Sunday, 24 January 2016

अंतर्यात्रा ..... ६३

सत्संग बेड़ा सब हितकारी .....

सत्संग , सतगुरु या पूरे साध के संग का नाम है. पर ज़रूरी है कि सतगुरु या साध संतमत का पूरा और पैरोकार हो. हम जीव सभी शुरू मे तो नादाँ ही होते हैं, फिर जब सानिध्य में बैठ कर वचनों को पूरे ध्यान से सुनते और उन पर मनन करते हैं तब ही कुछ गति प्राप्त और सतगुरु की कुछ पहचान हो पाती है.
सच्चे सत्संग की परख कुछ ही बातो से हो जाती है, जो कि अति महत्वपूर्ण हैं.
(१) . सत्वचन वही जो जिज्ञासु के मन में दुनियादारी कि फ़िज़ूल बातो के प्रति धीरे-धीरे उदासीनता पैदा करता जाय.
(२) . सच्चे सत्संग में सत्पुरुष राधास्वामी दयाल कि ही महिमा और कुल मालिक दयाल तक पहुँचने के मार्ग का भेद और मार्ग की मंजिलो व स्तरों का वर्णन ही होता है. वहां किस्से-कहानियों, विरोध या पिछले हो चुके महात्माओं की चर्चा नहीं होती. हकीम लुकमान की तस्वीर के आगे बीमारी सुनाने से अब किसी का इलाज संभव नहीं, सो संतमत हमेशा ही ‘संत सतगुरु वक़्त’ की खोज और सत्संग की ही ताकीद करता है.
(३) . वचन जो जीव को बोध कराता है कि, जीव अपनी भक्ति, प्रेम और प्रतीत को कुल मालिक राधास्वामी दयाल और सतगुरु पूरे के चरणों में किस प्रकार बढ़ा सकता है.
(४) . सतगुरु की हिदायतों में वर्णन उन विघ्नों और रूकावटों का होता है, जो काल और माया एक जिज्ञासु और अभ्यासी के मन में, उसे सत मार्ग से दूर रखने के लिए पैदा करते रहते हैं.
(५) . सतगुरु के वचनों में उन सभी अन्तःकरणीय स्थितियों और प्रभावों का वर्णन होता है, जो जीव को ध्यान पूर्वक सत्संग और अभ्यास और चेतना के ऊपरी मंडलों में खिचाव के समय अपने अंतर में अनुभव होते हैं.
- सत्संग में संकल्प के साथ बैठ कर और ध्यान पूर्वक सतगुरु के वचनों को सुनने से, बहुत से पूर्वाग्रह, भ्रम और संशय स्वतः ही धुल जाते हैं और रूढ़िवादिता से मन की पकड़ ढीली हो जाती है. इस तरह जीव ‘अंतर्यात्रा’ के पड़ावों को धीरे-धीरे तय करने के योग्य बनता जाता है.
- पर समस्या यह है कि अब जीव मे धैर्य की बहुत कमी हो गयी है. सब कुछ बस यूँ ही पा लेना चाहता है. बस इधर-उधर कहीं से सत्मार्ग और अभ्यास की बढ़ाई सुन-सुना कर, सत्संग में आ बैठता है और उपदेश ले कर अभ्यास की जुगत में लग जाता है. तो इस तरह अभ्यास जैसा उचित है वैसा कभी बन नही सकता और न ही अभ्यास में रस ही मिलेगा. क्यूँकी यह अटल है कि जब तक मन के सभी संशय-भ्रम दूर न हों और अंतर में सफाई न हो जाय और राधास्वामी दयाल ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित न हो जायं तब तक मन और सूरत (चैतन्य और चेतना) पूर्णता के साथ ‘शब्द योग अभ्यास’ में रत नहीं हो सकते.
- तो अब समझना चाहिए कि जब जीव सतगुरु के सानिध्य में बैठ कर राधास्वामी दयाल की महिमा के वचनों को चित दे कर सुनेगा और समझेगा, तब ही उसके मन में संतो के वचनों के प्रति कुछ प्रतीत जाग सकती है. फिर जब उस प्रतीत के अनुसार अभ्यास कर के, अंतर में रस और राधास्वामी दयाल की दया को अनुभव करेगा, तब ही घट में सच्ची प्रीत जागेगी और प्रतीत बढ़ती जायेगी. इस तरह एक जिज्ञासु को अभ्यास का शौक एक दिन अभ्यस्त बना देता है.
..... यह मोक्ष नही, ‘मुक्ति’ की राह है
राधास्वामी सदा सहाय ...
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा ..... 62
एक मै और एक तू .....
दोनों मिले इस तरह, और जो तन मन मे हो रहा है, वो तो होना ही था .....
क्या मै कोई गीत गा रहा हूँ ?
नहीं, मैं तो भजन कर रहा हूँ. तन से चैतन्यता खिंच चुकी है और मन गगन पर चढ़ कर मगन है. तो यह मगन क्या कर रहा है ?
..... नाद सुन रहा है, अनहद . विशाल वट वृक्ष समा रहा है – अपने बीज में. देह से चैतन्यता गुप्त और मन चैतन्य लुप्त हो रहा है – आत्मचेतना की धार मे. वृक्ष अब सफ़र कर रहा है, अपने बीज की तहों में – उस मगज की ओर, जहां छिपी है चेतना इस वृक्ष रुपी देह की, जहां से फूटा था कल्ला कभी इस देह का.
पर क्यूँ ? क्यूँ कर रहा हूँ मैं यह यात्रा अपने अंतर की ?
..... क्यूँकी ख़ोज है मुझे अपनी, अपने वास्तविक स्वरुप की, मुझ अंश को अपने अंशी की. तो क्या मैं एक ‘आत्मा’ ही हूँ, ‘परमात्मा’ का अंश, जो खोज रहा है अपने अंशी परमात्मा को ? और पूरी हो गयी ‘यात्रा’....
जहां तक बात आत्मा की है, वह तो अंश परमात्मा का ही है.
कबीर साहब ने फरमाया है – “कहु कबीर इहु राम की अनसु .”
गोस्वामी तुलसी दास जी ने फरमाया –
“ईश्वर अंस जीव अबिनासी. चेतन अमल सहज सुख रासी..”
नानक देव ने भी यही कहा – “आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसी गुर बीचारा”
-आत्मा के अंदर परमात्मा है और परमात्मा के अंदर आत्मा है.
..... देह मे चैतन्यता व्याप्त है – मन के चैतन्य होने से, मन चैतन्य है – आत्मा की चेतना से और चेतना अंस है अपने अंसी परम चेतना का, जिसे तुम परमात्मा कहते हो. तो क्या यात्रा यहीं समाप्त हो गयी ? नहीं, ‘यात्रा’ तो यहीं से शुरू होती है. एक नवीन खोज के साथ, कि ‘चेतना’ कहां से आई ?
..... चेतना का स्रोत है ‘चेत’. – स्थूल देह व इन्द्रियों में ‘चैतन्यता’, सूश्म देह यानी मन व अंतःकरण में ‘चैतन्य’ और कारण देह यानि अंतर में ‘चेतना’ या कि आत्मा विधमान और व्याप्त है, जो कि परम चेतना परमात्मा यानी ब्रह्म – जो कि तीनो गुणों से न्यारा है, उसका अंस मात्र ही है. फिर शास्त्रों के अनुसार ‘ब्रह्म’ का भी तो जाग्रत और शैया काल होता है, सभी जीव-जंतु, देवी-देवता, भगवान्, ईश्वर-परमेश्वर सभी का होता है. इससे साबित होता है कि ‘परम आत्मा ब्रह्म’ भी काल खंड की उस व्यवस्था के अधीन ही है जिसे तुम महाकाल कहते हो और जाग्रत व सुप्त अवस्थाओं के कारण स्थिर नही है. ‘चेत’ तो महाकाल की परिधि से भी परे, अनंत के क्षेत्र में सदा एकरस स्थिर है.
हाँ, संत जगत में जीव को ‘चेताने’ ही आते हैं, क्यूँकी जगत में हर चेतना यानी आत्मा वास्तव में अचेत ही है – क्यूँकी वह ‘चेतना’ है – ‘चेत’ नहीं.
..... और संत वही जो चेते हैं.
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा .....61
यह मै ही हूँ...
जो मुझे मालिक से मिलने नहीं देता .
कभी कभी मन विचार करता है की जब मालिक हर देह मे मौजूद है, तो फिर मुझे अपने भीतर नज़र क्यू नही आता ? भीतर ऐसी कौन सी रुकावट है ? और कैसे दूर हो सकती है ?
“एका संगती इकतु ग्रही बसते मिली बात न करते भाई .
अंतरी अलखु न जाई लखिया विची परदा हाउमें पाई ..”
..... अर्जुन देव जी .
मन और आत्मा दोनों ही इस देह रुपी घर मे इकट्ठे ही रहते है पर कभी आपस मे मिलना नही होता . और जब मिलना होगा वही क्षण मन के फिरने का होगा, तब जगत सुहाना न लगेगा. यही जीते जी जगत से मुक्ति का क्षण है.

“हरी जीउ सचा ऊँचो ऊँचा हाउमें मारी मिल्वनिया.”
..... अमर दास जी .
परमात्मा सच्चा और ऊँचे से ऊँचा है पर जब तक हम अपने भीतर से अहं की रुकावट को दूर न करेंगे, परमात्मा से हमारा मिलना न हो सकेगा.

“दादू दावा दूर का, बिन दावे दिन काट.
केते सौदा कर गये, पंसारी के हाट .. “
..... दादू साहेब .
हे दादू , दुनिया में किसी भी चीज़ का दावा न कर . इस दुनियां में तेरा कुछ भी नहीं. जो कुछ भी है उस परमात्मा का ही है. जगत के ये पदार्थ न कभी किसी के हुए हैं , न हो सकते हैं. यह हमारा मोह और अहं के बंधन ही हैं जो इनको अपना समझने को मजबूर कर देते हैं .

कबीर साहेब फरमाते हैं .....
“ काम तजे तो क्रोध न जाई , क्रोध तजे तो लोभा .
क्रोध तजे अहंकार न जाई , मान बढ़ाई सोभा .. “
जगत के पदार्थों के प्रति यह हमारा मोह ही है जो हमे बार-बार देह के बन्धनों में खीच लाता है और अहं भाव मैं डुबो देता है कि यह तेरा है, सब कुछ तेरा है और फिर काम, क्रोध, लोभ, वासनाएं आदि, धीरे-धीरे सभी विकारी दूत मिल कर जीव को भींच लेते हैं.
..... मन फिरे तो कैसे ?
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय .
जो मन खोजा आपना , मुझ से बुरा न कोय ..
कबीरा ..... मुझ से बुरा न कोय .

राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा ...60
.....और ध्यान नाम का
इस अभ्यास को सूरत शब्द योग कहा गया है। मतलब यह कि सूरत आत्म तत्व को शब्द की धार के साथ जोड़कर उपरी मंडलों में चढ़ाना। ध्यान रहे कि हर आत्मा सूरत नहीं होती। सूरत का अर्थ है, शुभ में रत । तो जब जीव का आत्म तत्व यानी उसका चेता, चेत कर धुन धार को अंतर में सुनता है, तब यही स्थिति सूरत की है ।और शब्द का अर्थ किसी आवाज या ध्वनि से कतई नहीं है, बल्कि धुन धार से है ।क्योंकि जहां धार जारी और प्रकट है वहां उसके साथ ध्वनि भी होती ही है । धार तो नजर नहीं आती पर उसकी पहचान ध्वनि के होने से ही होती है । जैसे चैतन्य आत्मा हर इंसान में होकर भी नजर नहीं आती पर उसके बोलने से पता चलता है कि इंसान में चेतना है । इसी तरह कुल रचना में समस्त कार्रवाइयां चेतना की शब्द धार से ही हो रही है और चैतन्यता व्याप्त है। तो जहां शब्द गुप्त है वहां चैतन्य भी गुप्त ही है ।
इसी तरह यह ध्वनि अनहद नाद की, जो कि हर अंतर में गाज रही है और बिना मदद किसी जुबान या बाजे के हर वक्त निरंतर जारी है ,कुल मालिक दयाल के दरबार से जारी और आ रही है। यह धुन धार रास्ते के हर एक स्तर, मंडल और चक्रों में ठहर कर और फिर उस स्थान से जारी होकर कुछ बदलाव के साथ लगातार ऊपर से नीचे के मंडलों और हर एक स्तर पर जारी है। इस तरह कुल रचना और हर देह में व्याप्त है ।
जो कोई जिज्ञासू इस शब्द का भेद और पता यानी स्तर दर स्तर जारी शब्द का भेद किसी भेदी से जानकर और अपने पूरे मन और चित्त से इस नाद को सुनता हुआ आंखों के रास्ते से चलना शुरू करें वही धीरे-धीरे दिन-प्रतिदिन उस पद के जहां से की निचले मंडल का पहला शब्द जारी है उसके नजदीक पहुंचता जाएगा और वहां से दूसरे शब्द को पकड़कर चलेगा। इस तरह मार्ग की सभी मंजिलों को तय करता हुआ एक दिन कुल मालिक दयाल के देश में पहुंच जाएगा ।
मालिक कुल अरूप और विदेह है ।उसका ध्यान किसी भी तरह या तरीके से कोई भी नहीं कर सकता पर धुन धार की मदद से जो कि कुल मालिक के चरणों से जारी है और शब्द चैतन्य रुप में कुल रचना और देह में व्याप्त है । उसका ध्यान करते हुए अभ्यासी एक दिन चरणों में अवश्य पहुंच सकता है। शब्द चैतन्य ही मालिक कुल का प्रथम प्रकाटय है । जैसा कि मालिक कुल अरूप है सो शब्द भी अरूप ही है, पर ध्यान के अभ्यास में बहुत भारी मदद देता है यानि ध्याता को उसके इश्ट के चरणों में पहुंचा देता है।
सतगुरु वक्त और पूरा जोकि नाम रूप और शब्द रूप है , इसीलिए सबसे पहले उसी के स्वरूप का ध्यान और ज्ञान आवश्यक है। तब ही जीव के भीतर का शब्द खुलता है । शब्द के बिना खुले तुम जिस रचना की कल्पना मात्र ही गढ़ते हो, सतगुरु पूरा उस समस्त रचना की वास्तविकता का रचनाकार और करतार है । जो इस बात में जरा भी संशय रखा तो तुम कभी भी सतगुरु पूरे के वास्तविक स्वरुप से कभी परिचित नहीं हो सकते। इसके सिवा अन्य कोई भी रास्ता या तरीका इस कलयुग में इतना आसान निश्चित और सहज नहीं है । यह वह मार्ग है जिस पर एक 5 साल का बच्चा और 80 साल का बूङा भी समान रूप से सहज ही चल सकता है। क्योंकि चैतन्य धुन धार , जोकि अपने में आत्माओं का भंडार ही है , इससे बढ़कर अन्य कोई धार रची ही नहीं । यही धुन अन्य सभी धारो की करता और उन्हें चैतंयता प्रदान करने वाली है। प्राण की धार भी स्वयं आत्मा यानी जान की धार से ही चैतन्य है। इस तरह सूरत शब्द योग से बढ़कर ना तो कोई जुगत रची गई ,ना है और ना ही हो सकती है।
यहां प्रश्न उठ सकता है कि, क्या कलयुग से पहले या संत मार्ग को प्रकट करने से पहले , अन्य पिछले युगों में जीव की मुक्ति नहीं होती थी?
हां , नहीं होती थी और ना ही किसी की हुई । अब से पहले सभी योग्य जीव, मोक्ष पद को ही प्राप्त होते रहे, पर सच्ची और पूरी मुक्ति किसी की भी नहीं हुई "मुक्ति" और "मोक्ष" के अर्थों में एक भारी अंतर है। जिसे आगे कभी स्पष्ट करूँगा।
परम पुरुष पुरन धनी राधास्वामी दयाल का अवतरण , समद हुज़ूर स्वामी जी महाराज ने फरमाया है कि "अबकी सब्दको ऐसे ही तारेंगे", परम पुरुष के कहने का अर्थ यह रहा और है कि कलयुग में और कोई करनी काम ना आएगी , केवल सतगुरु पूरे के स्वरुप का ध्यान, नाम का स्मरण और ध्यान नाम का ही एक मात्र जुगत है । मोक्ष की जुगत तुम से बन नहीं सकती सो कलजुग में रहकर जीव की मुक्ति की मात्र यही युक्ति है।
जिसका की भेषी व्याख्याकार अपने ही मतलब को साधने के हित में, यह अर्थ समझा देते हैं कि , बस पर्चा भर कर हमसे नाम दान ले लो ,रजिस्ट्रेशन करवा लो , आई कार्ड बनवा लो, नाम रटो या न रटो -पर सतगुरु की सेवा में कमी ना करो ,
आयोजनों में आते रहो क्योंकि तुम्हारे लिए यही उचित है । अभ्यास या भजन में बैठने की कौन कहे ,सतगुरु तुम्हारे सर्व समर्थ हैं, तुम चाहे जगत में कुछ भी करो-" अब की सबको ऐसे ही तारेंगे"।
जिस किसी को जगत से मुक्ति और मालिक कुल में मिलने का सच्चा शौक और पूरी लगन हो, वह कुछ अरसा बिना नागा रोज़ भजन यानि अभ्यास मे बैठे तो मालिक की मौज से सभी प्रमाण उसे अंतर में सवतः ही मिलने लगेंगे । यह करनी का मत है, विद्या ,बुद्धि या कोई चतुराई इसमें कहीं भी साथ ना दे सकेगी । बुद्धि का प्रयोग करने वाले तो अपनी विद्या के अहंकार में संतो के वचन में भी पक्षपात करते और अपनी बुद्धि से तौलते रहे और इस तरह कोरे के कोरे ही रहे । उन्हें मालिक का या उससे मिलने के रस्ते और जुगत का पता ना लगा, सिर्फ बातें ही बनाते रहे और बना रहे हैं। उन्हें यही लगता है कि एक वे ही है जो सब कुछ जानते हैं। पर हकीकत में असल भेद कुल मालिक और जीव यानी सूरत और शब्द की धार से बिल्कुल अनजान और अचेत हैं।
सो जो सच्चे खोजी है और किसी मत विशेष में उनका बंधन नहीं है और ना ही अपनी विद्या और बुद्धि के पूरा होने का अहंकार ही है कि सब कुछ जान और समझ लिया है, वे ही जीव् राधास्वामी मत या संतमत के अनुसार सूरत शब्द योग अभ्यास के योग्य ठहर सकते हैं।
- यही है सतगुरु के स्वरुप का ध्यान ,नाम का सिमरन और ध्यान नाम का।
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा ....59
सिमरन नाम का ....
इसमें दो बातें मुख्य हैँ।एक तो नाम और दूसरा सिमरन । पहले नाम से परिचित होना आवश्यक है, तभी तो सिमरन बन पड़ेगा। वरना तो वही रटते रहोगे जो तुम्हें रटाया जा रहा है।
हाँ, मैं तुमसे स्पष्ट कह रहा हूं, राधा स्वामी नाम वर्णात्मक है धनात्मक नहीं और पांच नाम का जो उपदेश है , वह भी वर्णात्मक ही हैं, इनमें से कोई भी ध्वनात्मक नहीं है , क्योंकि इन सभी नामों को लिखा पढ़ा ,बोला और सुना जा सकता है । चैतन्य तो धुन है। चैतंय की धुन को ना तो इंद्रियों से सुना जा सकता है , न वाणी से उच्चारण किया जा सकता है और ना ही किसी वाध यंत्र द्वारा पैदा ही किया जा सकता है। यह तो अनंत निरंतर और अनामी है । जो हर जीव के अंतर में सवतः ही गूंज रही है और मात्र मनुष्य देह में ही वह द्वार और मार्ग है जो तुम्हारी देहिक चैतंयता को मानसिक चैतन्य फिर चैतन्य को अंतर चेतना से जोड़ सकता है।
मालिक कुल तो शुद्ध चेत ही है और समस्त चेतना, इस परम चेत के होने से ही है। सतगुरु जो पूरा है, वह जीव को चेताना ही जगत में आता या भेजा या जगत के जीवो में से उठाया जाता है। चेताने का अर्थ यही है कि जीव की अंतर चेतना को,कुल मालिक अनामी के परमचेत से जोड़ने के मार्ग को लखाना, जतन को बताना और अधिकारी जीव को दया मेहर की सामर्थ से सत्य मार्ग पर आगे बढ़ाना। यही है सत्य मार्ग या संतमत । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है , वह मन के रंजन के सिवा कुछ नहीं।
तो किस नाम से सिमरन करोगे तुम मालिक कुल अनामि का?
तुम्हारे विचार जो कि वर्णात्मक होते हैं और मन में उठते हैं , तो तुम्हें मन को साधने और स्थिर करने के लिए वर्णात्मक नामों की जरूरत पड़ती है । जबकि अनामी की आराधना अंतर में भाव से की जाती है और अंतरयात्रा किसी भी भाषा या वर्णात्मक शब्द के आसरे नहीं होती, वह तो बस अंतर भाव से ही होती है और यह भाव मात्र मनुष्य देह में होकर ही होता है । चारों खानों की अन्य किसी भी देह में अंतर द्वार होता ही नहीं।सतगुरु पूरे इसी द्वार को खोलने आते हैं। तब ही कोई विरला चेतकर अधिकारी बन पाता है ।वरना तो पैदाइश के बाद सभी के भीतर मन की मैल की परतो के चलते चलते यह द्वार बंद हो ही जाता है। इस तरह पांच नाम की रटन उस अनामी तक पहुंचने के लिए, मन की, एक तरह से "वर्मा अप एक्सरसाइज" ही है । अनामि का भला क्या नाम ? तो" राधा स्वामी दयाल "उस अनामी की वर्णात्मक अभिव्यक्ति ही है।
राधा आदी सूरत का नाम स्वामी शब्द निज धाम। सूरत शब्द और राधास्वामी, दोनों नाम एक कर जानी।।
इससे स्पष्ट है कि "राधास्वामी "एक नाम है, अनामी नहीं । दरअसल "राधास्वामी" ऐक स्थिति का नाम है।
वह स्थिति जब की राधा यानि सूरत, उस अनामी में ,जो कि सबका स्वामी , आदि चेत , स्वयं को चेतना रूप शब्द में प्रकट करता है- समा जाती है।
यही चेतना आदि में सतलोक से धारा बनकर उतरी । जो की अति निर्मल होने से "धुन धार" के रुप में प्रकट हुई । यही धुन धार -आदि शब्द सत शब्द और सच्चा सत नाम है । जिसे बड़भागी कोई विरला ही अंतर में सुनता है । बाकी सभी ब्रह्माण्डीय शब्द है। जैसे जैसे इस अति निर्मल धारा में ब्रमांडीएमाया का मल मिलता गया, स्तर दर स्तर इसकी गूंज शब्द में और शब्द दढता में परिवर्तित होता चला गया। जिसे योग शास्त्रों में "नाध" कहा गया है । पंतजलि योग में दस प्रकार के नादों का वर्णन मिलता है और तुम्हें दसवें द्वार के पार जाना है। सभी नादो की ब्रह्माण्डीय इस्तर व चक्रों के अनुसार एक तय सीमा होती है उसके आगे पीछे नाद बदल जाता है । हम जिस भी वाणी, वर्ण या भाषा को प्रकट करते हैं उसके केंद्र में यही चेतना की धारा-" अनहद नाद" ही है। जो की विभिन्न आयामों, स्तरों, चक्रों व् तत्व आदि में लिपटी अंततः देह में प्रकट होती है।
चेतना रूपी शब्द की इसी धारा को अपने भीतर खोजना और फिर इसी चैतन्य धार को , जिसका प्रवाह जगत की ओर हो रहा है , उसे उलटा कर उसके केंद्र और फिर मूल स्रोत की दिशा में बड़ाना ही "सूरत शब्द अभ्यास" या राधास्वामी मत के अनुसार अभ्यास है । मुख्य यही है कि यह चेतना की धारा के जोकि हर अंतर में स्वतः ही गाज रही है । जब उलट कर अपने मूल यानी स्वामी की दिशा में बढ़ती है तब यही "धारा "से "राधा" बन जाती है। और जब राधा-स्वामी से जा मिली, तब हो गई "राधास्वामी"।
पुर प्रश्न अभी वही है कि अनामिका नाम क्या? और सिमरन किस नाम का ?
तो अब कहता हूं और बड़े स्पष्ट रुप से कहता हूं कि -कुल मालिक अजात अनामि का नाम चेतना की गुजं ही है, जो कि हर अंतर में विद्यमान है । तो सिमरन भी इसी नाम का करना है।
सिमरन का अर्थ, किसी विशेष वर्ण या वर्णात्मक शब्दों को दोहराना या रटना कतई नहीं है । सिमरन एक अपब्रह्नश है जिस का शुद्ध है "समरण" यानी याद करना। इस तरह हर अभयास को उचित है कि हर वक्त सतनाम यानी चेतना की धून धार को अंतर में याद रखे- लो हो गया सिमरन नाम का। जिसे हर वक्त याद करोगे उससे मिलने की तडप खुद ब खुद पैदा हो जाएगी, तो उसे खोजोगे भी। खोजोगे तो पाओगे भी और जब पा लिया तो हो गई राधा- स्वामी की।
राधास्वामी जी ।
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा -58
मैं चेता , में चतुर सुजान,
तू चेता, तू मुझसे महान।
अचेते मनुष्य की हद मन है। मन सभी विधाओं का घर है। हर इल्म का फनकार बना देता है । मनुष्य चांद पर कदम रख देता है और सागर की अतल गहराईयों में गोता भी लगा आता है। फिर भी अचेत है । अपने मूल ,आत्म तत्व से अनजान , बेसुध ,भूला हुआ , अपने चेते में नहीं, सो अचेत है । जब तक अपनी आत्मा में न धंसे , अपने अंदर के प्रकाश को ना देखे, बस अंधेरे में ही टटोलता फिर रहा है और खोज रहा है "गॉड पार्टिकल"।
परम पुरुष पूर्ण धनी समद राधा स्वामी दयाल का नर देह में अवतरण हुजूर स्वामी जी महाराज ने सभी जीवो के उद्धार के निमित्त एक बीज मंत्र फरमाया है की- कलयुग में और कोई करनी ना बनेगी ,सिर्फ सतगुरु के स्वरुप का ध्यान, नाम का सिमरन और ध्यान नाम का यही काम आएगा। यह एक फार्मूला है पूरे संतमत और उसके सभी सिद्धांतों का। जिसे डिकोड किए बिना, किसी भी अभ्यासी का भजन में बैठ पाना और टिक पाना कतई संभव नहीं।
इस फार्मूले के तीन मुख्य भाग है।
पहला -सतगुरु के स्वरुप का ध्यान। क्या तुम कर पाते हो? अधिकांशता नहीं। तुम सिर्फ छवि का ध्यान करते हो। क्योंकि स्वरुप से तो तुम्हारा परिचय ही नहीं हुआ ।कोई विरला प्रेमी भक्त ही सतगुरु के स्वरुप को देख पाता है और वही उसका ध्यान कर पाता है ।तुम्हारी कार और ड्राइंग रूम की दीवारों पर सजी तस्वीरें इस बात का सबूत है कि तुम सिर्फ छवि के आगे पीछे ही डोलते रहते हो और अपने मन में अहम पाल बैठे हो कि तुम्हें सब कुछ मिल गया ।जबकि आत्मिक दृष्टि से कोरे के कोरे ही हो । तो जरूरी है कि पहले स्वरुप से परिचित हो लो , ध्यान तो बाद में आएगा ।बिना सच्चे प्रेम प्रतीत और भक्ति के जीव सतगुरु के स्वरुप से कभी परिचित नहीं हो सकता। जगत का प्रेम सच्चा नहीं है, क्योंकि यह शारीरिक और मानसिक होता है।

