तरीका यही है की, कल और कर्म का कर्जा काट कर ही प्रारम्भ करे हर सुरत, ”अंतर्यात्रा”.
सत्संग तो बेड़ा है, बहुतेरे ही इस पर चढ़ आते हैं, सो जिनकी लगन सच्ची है, उनके कर्म जल्दी कट जाते है और जो तमाशबीन है, उनके कर्म देर से कटते हैं पर कटते सभी के है, यही सत्संग की महिमा है. राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... १२ 
भक्ति सच्ची चाहिए, चाहे कच्ची होए. 
संत – साध पूरे के सत्संग से जीव का घाट यानि वर्तमान स्थिति बदल जाती है. सत्संग के प्रभाव से जीव जब उस घाट या स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ से कि संत उपदेश करते है, तब वह प्रेम और आनंद के सागर में सराबोर होता है. इसके लिए ज़रूरी है कि भक्ति सच्ची हो, चाहे कच्ची ही हो. जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता जायगा, सतगुरु के स्वरुप और मालिक के चरणों में प्रीत बढ़ती जायगी.
सच्चा अनुराग सुरत में ही पैदा होता है, इस तरह सुरत का प्रभाव भी अनुराग में शामिल होता है और यही अनुराग सच्चा होता है. तो जब सुरत में अनुराग पैदा होता है, तब ही जीव संतमत के उपदेश का अधिकारी बनता है और संतों के उपदेश को अपने हित में जान कर पूरे चित से सुनेगा. सुरत और चेत मिल कर यानि सुरत जब चेत कर संतों के वचन को सुनती है तब मन भी सथ देने लगता है और धीरे-धीरे जगत से फिरने लगता है.
बात तो वाही है जिसे संतो ने आदि से कहा है और सब ने उसी बात को दोहराया है, पर हर काल और परिस्थितियों के अनुसार सब ने अपने-अपने समय की भाषा और शैली में कहा, ताकि जीव के अंतर पर उसका असर हो और गहरा होता जाय. स्कूल में जा कर पढ़ाई करने का मकसद भी यही होता है की टीचर के दिलो-दिमाग में जो है वह विधार्थी के भी दिलो-दिमाग में बस जाय यानि शिष्य की समझ को बढ़ा कर,उस घाट तक पहुंचा दिया जाय जो की गुरु का घाट है. पर जितनी समझ गुरु के पास है, उतना ही असर वह शिष्य पर दल सकता है. इसी तरह संत,साध-महात्मा अपने सत्संग और उपदेश से जीव का घाट बदलवाते है. धीरे-धीरे जीव जब उस घाट पर पहुँच जाता है, जहाँ से सतगुरु पूरे उपदेश फरमाते है तब जो असर पैदा होता है उसकी महिमा को बयां नहीं किया ज सकता, वह तो घाट प्रेम का है.
परमार्थ में कोई दिखावा काम नहीं आता, भक्ति सच्ची ही दरकार है, चाहे कच्ची ही हो, मालिक खुद एक दिन अपनी दया से उसको पक्की कर लेगा.
“कपट भक्ति कुछ काम न आवे.
सच्ची कच्ची कर भक्ति..
कच्ची से पक्की होए एक दिन.
छोर कपट तू कर भक्ति..”
जब तक गुरु की प्रीत से बढ़ कर कोई भी प्रीत है, भक्ति अभी कच्ची ही है. असर तो प्रेम का सतगुरु सब पर डाल देते हैं, जो भी उनके सम्मुख आता है, फिर चाहे जीव विरोध का ही मन ले कर क्यों न उनके सामने जाय. पर फलीभूत वह तब ही होगा, जब की जीव उस घाट पर पहुंचेगा, जहाँ से सतगुरु प्रेम की वर्षा करते हैं. जैसे-जैसे ऊंचे घाट का प्रेम जागता जायगा, सतगुरु और मालिक के प्रति प्रीत बढ़ती जायगी.
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज 


संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ११ 

सच्चा अनुराग – खोजत फिरे साध गुरु जागा .