सच्चा प्रेम पुत्र को वनवास की आज्ञा देकर दुखी नहीं होता बल्कि आशीर्वाद देता है कि पुत्र अपने समस्त कर्तव्य और दायित्व का पालन करना। सच्चा प्रेम किसी के उलाहना देने पर आहत होकर अपनी गर्भवती पत्नी को धोखे से हिंसक पशुओं का आहार बनने के लिए जंगल में नहीं छुड़वाता, यह त्याग नहीं बल्कि उदंडता पूर्ण घोर कायरता है और गर्भस्थ शिशु की हत्या का प्रयास या हत्या धर्म शास्त्रों के अनुसार ब्रह्म हत्या ही मानी गई है ।

तो सच्चा प्रेम क्या है?
सच्चा प्रेम आत्मिक होता है , यह मानसिक विचार नहीं पर आत्मिक भाव होता है , यह मन में नहीं पर हृदय में प्रकट होता है , यह वाणी या कर्मों द्वारा योजना बनाकर नहीं बल्कि स्वभाव से व्यवहारिकता में प्रकट होता है ।

संत अपनी बानी से पहचाना जाता है ,बाने से नहीं । तो जब भी तुम्हारा भाग्य तुम्हे सतगुरु के सामने लायेगा, तुम्हारे हिर्दय के तार स्वतः ही बज उठेंगे । तुम्हारी आत्मा स्वतः ही ललक कर लपक पड़ेगी उनकी ओर ।तुम्हारा मन मस्तिष्क लाख रोकेग तुम्हें , तरह तरह के विचार उठाएगा , की क्यूं दीवाना हुआ पड़ा है ? ऐसा क्या है उसमे ? फिर भी ना रुके तो तरह-तरह की परिस्थितियां पैदा करेगा कि किसी तरह तुम्हारे कदम रुक जाए । तुम्हारे भीतर तुम्हारी सामर्थ और स्थिति का अहम ,जीवन की उन्नति के विचार और अपनों के प्रति मोह पैदा कर देगा और तुम अपने जीवन में उन्नति की चाह लिए लोभ, मोह और अहंकार की चादर मे लिपटे सतगुरु के सामने खड़े होगे, पर कुछ ना मिलेगा । हा, संत सदगुरु वक्त से तो ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा ,क्योंकि प्रेम तो तुम्हारे हृदय में उपजा ही नहीं तुम तो स्वार्थ और अहम के भांडे भरकर पहुंचे हो ।सत गुरु पूरे का होना, जगत और जीव के उद्धार के लिए होता है ना की जीवन की उन्नति के लिए, जब जीव का उधार होता है तब जगत का भी होता है और जीवन स्वतः ही उन्नती के शिखर पर होता है , न की भोगवादिता के ।