शब्द धार का सच्चा अनुराग, सुरत के अंतर में ही पैदा होता है. सुरत जो की मालिक की अंश है तो निज देश से उसके अंतर में जो धार आ रही है, उसे ग्रहण करने की सामर्थ भी सुरत में ही है. पर मन,माया और देह के गिलाफों की वजह से शब्द-धुन धार का असर मालूम नहीं देता, जैसे-जैसे मन, माया के ये गिलाफ या की खोल, सूक्ष्म और कमतर होते जाते है, उसी के अनुसार जीव में यह अनहद धार स्पष्ट नज़र आने लगती है.
तो जब तक सुरत में प्रेम नहीं जागा है, जो भी कार्यवाही भक्ति के नाम से की जाती है या की जा रही है, वह स्थाई नहीं हो सकती. सुरत में जो भक्ती, प्रेम और प्रीत से जागेगी, उद्धार तो उसी से होगा.
भक्ति करने की रीत तो हर स्तर पर समान ही है पर प्रीत की रीत निराली है. प्रीत तो जानवर भी अपने बच्चे से करते हैं और जान क्त दे देते हैं, पर परमार्थी इश्क की किस्म अलग है. ऐसे परमार्थी आशिक, तन-मन की सारी सामर्थ मालिक के चरणों में अर्पित करने की आस में ही जीते हैं. ऐसे ही सच्चे आशिकों की श्रेणी में से भक्त पैदा होते हैं. भक्ति में ही उमंग छिपी होती है. पर भक्ति भी जगत में अलग-अलग होती देखि, कोई माया की भक्ति में लीन, लोभ-मोह में फसां है, कोई ज्ञान की भक्ति में लगा है, जैसे वेदांती और वाचक ज्ञानी, जिन्होंने प्रेम की जड़ ही काट दी. इस तरह की सांसारिक भक्ति में उमंग नहीं होती बल्कि निज स्वार्थ छिपा होता है.
आसन लगाने या आँखे बंद कर के बैठ जाने से कुछ भी नहीं होगा. यह तो मुंगेरी लाल के हसीं सपनों की तरह ही है. इन बातो में लग कर परमार्थ का भाग नहीं जागता. जब तक मन निर्मल न होगा कुछ भी न होगा. सो सतगुरु पहले जीव को संसार की अग्नि में ही तपाते है और तब मन-माया को कम कर, सुरत अंग को ऊपर उठाते हैं. इसी सुरत अंग में में प्रेम और प्रीत की उमंग छिपी होती है.
अपने भक्त की मालिक की मौज से हमेशा संभाल होती रहती है, बेशक उसका साधारण जीव की तरह ही पालन-पोषण होता है, वो इंद्री के घाट भी जायगा, उस पर सब तरह की संसारी बातों का असर भी होगा, पर मालिक उसे भोगो में बहने न देगा, डूबने से पहले ही बचा लिया जायगा. मालिक उसे दुनिया का हर तमाशा दिखलाता है, पर सिलसिला अंतर से लगाय रखता है. जो यदि यह सिलसिला टूट गया तो कुछ भी प्राप्त न होगा. भागों वाला है वह जीव जिसे सतगुरु का संग-सानिध्य प्राप्त होता है.
जब सुरत, शब्द को सुनती है तब मन की बढ़त स्वतः ही घटने लगती है. और ऐसा सुरत-शब्द अभ्यास से ही होगा. प्राणायाम बहुत जल्दी असर करता है, पर इसका प्रभाव दैहिक व मानसिक स्तरों तक ही सीमित होता है. इससे मन मजबूत ही होता है, न की उस स्तर तक नरम, जब की सुरत तक पहुँच बन सके. देखा की जीव प्राणायाम तो घंटों तक कर सकता है पर सुरत-शब्द अभ्यास पांच मिनट भी मुश्किल हो जाता है. जो सतगुरु जागा है वही सुरत को जगा सकता है, सिर्फ आँखें बंद कर के बैठने से तो सुरत सोएगी ही. पर जिनमें भक्ति है वह परमार्थ के वातावरण से कभी दूर नहीं रह सकता. और यह वातावरण सच्चे सत्संग में ही मिल सकता है, पुराने किस्से-कहानियों में नहीं. यूँ तो भीड़ बहुतेरे लगा लेते हैं, ये सब तमाशबीन है, सच्चा खोजी तो कोई विरला ही होता है.
“ खोजत फिरे साध गुरु जागा ”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... १०
विशवास ही परमार्थ की नीव है. ...