सतगुरु की ओर बढ़ने से पहले अपने हृदय को टटोलना जरूरी है । जीवन तो काल का क्षेत्र है, जो कि समय ,परिस्थिति व वातावरण और आयु से बंधा है। यह मुकत नहीं है और देह में तुम्हारा मन काल की ही नुमाइंदगी करता है अतः मन पर वश आवश्यक है । मन का मैल सतगुरु के सानिध्य में ही कटेगा। tv ,वीडियो या cd सुनकर नहीं ।सत गुरु शब्द स्वरुप है और उनका संग ही सच्चा सत्संग। इस सत्य के संग से जैसे जैसे तुम्हारे मन का मैल करता जाएगा वैसे वैसे बोझा भी हल्का होता जाएगा और हृदय में सतगुरु के प्रति सच्चा अमिट प्रेम भी पैदा होता और बढ़ता जाएगा। इस तरह एक दिन भक्ति पूर्ण होकर तुम अपने सतगुरु में एक हो जाओगे ।यही एक भक्त और सद्गुरु का एक रुप होना ही पूर्ण समर्पण है। इस तरह तुम सतगुरु के वास्तविक स्वरुप से परिचित हो जाते हो, जो वास्तव में तुम्हारे भीतर ही कहीं छुपा है । जरूरत है सिर्फ उस पर चढ़ी विकारों की मैल को उतारने की, जिस दिन यह उतर गई , तुम्हारे भीतर का शब्द स्वतः ही प्रकट हो जाएगा और अंतर प्रकाश से भर जाएगा ।अभी भेद सिर्फ इतना है कि तुम अचेत हो और सतगुरु सचेत ।
सतगुरु और पारस में बड़ो अंतरो जान
पारस लो कंचन करे .....
और सतगुरु कर ले आप ।
यही है स्वरूप का ध्यान, जो संत सतगुरु वक्त से सच्चे प्रेम प्रतीत और भक्ति के बिना सिर्फ एक धोखा ही है ।
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा 56
भीतर का सच........
भारतीय योगियों द्वारा परकाया प्रवेश के विज्ञान को तर्कवादी अतिरंजित कल्पना कह कर टाल देते हैं। दरअसल मनुष्य के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके सूक्ष्म शरीर की महत्ता अकल्पनीय रूप से कई गुना अधिक होती है। अंतर्यात्रा का मार्ग कहीं बाहर भटकने से नहीं मिलेगा यह यात्रा तो अपने भीतर जाकर ही हो सकती है इसकी शुरुआत तन को साधने से होती है तन को साधने का अर्थ प्राणायाम या कोई आसन आदि नहीं है तन को साधने का अर्थ है -अनावश्यक भौतिक क्रियाकलापों में लिप्त ना हो ना । ताकि देह की ऊर्जा जोकि भीतर जाने के लिए आवश्यक है वह बाहर व्यर्थ ना हो अपने भीतर जाने पर सबसे पहले हमारा सामना हमारे मन से होता है कि यही है हमारे भीतर की दे जिसे सुक्ष्म शरीर कहां गया है इस सूक्ष्म की सामर्थ स्थूल देह की तुलना में अत्यधिक होती है जीवनी और मंकीस समर्थ को एक करके ही अंतर द्वारे को खटखटा सकता है मैं और सतगुरु पूरे की दया मेहर से के अंतर में प्रवेश भी कर सकता है जिसके कारण दे कहा गया है जीवन के सत्य दे और ब्रम्हांड की अंदरुनी संग रचना विज्ञान की विधाएं और क्रिया का ज्ञान जिसे दे और माध्यम से संभव है वह प्राण महसूस में शरीर ही है तो एक अंतर यात्री विद्या अभ्यास इसके लिए उचित है कि वह अपने मन वह उसकी सामत से भली भांति परिचित खोलें प्रशांत महासागर में एक दीप है ,समाय। इसके निकट एक जीव पाया जाता है जिसे "पैलोलो" कहते हैं ।यह पानी में चट्टानों के बीच घर बना कर रहता है। यह साल में सिर्फ अक्टूबर और नवंबर महीनों के उन दिनों में जब चंद्रमा आधा और ज्वार अपनी छोटी अवस्था में होता है यह जीव अंडे देने के लिए पानी की सतह पर आता है और वापस लौट जाता है तो इसमें विशेष क्या है ? विशेष यह है कि, पैलोलो जब अपने घर से चलता है तब अपना आधे से अधिक शरीर घर पर ही छोड़ आता है अंडा देने और तैरने के लिए जितना शरीर आवश्यक होता है इतने से ही यह सत्य पर आने का अपना अभिप्राय पूरा कर लेते है । इस बीच उसका छोड़ा हुआ शेष शरीर निष्प्राण निष्क्रिय पड़ा रहता है । लौट कर पैलोलो फिर से उस छोड़े हुए अंग को स्वयं से जोड़ लेता है और पूरे शरीर में प्राणों का संचार होकर फिर से रक्त प्रवाह व अन्य क्रियाएँ प्रारंभ हो जाती है।
यह एक उदाहरण है जो हमें बताता है कि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक उन्नति शरीर के बिना भी सुचारु रख सकता है । भोतिक शरीर से तो हमारा संबंध अधिक-से-अधिक सौ या कुछ वर्षों का ही है, पर सूक्ष्म शरीर हमारे जीवन धारण करने की प्रक्रिया से लेकर मुक्ति के द्वार तक साथ रहता है। एक शिशु जब गर्भावस्था में होता है तब वह सांस नहीं लेता, तब भी उसके शरीर को ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा पहुंचती और विकास की गति चलती रहती है। उस समय बच्चे की नाभि का संबंध माँ की नाभि से बना रहता है ।नाभी सूर्य का प्रतीक है। प्राणायाम द्वारा तस्तुतः प्रयाणीनि का ही विकास किया जाता है। जिसका चरम विकास ध्यान धारणा और स्मधृष्ट अवस्था में मोक्ष पद की प्राप्ति ही है। प्राणायाम स्वयं में प्राण शक्ति को सूर्य के व्रहद प्राण में घुलाकर स्वयं आधशक्ति मे परिणत हो जाना है । जोकि अंतर्यात्रा का एक पड़ाव मात्र ही है।
स्थूल देह में ना रहकर भी पुराणों में गति बनी रहती है। प्रसिद्ध तिब्बती योगी श्री टी. लाभ सांग रंपा ने अपनी पुस्तक "यू फॉरएवर" में एक घटना का जिक्र किया है कि फ्रांस में क्रांति के दौर में एक देश-द्रोही का सर काट दिया गया। धढ़ से सरके अलग हो जाने पर भी उसके मुंह से स्फुट बुध्बुधहट की प्र
क्रिया होती रही, ऐसा लगा जैसे वह कुछ कहना चाह रहा हो । इस घटना को सरकारी अधिकारियों ने रिकॉर्ड में दर्ज करवाया ,जो कि अभी तक मौजूद है ।
बंदा बहादुर युद्ध के मैदान में शीश कट जाने पर भी धढ़ से युद्ध रत रहे।
अमेरिका के कर्नल टाउन सेंट ने प्राणायाम के अभ्यास से प्राणमय सूक्ष्म शरीर के नियंत्रण में सफलता प्राप्त की और अदभुत प्रयोगों का प्रदर्शन किया। एक बार सैकड़ों वैज्ञानिकों और साहित्यकारों से भरे हॉल में उन्होंने प्रदर्शन किया । वह स्टेज के एक कोने में बैठ गए और ब्लैक बोर्ड पर एक चौक बांध दी गई । इसके बाद उन्होंने अपना प्राणमय सुक्ष्म शरीर अपनी स्थूल काया से बाहर निकालकर , अदृश्य शरीर से ब्लैक बोर्ड पर लोगों द्वारा बोले गए शब्द लिखें वह गणित के कुछ सवाल हल किए ।बीच बीच में वह अपने शरीर मे वापस आकर उपस्थित जन समूह को वस्तुस्थिति समझते जाते थे। इस प्रदर्शन ने लोगो को यह सोचने पर विवश कर दिया की मनुष्य शरीर जीतना दिखाई देता है, यह वहीँ तक सयिमित नहीं है बल्कि वः देह जो अदृश्य है वह इस देह से कही अधिक गुना समर्थ हैं। ऐसे ही प्राण माय ऊर्जा क़े कई प्रयोगों का प्रदर्शन प्रसिद्ध अमेरिकी अणो वैज्ञानिक श्रीमती ज.सी ट्रस्ट ने भी किया है ।
हम सभी जानते है की कबीर साहब की मर्त्य देह गुलाब के ताज़े फूलों मे परिवर्तित हो गयी थी और मीरा की तो देह ही नही मिली। हजरत इसा सूली पर मृत्य घोषित किए जाने के बाद 40 दिन तक अपने शिष्यों के मध्यम सुक्ष्म व् स्थूल देहो में प्रकट होकर अंतरज्यान की शिक्षाओ से परिचित करवाते रहें। फिर सोचो कारण देह की सामर्थ क्या होगी ? इन सभी अनुभवो को एक शब्द अभ्यासी अंतरयात्रा की स्थिति मे सहज ही प्राप्त करता है। जोकि प्राणों की धार पर नहीं पर शब्द की धार के आसरे आगे बढ़ता हुआ परमचेत की धारणा को द्रढ़ करता हुआ हर नाम से आगे बढ़कर अनामी में लीन हो जाता है ।
राधास्वामी जी ।
राधास्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी हेरिटेज ।
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा 55
तो चलें कुछ भीतर........
कहते हैं कि योग साधनाऔ से अपने भीतर अद्भुत क्षमता जगाई जा सकती है। चमत्कार, सिद्धि, मनुष्य से देवता बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। तो क्या है हमारे भीतर ? योगेश्वर कहते हैं अहम ब्रम्हास्मि, मालिक कहता है तुझ में भी मै हूँ और मन यानि जीव का अहम कहता है कि मैं ही सब कुछ हूं । कुल शास्त्रों का सार यही है कि बिना अपने भीतर झांके जीव सयंम से परिचित नहीं हो सकता। दिखाई देने वाली इस देह से हजारों लाख गुना अधिक सामर्थ छिपी है हमारे भीतर ना दिखाई पड़ने वाले शरीर में। जिसका कारण छुपा है उसके भी भीतर कारण शरीर में। बाहर दिखाई देने वाली स्थूल देह का केंद्र मस्तिक्ष होता है, ना दिखाई पड़ने वाली सूक्ष्म देह का केंद्र जीव का मन होता है और उसके भी भीतर कारण देह के केंद्र में जीव का चित होता है । संत जगत में जीव के इसी सोए हुए चित को जगाने आते हैं। चेताना ही संतों के लिए मालिक की आज्ञा , दैहिक उद्देश्य, मानसिक लक्ष्य , व्यहवारिक कर्त्तव्य और कार्मिक कर्म होता है ।
पिंड यानि जगत और देह मे, काल और माया का रचा हुआ यह जाल अति भरी है । जिसे बिना शब्द डोर को थामे , पार नहीं किया जा सकता । यह जाल , जीव की प्रकृति, प्रवति ,आशा, विश्वास और इच्छा के अनुसार तमाम तरह की तरंगे उत्पन्न करता रहता है। फिर यही तरंगे बुद्धि के माध्यम से मन के विचारों के साथ मिलकर व्यवहारिक रूप से जीव की वाणी और इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रुपों में प्रकट होती रहती हैं। जीव जगत में अचेत ही आता है और अधिकांश अचेत ही चला जाता है। जीवन भर भौतिक विकास को ही जीवन का लक्ष्य मानकर अपने ही भीतर के इस मकड़ जाल में उलझा कभी सुख कभी दुख के सागर में डूबता - उतराता रहता है। काल और माया इस जाल का ताना-बाना है इस प्रकार अचेत जीव कभी भी बुद्धि की सीमाओं को लाँघ ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाता जब तक कि सतगुरु वक्त उसे ना चेताये । जो कि सयंम चेत और शब्द स्वरुप है। हकीम लुकमान की तस्वीर टांग लेने से घर की बीमारी दूर ना होगी । भय और भ्रम जो कि काल के दो पंजे हैं वे जीव के जीवन को रात दिन माया के मोह में फंसा कर सुख-दुख के माध्यम से चूहों के समान लगातार कुतरते जाते हैं इस प्रकार जीव का ध्यान जगत की माया और उसके मोह में फंसा निरंतर बाहर ही भागता रहता है।भीतर तो कभी झांकता भी नहीं पर जीव जब चेत जाता है तब अचेतावस्था के सभी भर्मो, भय, आशंका, संशय ,सुख-दुःख, योजनाओं , जिज्ञासा और प्रश्नों का उत्तर स्वतः ही पा जाता है।

भर्मित और भयभीत जीव पिंजरे में कैद उस पंछी के समान है जिसने अपनी सीमाएं खुद ही तय कर ली है । जिसे वह अपना धर्म, संप्रदाय या पन्थ समझकर भेड़ों के झुंड में चल पड़ता है और उसका अपना कोई मत नहीं होता । तो वह कभी मुक्त भी नहीं होता। भौतिक सुख को ही जीवन का लक्ष्य मानने वाला कभी भी निर्मल आनंद की अनुभूति नहीं कर पाता। बौद्धिक लक्ष्य साधने वाला कभी भी ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाता । मोक्ष को ही अंतिम पद मानने वाला वास्तव में कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। धर्म, संप्रदाय और पंथो की सीमाओं से भीतर सुखी और संतुष्ट जीव कभी भी मुक्त आकाश में लीन होने कि अनुभूति से तृप्त नहीं हो सकता। सीमाओं को लांग कर जाने का भय और सीमाओं को ना लांग पाने का भ्रम उसे कभी भी निर्मल आनंद और ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करने देते । इस प्रकार अचेता जीव कभी भी अपने भीतर छिपी असीम संभावनाओं ,क्षमताओं और सामर्थ से परिचित नहीं हो पाता, अपरिचित ही रह जाता है- अपने ही ना दिखाई पड़ने वाले सूक्ष्म और उसके कारण रूपों से। परम पुरुष पूरन धनी हुजूर स्वामी जी महाराज ने बार-बार चेताया है कि सतगुरु पुरे को खोजो ,खोजो अपने सतगुरु वक्त को. ....
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