विश्वास, सुनने से, सुनना मालिक के वचन से और वचन मालिक की दात से प्राप्त होता है.
परमार्थ की समस्त कार्यवाही अंतर से सम्बन्ध रखती है. तो जीव पहले सुन कर, फिर सोच-विचार कर और तब व्यवहार में अपना कर, परमार्थ के धरातल पर कदम रखता है.
इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि ऊपरी और बाहरी यानि व्यवहारिक तौर से जीव की करनी चाहे कितनी ही शुद्ध और परमार्थी क्यों न मालूम दे, वह निष्फल तो नहीं जायगी, पर ऐसी करनी से वह परमार्थी लाभ जो की संतों ने बताया है हरगिज़ प्राप्त न होगा. सतयुग में जिनकी भी हिरण्यगर्भ यानी प्रणव पद ओंकार तक पहुँच हुई, वह अंतर अभ्यास से ही हुई, पर उन्हें भी समय के अनुसार, वहां से लौट कर आना ही पड़ा. ओंकार पद का आनंद भी खालिस और अनंत नहीं है. पर यह संतों का मत है, दुनियावी हर मजहब का अंत तो प्रणव पद ही हो जाता है. जब की संतों का मार्ग यहाँ से शुरू होता है.
संत मत के अनुसार जो भी कार्यवाही तन व मन से, बिना सुरत की दखल के की जायगी, वह सब ऊपरी तौर पर की गई बाहरी और संसारी ही है. यह संसार काजल की कोठरी के सामान है, जीव की आँख में जो कला बाँध होता है वाही काजल है और जो पुतली है वाही कोठरी है, अब जब इसके परे जाय, तब ही इस कोठरी से निकल सकता है. जैसे सूरज की किरणों से प्रकाश के कण आ रहे है वैसे ही अँधेरे के कण इस काजल की कोठरी से निकल रहे है. यदि संत-महात्मा भी इस घाट पर ठहरे तो उन पर भी ये अँधेरे के कण अपना प्रभाव डाले बिना न रहेंगे. ऊधो जी, कृष्ण महाराज के अति प्रिय सखा थे, हर वक़्त का साथ था. तो ऊधो जी ने जब कृष्ण जी से वक़्त आखिरी कृष्ण जी से अपने साथ अपने धाम ले चलने के लिए कहा, तब कृष्ण जी ने यही कहा की योग-अभ्यास करो. कहने का मतलब यह है की, हर युग में अपने वक़्त के अनुसार ही अंतरी कार्यवाही करने से काम बना है और बनेगा. पिछले युगों की कार्यवाहियां अगले युगों में जीव से न बन पड़ी है और न पड़ेंगी. संतों की परमार्थी कार्यवाही की शुरूआत छठे चक्र यानि तीसरे तिल से होती है, मन और प्राण के बंधन यहाँ पहुँच कर ढीले पड़ जाते है. सुरत ही मालिक की अंश है, वही मालिक के दरबार में पहुँच सकती है, मन और माया की वहां कोई रसाई नहीं.
अंतरी कमाई के लिए आदि भाग्य यानि पूर्व जन्मों के संकलित संस्कार, का जागना ज़रूरी है , बिना इनके जागे अंतर्यात्रा शुरू नहीं हो सकती. संतमत में कोरे बैराग का कोई महत्त्व नहीं है, बैराग – अनुराग सहित होना चाहिए. मालिक के दरबार में सच्चे अनुराग की ही परख होती है.
सच्चे अनुराग से ही विरह पैदा होती है. पर यदि कोई यह सोचे की सिर्फ विरह से ही उसका काम बन जायगा, तो यह गलत है. यदि विरही को वक़्त रहते संत-साध का साथ न मिला तो यह विरह की बेल सूख जाती है. भाग से जो संत-साध का संग और सत्संग मिल जाय तो वे इस घाट की विरह को सुखा कर, ऊंचे घाट की विरह को जगा देते है और फिर उससे ऊंचे घाट की. इस तरह एक दिन धुर पद में भी पहुंचा देते है. नाम प्रदान करते वक़्त सतगुरु जो फरमाते है , वह व्यथा नहीं है. वे अपनी दात कभी वापस नहीं लेते. वे यही दात बक्श्ने ही तो आये हैं. उनका हुक्म इस धरा पर टल नहीं सकता, वह तो हो कर रहेगा. यागी एक जनम में सुरत न पक सकी तो अगले जनम में पकेगी, पर पकेगी. जिसने सतगुरु पूरे की और सतगुरु पूरे ने जिसकी उंगली एक बार थाम ली उसे तो वे सत देश पहुंचा कर ही रहेंगे . यही दयाल की निज दात है, जिसे सतगुरु पूरे के रूप में जीव भाग से पाता है.