अंतर्यात्रा 54
नानक दुखिया सब संसार.....
हर व्यक्ति को अपने जीवन में सुख की इच्छा होती है । दुख कोई नहीं चाहता लेकिन मिलता है उसे दुख ।संसार अज्ञान और दुखों से भरा है ,इसे छोड़ना है तो उसे अपने वास्तविक स्वरुप को जानना होगा। श्रुति कहती है कि जब उस ब्रह्म ज्ञान को जान लोगे तो कुछ करने की जरूरत नहीं, भला क्यों ? जीव को जब ईश्वर का ज्ञान हो जाता है तब जीव मुक्त नहीं मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ईश्वर जैसा सुख राशि है वैसे मैं भी हूं, इस तरह जीव को जब तक यह ज्ञान नहीं होता तब तक वह सुख ज्ञान से वंचित ही रहता है । सुख शरीर का नहीं पर मन का है जीव को ज्ञान की भूख है वह उसे पाने के लिए बचपन से ही घर से विद्यालय और विद्यालय से विश्वविद्यालय तब ज्ञान की भिक्षा मांगता फिरता है, वह सुख की चाह में हाथ पसारे रहता है, पत्नी पुत्र आदि से सुख मांगता है मगर वह यह बात नहीं जानता कि उन सबको भी वही चाहिए, इससे वे भी वंचित है वे भी सुख के लिए औरों के सामने हाथ पसारे खड़े हैं सभी जीव सुख के लिए औरों के सामने हाथ पसारे हैं और दरिद्र हैं , फिर इस जीव को कौन सुख की भिक्षा देने में समर्थ है ? जिनको उस ईश्वर सुखसागर की प्राप्ति हुई होती है ऐसे भाग्यशाली धनी तो संत ही होते हैं जीव की यह सुख की गरीबी वहीं दूर कर सकने में समर्थ हैं संत के मिलने से जीवन सुख और ज्ञान की भूख शांत हो जाती है संत मिलन से सुख और शांति तो मिलती ही है हमारे संशय भी समाप्त हो जाते हैं और सभी ग्रंथियां टूट जाती हैं।
राधास्वामी सदा सहाय।
राधा स्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर्यात्रा 53
परमसत्य..........
एक बार आइंस्टाइन् ने ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा था मेरी दृष्टि में ईश्वर इस संसार में संव्याप्त एक महान नियम है, मेरी मानयता के अनुसार ईश्वरीय सत्य ही अंतिम सत्य है । ईश्वर को स्पष्ट रूप से निर्धारित कर सकना आज की स्थिति में अत्यंत कठिन है, इसकी खोज जारी है ।अंतिम सत्य की खोज ही विज्ञान का परम लक्ष्य है । अपने मार्ग पर चलते हुए विज्ञान ने जो तत्व खोजे और जो सत्य स्वीकार किए हैं उंहें देखते हुए भविष्य में और भी बड़े सत्य का रहस्योघाटन होता रहेगा और ऐसा वैज्ञानिक शोध से ही संभव है। सिद्धांतों, यंत्रों और अविष्कारों में विज्ञान की झलक भर दिखाई पड़ती है ,जिन्हें उसकी उपलब्धियां भर कह सकते हैं। वास्तव में विज्ञान एक जीवनत प्रवर्ती है जो सत्य के शोध को अपना लक्ष्य मानती है। भले ही उसके फलस्वरुप पूर्व मांयताओं पर आंच आती हो अथवा किसी वर्ग विशेष का हित - अनहित होता हो, सत्य को सत्य ही रहना चाहिए। विज्ञान की दृष्टि में ईश्वर सत्य है और उसकी साधना को ही सत्य की खोज कह सकते हैं। इस प्रकार विज्ञान को अपने ढंग का आस्तिक और उसकी शोध साधना को ईश्वर की उपासना कहा जा सकता है। जीवन की हर परिस्थिति में ईश्वर विश्वास में सहायक होता है व असंतुलन को संतुलन में बदल देता है। निराशा के शणों में उसकी यह ज्योति चमकती है जिसे हम दीनदयाल कहते हैं । सफलताओं के साथ-साथ अहंकार भी आता है ,जिनमें स्वेच्छाचार की प्रवर्ती आती है और मर्यादा की नीति नियमो की चिंता ना करते हुए जीव कुछ भी कर गुजरने के लिय तैयार हो जाता है।तो बेहतर है की वह सत्य को पहले जाने क्योंकि सत्य को जाने बिना सत को नहीं जाना जा सकता ।
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
( संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए समर्पित)

अंतर्यात्रा 52
तन के साधे साधना,मन के साधे साध।
आत्म तत्व ही सत्य है, शब्द सामने सत ।।

बहुतेरे हैं जो सत्य को ही सत मानकर, सत्य मार्ग पर चल पड़ते हैं और सत्य से वंचित रह जाते हैं। क्योंकि उनका लक्ष्य सत्य की खोज बन जाता है , न की सत की ।
हम इस बात को आसानी से नहीं समझ पाते हैं कि, सत्य की खोज जीवन का आधार है और सत की खोज जीव का । सत्य प्रत्यक्ष है और सत का तत्व अलख मैं छिपा है। जीवन सत्य है और सत है मुक्ति ना कि मोक्ष ।सत्य नाम है और सत है अनामि ........हर राधा का स्वामी।
नानक देव का उपदेश बताता है कि उस एक का जो नाम है ,वही ओंकार है। अन्य सभी नाम तो मनुष्य ने स्वयं ही गड़े हैं, पर एक ओंकार ही वह नाम है जो हमने नहीं गड़ा।
तो क्यों ओमकार ही उसका नाम है? क्योंकि जब सभी वर्णात्मक शब्द खो जाते हैं ,मन शांत और चित्र शून्य हो जाता है, सभी हिलोर और तरंगे कहीं पीछे छूट जाती हैं, तब जीव का चित अनन्त के सागर में प्रवेश करता है । वहां जो धुन गाज रही है वह ओमकार ही है ।यह किसी जीव या मन की रची हुई धुन नहीं है , यह अस्तित्व की धुन है । अस्तित्व के होने का एहसास ही ओंकार है । यही जगत का परम सत्य है पर सत का छोर इससे कहीं ऊपर है ।
ओम शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता ।यह कोई शब्द नहीं है, मात्र ध्वनि ही है। वह भी इतनी अनूठी की योग मार्गी और ब्रम्ह ज्ञानी इसका ओर छोर ना पा सके तो उन्होंने मान लिया कि इसका कोई स्रोत नहीं है और यही अंतिम पद है । यही है अस्तित्व का बोध। तो ज्ञानियों ने पाया की अस्तित्व ध्वनि से बना है और ध्वनि का ही एक रुप है विद्युत । पर विज्ञान कहता है कि विद्युत का एक रूप ध्वनि है। इन बातों में इतना ही फर्क है कि एक कहता है कि गिलास आधा भरा है और दूसरा कहता है कि गिलास आधा खाली है ।विज्ञान की खोज का मार्ग अलग है ।विज्ञान हर चीज को तोड़-तोड़ कर उसकी जड़ तक पहुंचता है ,जबकि योग मार्ग सभी चीजों को जोड़- जोड़ कर उसे एक अखंड तक पहुंचाता है और उस एक अखंड में पाई एक ध्वनि , अखण्ड , निरंतर और नाम दिया सत्य खंड ।

जब कोई समाधिस्त हो जाता है ,तब अपने भीतर इसी अखंड धुन को गूंजते पाता है ,अपने बाहर गूंजते पता है, सभी लोको और संपूर्ण ब्रहमांड में इसी एक धुवनि को व्याप्त पाता है। नानक देव ने बहुत बार नाम शब्द का प्रयोग किया है, तो इस बात का हमेशा ध्यान रखना कि नानक देव जब भी वह कहते हैं नाम ,उसका नाम ,सच्चा नाम ,सत्य नाम ही उसे पाने का मार्ग है और जो भी उसके नाम की रटन और सिमरन में डूब जाएगा वह उसे पा लेगा , तब ध्यान रखना कि नानक जब भी नाम लेते हैं ,तब उनका इशारा अक्षर ब्रम,प्रणव पद ओंकार ही है, जहां से संतों का मार्ग या सत का मार्ग शुरू होता है। क्योंकि यही वह नाम है जिसे किसी मनुष्य ने ना गड़ा। मनुष्य के गड़े नाम बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते।
संस्कृत में सत और सत्य दो शब्द हैं । सत अप्रतक्ष्य है और सत्य प्रत्यक्ष है ।जगत में बहुत कुछ है जो सत है पर सत्य नहीं और बहुत कुछ सत तो है पर स्तय नहीं । जैसे गणित सत्य है पर सत नहीं। सपना जो दिखते हो, वह सत्य नहीं है पर उसमें अंतकरण का सत छिपा है। परमात्मा सत और सत्य दोनों हैं । उसे न तो गढ़नाओं से सिद्ध किया जा सकता है और ना ही विज्ञान की विधाओं में खोजा जा सकता है ।क्योंकि विज्ञान खोजता है सत्य को और गड़नाओ से भी सिद्ध होता है मात्र सत्य । उसे कला और काव्य में भी नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि कला खोजती है सत को और सत्य कहीं खो जाता है । तो जब हृदय और मस्तिक्ष एक हो जाते हैं , इसे ही मन का फिरना कहा गया है और तब ही जीव ओंकार के शब्द सार में प्रवेश कर पाता है । एक आध्यात्मिक व्यक्ति हर कलाकार से बड़ा कलाकार और हर विज्ञानी से बड़ा विज्ञानी है , क्योंकि उसकी खोज संयुक्त की है ।वह सत्य और सत की एक रूप में खोज करता है । वह दोनों को नहीं पर दोनों में से एक को खोजता है ।
....यही है सत मार्ग पर पहला कदम -"जोत निरंजन ओंकार "या" एक ओंकार " ।
एक ओंकार सतनाम अनामी,
राधास्वामी राधास्वामी ।
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

अंतरयात्रा -51
प्रेम दात दीजे मोहे स्वामी ..........
जो जीव अपना सच्चा और पूरा उद्धार चाहता है तो जरूरी है कि इन कुछ बातों का निश्चय द्रढ़ करके, उसी के अनुसार मालिक के चरणों में प्रीत लगाकर परमार्थ की राह में आगे बढ़े।
सबसे पहले तो अपने मन और हृदय में इस बात की द्रढ़ता को निश्चित कर ले की कुल मालिक राधास्वामी दयाल सर्व समर्थ और पूर्ण है ,जिन्होंने धरा पर नरदेह धारण कर जीवो के पूर्ण उद्धार के निमित्त संतमत राधा स्वामी का उपदेश दिया और अलख व अगम के भेदो को लखाया। दयाल के इसी नरदेह स्वरूप को प्रेमी सत्संगी परम पुरुष पूरण धनी समद हुज़ूर स्वामी जी महाराज के नाम से जानते हैं।
हर एक जीव में मौजूद सुरत राधास्वामी दयाल का अंश है ।
पद राधास्वामी ही हर सुरत का निज घर है और आदि में वहीँ से मौज प्रकट हुई जो कि सतलोक में शब्द रूप में गाजी। और फिर नीचे उतरती हुई स्तर दर स्तर मंडल बांधते हुए रचना होती चली गई।
यह देश माया और काल पुरुष का है जिसमें हर पल हर दिन बदलाव होता रहता है ,जिस कारण हर देह और स्वरूप नित परिवर्तनशील और नाशमान है। इसलिए इस जगत में सदा सुख की आशा और उसके पदार्थों को अपना समझना भारी भूल और सुरत की अचेत अवस्था ही है ।
मनुष्य देह कुल मालिक राधास्वामी दयाल की मौज से अंतिम रचना है ।इसलिए यह स्वयम में संपूर्ण रचना का एक उत्कृष्ट नमुना या मॉडल ही है। और मनुष्य देह में ही सुरत के घर वापसी का मार्ग खुला है ,जिसे दयाल देश कि किसी भेदी और वासी सुरत की सहायता और मार्गदर्शन में ही निज घर वापसी का भेद और मार्ग मिल सकता है। इसी धुर-धाम की वासी और देह मे चैतन्य सुरत को ही " संत सदगुरु वक्त" कहते हैं ।
हर सच्चे प्रेमी परमारथी को ,जो सच्चे मालिक के चरणों में पहुंचना चाहता है उसे संत सदगुरु वक्त और उनके प्रेमी भक्तों के संग साथ के प्रति सदा प्रयासरत रहना चाहिए । इस तरह अंतर मार्ग पर चलने का भेद और युक्ति पाकर अंतर मार्ग पर चलने का नित अभ्यास करना चाहिए, यहीं "अंतर यात्रा" है।
बिना सुरत शब्द अभ्यास के सच्चा और पूर्ण उद्धार किसी भी हालत में संभव नहीं है क्योंकि सुरत , शब्द की धार के संग ही सतलोक से उतरी है और शब्द धार के आसरे ही उलट कर सतलोक वापस पहुंच सकती है ।बाकी की अन्य सभी धाराएं माया की हैं, जो की अन्ततः काल का ग्रास बनकर यहीं खत्म हो जाती है।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतरयात्रा-50
चलो मन के उस पार........