राधास्वामी दयाल की दया , राधास्वामी सदा सहाय .
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.        

अंतर्यात्रा ..... ९

सतगुरु दीजे दात प्रेम की .....
सिर्फ सुरत ही ,मालिक से प्रेम कर सकती है, क्यूंकि सुरत ही मालिक का अंश है. और अंश को अपने अंशी से प्रेम करने का पूरा हक है. “सुरत व शब्द” और “राधा व स्वामी” एक ही है और सुरत मालिक को प्यारी है.
“राधा आदि सुरत का नाम, स्वामी शब्द निज धाम.
सुरत-शब्द और राधा-स्वामी, दोनों नाम एक कर जानी.”
पर जब तक मन में मलीनता यानी मैल है, जीव को सच्चे और खालिस प्रेम की दात कभी नहीं मिल सकती. लेकिन जिस भी जीव ने सतगुरु वक़्त और पूरे की शरण ले ली, उसके भीतर से मलीनता तो धीरे-धीरे कम होती जाती है, पर इस मलीनता की जड़ तो तभी कटेगी जब राधास्वामी दयाल की दया की दात मिलेगी. इसीलिए मत में द्रढ़ है की हमारा ईष्ट राधास्वामी दयाल है.
प्रीत तो जानवर भी करते है, जैसे गाय बछड़े के साथ करती है और बछरा भी गाय के पीछे-पीछे घूमता फिरता है. पर यह प्रीत कुछ ही दिन की होती है, बाद में वे एक-दुसरे को पहचानते तक नही. पशुओं में मुख्यता इन्द्री व देह का भाव ही अहम होता है, तो वे गुदा व नाभी कँवल तक ही सीमित होते है, अंतःकरण के स्तर पर पहुँचने से उनकी म्रत्यु हो जाती है. उनमे मन व आत्मा का भेद नही होता, दोनों एक ही है और यही मनुष्य व अन्य सभी योनियों के बीच मुख्य अंतर है. मनुष्यों में भी मन की तरंगें है, पर हमारी जान सुरत में बस्ती है, मन में नहीं. मनुष्य चोले में अंतःकरण के स्तर से प्रीत की जा सकती है, मन से मन का मिलन भी हो सकता है और ये मोहब्बत सारा जीवन निभाई भी जा सकती है जैसे लैला-मजनू , राधा-कृष्ण , हीर-रांझा कई उदहारण मिलते है. और कभी-कभी देखा गया है की इन्तेहाई मोहब्बत का असर एक जनम के बाद दूसरे जनम तक भी पहुँच जाता है. पर ऐसे में प्रेमी को अपने प्रीतम के सिवा कुछ भी नहीं सूझता.
मनुष्य चोला मिलने पर भी अक्सर पशुता अपना प्रभाव बनाय रखती है. अक्सर कोई लोमरी की तरह चालाक मिल जाता है , कोई कौवे की तरह घाग, कोई बाघ की तरह अपने ही अहम् से चूर, क्रोधी और हर किसी पर रौब गांठता फिरता है, कोई गाय की तरह सीधा तो कोई गधे की याद दिला देता है. दरअसल मनुष्य पहले नरपशु, फिर नर होता है. हर एक मनुष्य में अन्य सभी योनियों के संस्कार मौजूद होते है. न जाने कब कौन अपना सर उठा ले कुछ कहा नहीं ज सकता , सब प्रारब्ध के अनुसार ही होता है.
तो जीव जब मनुष्यता में पूर्ण होता है, तब ही अंतःकरण के घाट से पूरे स्तर की प्रीत कर सकता है, जब अंतःकरण में प्रीत जग जाती है, तब ही मन से मन का मिलन होता है. फिर जब तीसरे तिल, जहाँ पर की अंतर मन का घाट है में समाई होती है तब उस घाट के प्रभाव से बहुत ही गहरी और ऊंचे स्तर की प्रीत जगती है और अथाह प्रेम का द्वार खुलना शुरू होता है, जो कभी नही घटता पर बढ़ता ही जाता है. और जब हर स्तर के मन से पार हो कर सुरत, प्रेम के अमोघ सागर को प्राप्त होती है – तब यही निर्मल आनंद है.