आदि मे शब्द प्रकट हुआ और शब्द से ही कुल रचना, नूरानी ,रुहानी और जिस्मानी विकसित होती गई यानी शब्द धार जैसे-जैसे उतरती और मार्ग में मंडल बांधकर रचना करती आई वैसे वैसे ही रचना का विकास और विस्तार होता गया।
रचना कुल का विस्तार मुख्यत: तीन स्तरों में है। रचना के पहले स्तर में हंस और परमहंस होते है, जिन्हें तुम संत और परम संत कहते हो ।यह मंडल 'नूरानी' है, महा प्रकाशवान, इस पूरे मंडल में प्रकाश ही प्रकाश है ,जिसे 'दयाल देश' कहां गया है, अगम, अलख और सत के मंडल इसी देश में आते है जो कि आगे की रचना का 'कारण' है । दूसरा स्तर ब्रहम सृष्टि का है ।यह 'रुहानी ' मंडल आत्मिक यानी 'सूक्ष्म ' है। इसी स्तर पर तनमात्रा यानी निराकार तत्वों का प्रभाव पैदा हुआ ।तीनों गुण, अट्ठारह प्रकृति ,मन, जीवात्मा, आत्मा और परमात्मा यानी ईश्वर और परमेश्वर या ब्रहम और पारब्रहम का विस्तार इसी स्तर से है और इनकी हद भी यही है। तीसरे स्तर में देवता ,मनुष्य और चारों खानों की देह रचना हुई जिसे तुम चौरासी कहते हो ।ये 'जिस्मानी' मंडल ,काल और माया का देश है जो कि 'स्थूल' नित परिवर्तनशील और नाशमान है।
' शब्द' से अर्थ उस धुन से है जो कि चैतन्य की धार के साथ हो रही है ।इसे ही सच्चा नाम, ध्वनात्मक नाम, आवाज़े गैब, कलामें इलाही, हुक्म मालिक का, अनहद नाद आदि कहा गया है। इस शब्द धुन का असर बड़ा भारी है यानी यहीं चैतन्य की शक्ति और उस की मौजूदगी का सबूत और निशान है ।तो जहां शब्द प्रकट है वहां चैतन्य प्रकट है और जहां शब्द गुप्त है वहां चैतन्य भी गुप्त है। हर एक स्तर पर शब्द, उस स्तर और मंडलों में स्थिति के अनुसार व्यापक है और उसी के प्रभाव से उस लोक या मंडल की रचना की हर गतिविधि जारी और कायम है ।
'सुरत शब्द अभ्यास ' यानी भजन का अर्थ यही है कि अभ्यासी अपने अंतर मे उपरी मंडलों के शब्द को सुनता हुआ ,निज धाम मे, जहां से की आदी में शब्द प्रकट हुआ ,जा पहुंचे और शब्द की डोर को पकड़ कर एक से दूसरे मंडल को पार करता जाए।

हर स्तर पर रचना की समस्त कारवाई शब्द यानी चैतन्य धन-धाऱ से ही है ।शब्द ही प्रेम और ज्ञान का मूल स्रोत है ।समस्त प्रकार की सोच बुद्धि ज्ञान, विज्ञान और विधाएं शब्द से ही है । शब्द से ही प्रेम ,प्रतीत, दया अदि आत्मिक गुण और ईर्षा ,विरोध, वैमनस्य जैसे विकारी मानसिक गुण पैदा होते है। क्योंकि कुल रचना यानी नूरानी ,रुहानी और जिस्मानी, फिर चाहे दयाल देश हो या काल-माया का देश , सब शब्द की समर्थ से ही पैदा हुई है और वर्तमान है। सच्चे खोजी और परमार्थी के लिए जरूरी है कि शब्द और शब्द में भेद को समझ कर और मन व माया की हरकतों से बचते हुए , दयाल देश में पहुंचने का निश्चय दृढ़ कर ले। दयाल देश में पहुंचने वाली धार का शब्द स्वरूप अलग है और काल माया के देश में भरमाने और भटकाने वाली धार का शब्द अलग है। इनका भेद संत सतगुरु वक्त के सानिध्य -सत्संग में ही समझा जा सकता है । दोहे सोरठा, चौपाईयों का अपने मन मुताबिक अर्थ करने वाले भेषो से कुछ हासिल ना होगा।
संत सदगुरु वक्त से सच्चा प्रेम- प्रतीत और भक्ति ही उनकी दया और मेहर को ,अधिकारी जीव तक खिंच लाती है । तो सतगुरु वक्त से प्रीत की ऐसी डोर बांधो की छुड़ाये न छूटे, न परिजनों द्वारा ,न कुटुंब और समाज से ।यह अंतरयात्रा तो संत सदगुरु पूरे की सच्ची भक्ति ,सत्संग और सानिध्य में ही पूरी हो सकती है, उन्ही शब्द स्वरूप की दया और मेहर से जीव काल और माया की नशवर्ता के पार, अमर अजर अविनाशी आनंद के देश में जा सकता है ।अन्य कोई भी जतन या युक्ति इस" काल देश" में हमें नश्वरता और पुनर्जन्म के बंधनों से नहीं बचा सकती। इसलिए एक सच्चे खोजी और परमार्थी के लिए आवश्यक और उचित है कि पहले खोज संत सदगुरु वक्त की करें और उनकी संगत करे और उनसे सूरत शब्द का भेद पा कर अभ्यास रत हो, तब उसका उद्धार होते-होते सतगुरु वक्त की दया-मेहर से पूरा हो जाएगा ,वरना तो माया के धुरे में पड़े रहकर नए- नए रूपों में बिलबिलना ही पड़ेगा।
राधास्वामी सदा सहाय,
राधास्वामी जी ,
(राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतरयात्रा-49
संतो की हर रोज दिवाली ........
उत्सव का अर्थ है धन्यवाद, उत्सव का अर्थ है अनुग्रह, उत्सव का अर्थ है मुझ अपात्र को इतना दिया, इतना जिसकी ना मै कल्पना कर सकता था, ना कामना ।मेरी झोली में पूरा आकाश भर दिया, मेरे हृदय में पूरा अस्तित्व उड़ेल दिया । मेरे इस छोटे से घट मे शाश्वत अमृत ढाल दिया। अब मैं क्या करुं? इस अपुर आनंद की स्थिति में क्या नाचूँगा नहीं ? गाऊंगा नहीं ?उल्लास, उमंग ,उत्साह क्या ना जागेगा? हजार -हजार रूपों मे जागेगा।इसी का नाम उत्सव है। आनंद का अनुभव और फिर वाणी से उसे कहने का उपाय ना मिलने के कारण उत्सव पैदा होता है। उत्सव आनंद की अभिव्यक्ति है शब्द में नहीं, पर ,जीवन मे और आचरण में।
यहां उत्सव पैदा हुआ है । और संभवता , परमात्मा भी तुम्हारे भीतर उतर आय तो भी तुम्हारा उत्सव तो बहुत कुछ वैसा ही होगा जैसा जगत का होता है। किसी को धन मिल जाए और वह नाच उठे , मीरा को कृष्ण मिले और मीरा नाच उठी। अगर तुम नाचना ही देखोगे तो दोनो का नाचना एक जैसा ही मालूम होगा, क्योंकि नाच तो देह से प्रकट हो रहा है। कारण भिन्न-भिन्न है। लेकिन बाहर से तो कारण का पता नहीं चलेगा। और भीतर उतरने की तैयारी किस -किस की है? किसके पास समय है? मन डरता है, भीतर उतरने से, की कहीं डूब न जाऊँ। मैं तो मानता हूं कि विस्तीर्ण होना ही शब्द के निकट आने का उपाय है ।"शब्द" विस्तार का ही एक रुप है । शब्द का अर्थ होता है जो विस्तीर्ण होता चला जाए जिसके विस्तार का कोई अंत ही ना हो।
"आनंद" ही फैलाव है । "दुख " का अर्थ है सिकुड़ना। जब तुम दुखी होते हो तो बिल्कुल सिकुण जाते हो , जब तुम दुखी होते हो तुम सभी द्वार बंद कर के एक कोने में पड़े रहते हो कोई बोले ना कोई न देखे कोई दिखाई ना पड़े बहुत दुख की अवस्था में आदमी आत्मघात तक कर लेता है। यह भी सिकुड़ने का ही अंतिम उपाय है ।ऐसा सिकुण जाता है कि अब कुछ देखना ना पड़े, रोशनी सूरज की नहीं दिखे किसी का चेहरा ना दिखें न प्रकृति न खिलते हुये फूल ना रंग ना राग जब अपना गुलाब ही न खिला, जब अपना सूरज ही ना उगा, जब अपना मन ही न जागा तब सूरत कहाँ, वह तो सोती है। यही है अंतर का प्रकाश सहस्त्र दल कव्ल का खिलना आनंद आत्मा का विस्तार है।
आत्मा इतनी बड़ी हो जाती है कि समस्त ग्रह-नक्षत्र चांद सितारे उसके भीतर समा जाते है । शब्द धुन के साथ एक हो जाना ही सच्चा आनंद है । लेकिन आनंद को संभाल पाना बड़ा कठिन है, आनंद तो छलके गा । आनंद तो अभिव्यक्त हो कर रहेगा। आनंद तो गाजेगा, हर धुन मे गाजेगा, हर घुन मे बाजेगा और हर सूरत इस आनंद रूप" शब्द धुन धार " के संग नाचेगी ही नाचेगी । यही सच्चा आत्मिक आनंद, तृप्ति और एक सूरत का अनन्त दीपउत्सव है ।
राधास्वामी सदा सहाय ।
राधास्वामी जी।
(स्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

चैते कोई चतुर सुजान..............
अंतरयात्रा 48
पद राधास्वामी वास्तव मे कोई रचना नहीं है बल्कि हर रचना रूहानी यानि आत्मिक जगत जिसे संतो ने दयाल देश कहा है, के होने का कारण है।इसी दयाल देश की वासी सुरत जो कुल मालिक राधास्वामी दयाल की मौज से जगत को देह रूप मे धारण किया हुआ है वही संत है। यह धरा कभी संत नहीं कभी भी शब्द स्वरूप संत रूप से रहित नहीं संत तो जगत की आत्मा है जिन्होंने जगत को देह रूप में धारण किया हुआ है जिस प्रकार देह में दो आत्माये में नहीं होती उसी प्रकार एक ही वक्त में जगत में भी दो संत नहीं होते। मालिक की मौज से जब व प्रकट रूप मे कार्रवाई करते है, तब वे संत सतगुरु रूप में जाने जाते है, यूं तो कथावाचक जिन्हें तुम वाचक ज्ञानी और भेष कह सकते हो बहुत सारे उपलब्ध है और सुलभ साधना द्वारा शहर शहर डेरे तंबू लगाकर सब अपनी ही पहचान का प्रचार कर रहे है ,ना कि दयाल का ।पर्चे भरवा कर अपनी संस्थाओं का मेंबर बना रहे है ना की सत्य देश का सो स्पष्ट कहता हूं -सावधान ।
अनादि पुरुष राधास्वामी दयाल से जब मौज उठती है तब अगम और अलख के मण्डलों को पार करते हुए सतलोक से प्रकाश की किरण शब्द रूप में प्रकट होती है। यही किरण जब धरा पर पहुंचती है तब संतरूप में प्रकट होती है और सदगुरू रूप धारण कर, अधिकारी और योग्य स्त्रोत के उद्धार के निमित्त कार्यवाही करती है ।संत जगत की किसी भी सवैधानिक ,वैधानिक या भौतिक , सामाजिक व्यवस्था के आधीन नहीं है ,बल्कि जगत की समस्त व्यवस्थाएं संत स्वरुप के आधीन होती है। जगत में गुरु का पद अति भारी है ।संत सूरत में जगत और देह के खोलो में रह कर, जब तक मन में किसी के प्रति गुरु भाव न लाएगी ,उसका भी मन जगत में ना फिरेगा और ना ही सामर्थ ही पूर्ण रूप से खुल सकेगी । कबीर साहब जो की सत्पुरुष का अवतरण हुए, उंहोन्ने रामानुज जी से विधिवत दीक्षा नहीं ली थी और ना ही परम पुरुष दयाल का अवतरण हुजूर स्वामी जी महाराज किसी के भी द्वारा दीक्षित थे ,फिर भी तुलसी साहब हाथरस वाले के गुरमुख शिष्य गिरधारी लाल जी के प्रति भाव पूर्ण सम्मान व्यक्त करते थे।
इससे स्पष्ट है कि संतमत एक निश्चित सिद्धांत पर आधारित है ,जिसमें राई- रत्ती भी परिवर्तन नहीं हो सकता । परिवर्तन भौतिक जगत का नियम और भौतिक व्यवस्था है ,आत्मिक जगत सदा नित्य, चैतन्य और एक रेस है, आत्मिक जगत में कभी भी, कुछ भी परिवर्तित नहीं होता ।सो यदी लक्ष्य दयाल देश है, तो वाचक ज्ञानियों की , मालिक कुल के नाम से की जाने वाली भौतिक व्यवस्थाओं से सदा सावधान रहो ।
मन कई तरह के प्र्शन करता है। कि, क्या सतयुग,त्रेता और द्वापर में सतलोक से किरान फूटी? संत कलयुग में ही क्यों आन प्रकट हुए ? एक संत के देह छोड़ने पर दूसरा संत अचानक कैसे प्रकट हो जाता है? संत यदि नित्य और शब्द स्वरूप है ,तब उनकी देह पर काल का प्रभाव क्यों पड़ता है? आदि-आदि। हैं; इन सभी प्रश्नो और जिज्ञासाओ का उत्तर व समाधान है। पर यह बुद्धि की सीमाओ से परे, ज्ञान के क्षेत्र का विषय है ,जिसे लिख पढ़ कर नहीं जाना जा सकता। इसका समाधान तो सतगुरु पूरे के सत्संग में ही पूरी भक्ति के भाव और पूरे ध्यान के योग से ही प्राप्त होगा । राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित।

अंतरयात्रा 47
मै निगुरा भक्ति न जोगा..........
जरूरी है की परमार्थ की राह मे " भक्ति "का भाव हमेशा बना रहे , क्योंकि जैसे ही यह भाव कमजोर पड़ा तुम नीचे जगत की ओर फिसलना शुरू हो जाओगे इसके लिए मन मे,संसार की सांसारिकता के प्रति कुछ उदासीनता तो रखनी ही होगी , वरना भक्ति न बन सकेगी । तब ही अंतर अभ्यास थोडा बहुत बन पाता है।भक्ति के लिए तीन बातो का होना आवयशक है। पहला ,अपने इष्ट राधास्वामी दयाल को हर वक्त समक्ष उपस्थित मानना।दूसरी, कुल मालिक दयाल को सर्व समर्थ समद मानना और तीसरी , इस बात पर पक्का और पूरा यकीन रखना की जो कुछ होता है मालिक की मौज से ही होता है और उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं हो सकता और सदा मालिक की मौज मे राजी रहना ।जगत के प्रति कुछ उदासीनता के लिए भी तीन बातो का विशेष ध्यान रखना होता है । पहली, यह की सिवाय आवयशक व्यहवारिक्ता के , मन मे जगत के भागो का रस लेने के लिए , मन व इन्द्रियों मे चाह न उठाय ।फिर यदि मन मे कोई चाह उठ भी जाये तो उसे इन्द्रियों की व्यहवारिक्ता मे उठने से रोके। दूसरी , जो भोग अनायास ही प्राप्त हो जाय उन्हें मालिक की मौज जान कर , उनका आवयशकता अनुसार उपयोग तो अवश्य करे पर चैतनय रहे और उपभोग से बचे । तीसरी यह की जो भोग और पदार्थ हक और हलाल से कमाय उनमे भी सजग और सचेत रहे, अति उत्साह मे आवयश्कता से अधिक व्यहवार न करें,वरना यह भी जगत के बंदधनो मे फसायगा और भक्ति के स्तर मे गिरावट का कारण बन जायगा।भक्ति की रीत यही है कि ,भक्त जो भी काम करे, अपने मालिक की मौज के अनुसार ही करे और जो भी और जैसा भी उसका फल मिले उसे सहज रूप से स्वीकार करे, क्यूंकि जो यदि शिकायत करी या मंज़ूर न किया तो भक्ति से जायगा और सारी प्रीत व् प्रतीत रूखी और बे मज़ा हो जाएगी। मतलब यह है की जो मौज मे राजी रहा तो भक्ति उत्तम है और जो सामान्य रहा यानि न राजी और न नराज तो भक्ति मध्यम है और जो कुछ देर नराज़ रह कर आप ही समझ कर सम्भल गया तो भक्ति का स्तर निम्न है ।वैराग यानि जगत के प्रति उदासीनता की रीत भी कुछ ऐसी ही है । पहला तो यह की जगत के भोगो के प्रति अनावश्यक इच्छा को न उठाना ।भक्ति की दात पाने के लिए ऐसा संकल्प ज़रूरी है, क्यूंकि बार-बार सांसारिक चाह के उठने से" मन" पुष्ट होता है , जोकि आदत बन जाती है और मालिक की भक्ति , सतगुरु के सत्संग और अंतर अभ्यास मे बाधा बन जाती है। फिर भी कहता हु की प्रयास करने पर भी किसी भोग विशेष की चाह यदि बार-बार उठ रही है तो उसे एक बार भोग लेना ही उचित है। पर ध्यान रहे की उस भोग को भोगने की चेष्टा अनुचित और अनैतिक न हो , फिर भोग को भी सहज कर्म मान कर ही भोगे , न की उसमे आनन्द की खोज करे वरना यह सहज भोग भी वासना बन कर बराबर अपना ज़ोर बनायगा और मन को फिर से जगत की कीच मे खिंच लायेगा, फिर न भक्ति बनेगी न परमार्थ।सच्चे परमार्थ की कमाई और उसके संयमो कि संभाल , सतगुरु पुरे की दया मेहर और सत्संग के बिना बहुत मुश्किल है । इसलिय सबसे पहले संत सतगुरु वक्त की खोज और फिर उनकी सेवा सत्संग करना और फिर उनकी बताई युक्ति के अनुसार चेत कर सूरत-शब्द अभ्यास का करना आवयशक है । इस रीत के विपरीत जो परमार्थ के निमित कार्यवाही की जायगी , वह हठ के साथ त्याग की ही होगी और उसका फल , भक्ति और प्रेम की दात न हो कर सिर्फ शुभ कर्म का ही होगा।
सतगुरु दीजे भक्ति दान ।
प्रेम दात ले पहुँचूँ धुर-धाम ।।
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
राधस्वामी हेरिटेज
(संतमत विश्वविद्यालय की सथापना के प्रति समर्पित)

अंतर यात्रा -46
अजब प्रेम की गजब कहानी.............
मालिक प्रेम रुप है और उद्धार भी प्रेम के आकर्षण से ही होता है मालिक का भेद इस देश की विद्या बुद्धि से नहीँ जाना जा सकता क्योंकि बुद्धि की एक सीमा है और हमेशा एक जैसी नहीँ रहती इसका सबूत हमेँ रोजमर्रा के जीवन मेँ होने वाली तबदीली से पता चलता रहता है उद्धार तो प्रेम के आकर्षण से ही होगा मालिक प्रेम का महा समूह है प्रेम मेँ अपने आप मेँ समाए रहने की शक्ति होती है मालिक भी अपने मेँ आप समाया हुआ है हर्ष आनंद सत्यता चैतंयता सब प्रेम के ही गुण है पहले प्रेम है या चैतंयता यह फिजूल की बात है। दरअसल प्रेम ही पहले है प्रेम का ही आकर्षण ऊपर से नीचे तक रचना के हर दर्जे मेँ मौजूद है कोई भी उसके आकर्षण से खाली नहीँ है फर्क सिर्फ कमी और ज्यादा का है प्रेम के ही आकर्षण मेँ रचना कायम है और उसी की शक्ति से सभी हरकत मेँ मौजूद है
जगत की विद्या और बुद्धि से मालिक का भेद नहीँ जाना जा सकता क्योंकि मनुष्य की ज्ञान इंद्रियाँ सिर्फ इसी मंडल मेँ काम कर सकती हैँ बुद्धि अंतकरण के घाट तक जहाँ मनुष्य जागृत अवस्था मेँ बहोश कारवाई कर रहा है वहीँ तक काम कर सकती है अंतकरण से परे बुद्धि की गति नहीँ है इससे आगे जाने पर इंसान बेहोश हो सकता है जब यह हालात है तो मालिक के बारे मेँ अन्तःकरण के घाट पर बैठे बैठे भला क्या जाना जा सकता है
जगत के निर्णय और बुद्धि से अंतर के भेद को नहीँ जाना जा सकता बाहर जगत मेँ चाहे जितने भी प्रयोग योग कर लो उसे अंदर का कुछ भी हाल मालूम नहीँ चलता इसके लिए अंतर मेँ प्रयोग करना चाहिए और इसके लिए मालिक ने मनुष्य का चोला ही सबसे उत्तम बनाया है क्योंकि वह छोटे पैमाने पर सारी रचना का एक नमूना ही है सतलोक के नीचे रचना मेँ यही चोला सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ है इसलिए इस चोले को पाकर बाहर क्यों भटकते हो? जब इस चोले मेँ सब मौजूद है तो अंतर मेँ चलना देखना और आंकलन करना सीखना ही चाहिए
यह देश तो धोके का देश है यहाँ सिर्फ नज़र का धोखा ही है यहाँ के भोग सुख वगैरा सब माया का जाल है यहाँ कुछ भी स्थाई नहीँ पर परमार्थ की कार्रवाई के लिए यहाँ के सभी काम काज को छोड़ कर बैठ जाने की जरुरत नहीँ है सब काम करते रहो मगर किसी के मोह मेँ मत पड़ो हर काम अपने कर्तव्य और दायित्व मानकर ही करो अगर दिल मेँ मालिक से मिलने की सच्ची चाह है और मालिक से मिलने का बंदोबस्त ना हो तो मालिक पर इशारा होता है हर एक के समय के अनुसार मालिक सबके लिए इंतजाम करता है सब महात्मा पीर पैगंबर इस धरा पर बराबर आते रहेँ हैँ और अपने अपने स्तर के मुताबिक परमारथी कार्यवाही जीव से कराते रहेँ हैँ लेकिन अब उनकी टेक बांधने से कुछ फायदा नहीँ हो सकता लुकमान हकीम जब मौजूद थे तब उनके पास जाने से कुछ फायदा हो सकता था मगर अब तो वो है नहीं तो उनकी तारीफ करने से या उनकी तस्वीर के आगे बीमारी का बयान करके कोई फायदा नहीँ हो सकता जो हकीम अब मौजूद है उसकी तलाश करनी चाहिए उसके पास जाने से फायदा होगा और इस बात को समझ लेना चाहिए कि रुहानी तरक्की बराबर हो रही हैँ और जैसे जैसे जीव का अधिकार बढ़ता जाता है ऊंचे दर्जे की कारवाई करने वाले पुरुष आते रहते हैँ।
जब तुम अपने आप मेँ ही समाय रहना सीख जाओगे तब तुम भी प्रेम स्वरुप हो जाओगे।
राधा स्वामी जी।
राधास्वामी हेरिटेज ।
(संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर यात्रा 45
नाम ना जाने कोय ..............
बहुत भारी भीड़ देखता हूँ सभी को नाम चाहिए पर किसका नाम चाहिए ?और क्यों चाहिए ? क्या करोगे नाम का ?आप सभी को पता है परम पुरुष पूर्ण धनी हुजूर स्वामी जी महाराज ने फरमाया है की नाम मेँ कोई शक्ति नहीँ जो नाम मे ही शक्ति होती तो हजारो रट रहे हैँ किसी का तो भला होता। आप को समझना यह है कि हम चाहते क्या हैँ की नाम आखिर है क्या और किसका है यूँ बहु तेरे नाम है मेरा भी नाम है आपका भी नाम है सबका नाम है तो नाम से क्या होता है नाम वही सच्चा है जो अनामी है बाकी तो सब दुनियादारी के नाम है संतमत मेँ पांच नाम के सिमरन को बताया गया है यह पांच नाम क्या है किसके हैँ और क्योँ हैं सबसे पहले तो खुद से पूछो कि तुम्हें क्योँ चाहिए खाली भीड़ लगा लेना यह कि नाम दे दो नाम दे दो मेहर कर दो दया कर दो यह एक देखा देखी रीस बनती चली जा रही है और नाम का भेद पता नहीँ किसी को सभी को अपने भौतिक साधन को पूरा करने के लिए नाम चाहिए सोचते हैँ कि नाम सिमरन से भौतिक कष्ट क्लेश और दुख दर्द दूर हो जाएंगे तुम्हरी आँखों का धोखा है यह,सच्चे नाम का भेद अति भारी हैँ उसे संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीँ है सिलाई तो कपड़े की करना चाहते हो और मांगते तलवार हो कपड़ा तलवार से नहीँ सिला जाता नाम की धार तो हर भौतिकता को काट देगी तुम्हें निर्मोही बना देगी यह दुनिया पराई लगने लगेगी यहाँ मन नहीँ लगेगा यह मन तो फिर जाएगा यह देश पराया हो जाएगा । तुम अब हर वक्त तड़पते फिरोगे घर वापसी की लौ जग जाएगी तब यहाँ क्या करोगे यही है नाम का प्रताप। तो नाम क्या है
पांच नाम दरसल मार्ग के 5 पड़ावो के नाम है पहला नाम जो तुम लेते हो वह तो ब्रम्हांड की एक स्थिति है दूसरा नाम अक्षर ब्रह्म है तीसरा नाम सुन्न पद का है चौथा नाम भंवर गुफा का है और पांचवाँ नाम सतलोक मेँ गाज़ रहा है यही वह पांच नाम है जिंहेँ तुम रट रहे हो यह तो ऐसा ही है कि हम अपने लक्ष्य के रास्ते मेँ पड़ने वाले मुकाम को याद कर ले ताकि लक्ष्य से भटक ना जाएँ पर ये पड़ाव हमारे लक्ष्य नहीँ है लक्ष्य तो हमारा राधास्वामी दयाल है और वह अनामी पुरुष जिसका कोई भी नाम नहीँ है वह तो अनामी है तब यह समझना चाहिए की अनामी का नाम राधास्वामी कैसे हुआ यही सच्चा नाम है । इस बात को समझना ज़रुरी है की राधास्वामी नाम को धव्नात्मक बताया गया है तो जिसे तुम लिखते और पढ़ते भी हो और बोलते भी हो वह नाम तो वर्णात्मक हुआ ।अब सोचना यह है कि राधा स्वामी नाम जिसे धनात्मक कहा गया है और यही अनामी भी है तो जो अनामी है उसका कोई नाम कैसे हो सकता है दरअसल यह सभी पांच नाम मार्ग मेँ पढ़ने वाले पड़ाव के है मंजिल तो राधास्वामी दयाल ही है और वह अनामी है इसे इस तरह समझो कि शब्द की धार तो सतलोक से जारी हुई है तो अलख और अगम मेँ कौन सा शब्द जारी है यही शब्द का वास्तविक भेद है मुझे नहीँ लगता अभी आम सत्संगी इस भेद को समझने की योग्यता रखता है मेरे एक मित्र जो बीकानेर से है उनकी इच्छा थी कि मैँ इस भेद को सभी जिज्ञासु सत्संगियों के हित मेँ प्रकट करुँ कोई विरला ही होगा जो इस भेद को समझ सकेगा राधास्वामी कोई पद या मुकाम नहीँ है राधा स्वामी का अर्थ उस स्थिति से है जबकि सुरत स्वामी मेँ एक हो जाती है यही राधा स्वामी है जब सुरत धारा उलट कर शब्द रूप स्वामी मे एक हो जाती है। अब तक राधा और स्वामी दो हैं और जब एक हो गए तब राधास्वामी हो गई तो इस स्थिति मेँ कोई शब्द नहीँ है तो क्योंकि सुरत जो कि शब्द धारा ही है उलट कर जब वापस शब्द मे समा गई तब शब्द कहाँ रहा ।यह तो मौन की स्थिति है जी ।मौन की इस कशिश से जो लहर उठ रही है वही अगम और अलख मे कारण और सूक्ष्म रूप मे व्याप्त है और सतलोक मे शब्द रूप मे प्रगट हो रही है। यही कारण है की दयाल अनामी पुरुष है और राधा स्वामी नाम धनात्मक है ना कि वर्णआत्मक। इस तरह हम सारी ज़िंदगी जिन पांच नामो का सिमरन करते हैँ हमेँ सतलोक पहुंचा सकते हैँ । पर यह सच्ची और पूरी मुक्ति नहीं है।सच्ची मुक्ति तो राधास्वामी दयाल मेँ एक रुप होकर ही प्राप्त होती है ।तो सतलोक पहुंचकर अब जबकि राधास्वामी नाम का भेद प्रकट किया जा चुका हैं तो बिना अगम को पार किये किसी का भी सच्चा और पूरा उद्धार नहीँ हो सकता ।जो जिज्ञासु को आवश्यक है की अभ्यास मेँ शब्द को सुनने पर अधिक तवज्जो दे ।नाम सिमरन तो सिर्फ मन को जगत की दिशा से मोड़ने के लिए ही है। पर वह भी सच्चा और पूरा होना जरुरी है मैँ पाता हूँ कि राधा स्वामी मत के सभी प्रसारक केंद्र अलग अलग नाम बता रहे हैँ और खुद को संत सतगुरु प्रचारित कर रहे हैँ सो जो नाम सच्चा है वह एक है और उसमे कोई फर्क नहीँ है। इसलिए अपनी नजर मंजिल पर रखो नाम पर नहीँ मालिक की अब यही मौज है
राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी जी
(राधास्वामी हेरिटेज संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