तो जैसे-जैसे मालिक के चरणों में प्रेम बढ़ता जायगा, जगत के प्रति प्रीत कम होती जायगी, पर इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि जगत के सारे काम बंद हो जायेंगे , जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने सास-ससुर, जेठ, देवर-देवरानी आदी सभी का ध्यान रखती है, पर मुख्य रूप से प्रेम-प्रीत अपने पति से ही करती है. ऎसी ही प्रेम-प्रीत हमें मालिक से करनी चाहिए. अभी जो प्रीत हम कर रहे हैं वो ऊपरी प्रीत है, तन,मन व इन्द्रियाँ सब बाहरी बाते हैं. मालिक से प्रेम माँगना मालिक को ही मांग लेना है, मालिक ही प्रेम स्वरुप है, ऎसी ही प्रेम दात के लिए सतगुरु से विनय करनी चाहिए – “प्रेम दात गुरु दीजिये, मेरे समरथ दाता हो.”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

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अंतर्यात्रा ..... ८
लूट सके तो लूट .....
नाम का सिमरन और कमाई सिर्फ मनुष्य चोले में ही हो सकती है. जीवन का क्या भरोसा ? वह तो थोरा ही है. इसलिए चाहिए की जीव हर सांस के साथ, दोनों हाथों से नाम की लूट करता रहे, परमार्थ में लूट का अर्थ यही है की हर वक़्त नाम की याद बनी रहे, वह कभी भी भूलने न पाय.
“ लहना है सतनाम का , जो चाहे सो ले .”
जो विषयी भोगी जीव है वे जीवन को कम जान कर, आराम और सुविधा में ही जीवन व्यतीत करना पसंद करते है. पर संतों को तो नाम की कमाई का उपदेश करना ही फर्ज है.
मनुष्य देह सबसे उत्तम और अनमोल और दुर्लभ है. सिर्फ इसी चोले में नाम की कमाई हो सकती है. इंसान और हैवान में यही फर्क है – हैवान नाम से दूर भागता है. विषयों का भोग तो जानवर भी अपनी स्थिति के अनुसार कर लेते है, पर नाम की कमाई नहीं कर सकते. मात्र मनुष्य चोले में ही सभी चक्र, कँवल और पदम् , चैतन्य धार के अभ्यास से चैतन्य और जाग्रत किये जा सकते है. जानवरों का जन्म व म्रत्यु अंतःकरण के घाट से ही होती है, पर मनुष्य चोले में म्रत्यु छठे चक्र से नीचे नही होती. कितना ही पापी मनुष्य क्यों न हो, पर छठे चक्र पर ज्योत के समक्ष उपस्थित हुए बिना, म्रत्यु भी वरण नही करती. छठे चक्र पर ही नाम की गाज सुनी जा सकती है.
नाम का रस बहुत मीठा है. पर यह तब आता है जब सुरत तन-मन से खिंच कर ऊपर उठ जाती है, यही जीते जी मरना और मर कर जी उठना है. अंतर में ही मरने के इस रस का पाता चलता है, जब की जीव अंतर में मर कर जी उठता है. यही वास्तव में मर कर जी उठाना है, जैसा की हज़रात ईसा ने अपनी शिक्षाओं में स्पष्ट किया है.
इस देह में अमृत और विष की दोनों धारे सामान रूप से मौजूद हैं. अमृत की धार ऊपर से आ रही है, यही नाम की धार है, जो जीव इस धार के आसरे ऊपर को चढ़ेगा सो अमरत्व को प्राप्त होगा और जो निचले घाटों से आने वाली विष की धार के आसरे विषय-भोगों में बढ़ेगा, उसके लिए तो रसातल का द्वार ही खुलेगा. और विषय-वासनाओं में ही डूब मरेगा .
जीव को उचित है की जगत के प्रति धीरे-धीरे जगत के प्रति उदासीन होता जाय और अंतर्यात्रा पर नाम की कमाई करता जाय.
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पायं .
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय.
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.