अंतर यात्रा 44
क्या ऐसा हो सकता है ..........
शंका संशय दुख छल कपट तथा अज्ञानता के इस देश मेँ ना तो किसी को अपने काम के फल का ज्ञान होता है और ना ही यह पता होता है कि वह कहाँ से आया है और किधर जाना है। जीवन का आधार 4 खान 84 लाख योनियो मे कहीँ भी उसे शांति प्राप्त नहीँ होती । स्वामी जी महाराज कहते हैँ कि केवल संत ही उस अलख अगम अनामी के भेद को खोलते है और जीव को दयाल से मिलाकर और माया के बंधनो और उसके कारण पैदा होने वाले दुखो से बचा सकते हैँ राधास्वामी दयाल से मिलने की पहली शर्त उनसे मिलने के लिए सच्ची लगन का होना है केवल इस लगन से ही मन निर्मल होता है और जीव को ज्ञान हो जाता है कि धार्मिक रीति रिवाज कर्मकांड सब व्यर्थ की बातेँ हैँ फिर इसमेँ उसकी कैद से छूटने की शक्ति भी उत्पन्न हो जाती है राधास्वामी दयल की अपार दया के बिना जीव जन्म मरण के दुखो और बंधनो से छुटकारा नहीँ पा सकता ।शरीर के नो दुआरो मे चेतना के परवाह को रोक कर और चेतना की धार को उल्टा कर पूरी तरह से तीसरे तिल मे एकाग्रहः कर के ही मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है । अंतर यात्रा पर चलने से उसे सुख शांति की प्राप्ति हो जाती है और केवल पठन पाठन और सत्संग पर निर्भर नहीं रैहना पड़ता ।
जब यह अवस्था आ जाती है तो जिव रीत रिवाज़ कर्मकांड मान सम्मान आदि से स्वतः ही दूर हो जाता है नाम भक्ति से ही उसे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है नाम अनमोल रतन है पर केवल संत ही उसका सच्चा मूल्य जानते हैँ केवल नाम के आधार पर ही त्रिलोकी की हद को पार करके उस अनादि अनंत अगम दयाल को भी जान सकता है ।यह विधि सूरत शब्द योग कहलाती है और यह बड़े से बड़े पापी को भी संत बना सकती है। गुरु के प्रति असीम प्रेम तथा अपने आप को पूरी तरह सद्गुरु को समर्पित कर देना इस मार्ग पर सफलता की कुंजी है । बिना प्रीत व प्रतीत के कुछ काम नहीँ बनता ।
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सदा सहाय
राधास्वामी हेरिटेज
(संतमत विष्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

अंतर्यात्रा ..... ४३
अज़र, अमर, अविनाशी..... पर मुक्त नही .
शास्त्र कहते हैं की मनुष्य शरीर मात्र नहीं है. वह चैतन्य आत्मा है. आत्मा या आत्म तत्व ही इस शरीर का पोषक है. जैसे ही यह आत्म तत्व इस शरीर से बाहर निकलता है, शरीर गलने लगता है. आत्मा ही शरीर की वास्तविक पोषक है.
बुद्धी, कर्म, भोग, अहंकार, लोभ, मोह, आदी शरीर और मन के ही धर्म हैं, आत्मा के नहीं. पर आत्म ज्ञान के अभाव में जीव इस भ्रान्ति में रहता है की मैं शरीर हूँ, आत्मा नहीं, यही तो अज्ञान है. प्रथ्वी, जल, अग्नी, वायु, आकाश इन पांच तत्वों से मिल कर शरीर बनता है, जो भोतिक, अनित्य और नष्ट होना ही है. म्रत्यु उपरान्त शरीर तो नष्ट हो जाता है पर हम शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी अगली यात्रा पर निकल जाते हैं. जैसे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नया वस्त्र धारण कर लेते हैं, यह शरीर हमारा वस्त्र मात्र ही है, जो भोतिक पदार्थों से मिल कर बना है. हम घर नहीं हैं, बल्की उसमे रहने वाले मालिक हैं.
आत्मा सदा चैतन्य है. आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता, वह ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र नहीं होती. वह तो चैतन्य शक्ती मात्र है, जो समस्त जीवों में सामान रूप से व्याप्त है. आत्मा की ना तो कोई जाती होती है न ही कोई धर्म. आत्मा न कर्ता है न भोक्ता न ही भोग्य विषय है, वह तो इन तीनो से परे असंग, निराकार और साक्षी मात्र है.
बहुत से लोगों ने मुझसे कहा की यह कलियुग है, पंचम काल है, इसमें तो किसी की मुक्ती हो ही नहीं सकती. पर में कहता हूँ की ये सब बकवास है. अगर तुम खुद को चैतन्य में स्थिर कर सकते हो तो अभी मुक्त हो सकते हो. आत्मा मुक्त है, चैतन्य है, सर्वत्व व्यापक है. वह किसी बंधन में बंधी नहीं है, शारीर सीमित है, आत्मा किसी एक शरीर या मन से बंधी नही है. सारी भिन्नता शरीर गत है, आत्मा का कोई रूप नहीं है. रूप तो बनते और मिटते रहते हैं. पर मूल कभी नही बदलता.
......... यही “शब्द” है, “सच्चा नाम”.
आँखों के नीचे रह कर सच्चे नाम का ज्ञान नहीं हो सकता. जब सुरत नो द्वारों से सिमट कर आँखों से ऊपर आती है, तभी यह “नाम” मिलता है. धार्मिक पुस्तकें और ग्रन्थ तमाम नामों से भरे हुए हैं. पर ये सभी नाम आत्मा को उसके बन्धनों से कभी मुक्त नहीं करा सकते. मुक्ती देने वाला नाम प्रत्येक व्यक्ती के लिए एक ही है. चाहे वह किसी भी जाती, धर्म, देश आदी का हो. यह नाम हर पल हर वयकति के अंतर में धुन्कार रहा है. यह नाम किसी मनुष्य का रचा हुआ नहीं है, यह अनादी और अनंत है. जगत की रचना से पहले भी यही था और मलय के बाद भी यही होगा. वेद और उपनिषद इसे “नाद”, आकाशवाणी और अनाहत शब्द कहते हैं, हुकुम, धुन, शब्द की धारा, आन्डीबिल लाइफ स्ट्रीम या सुनाई देने वाली जीवनधारा, शब्द, अनाहत शब्द, सच्ची बानी, आदी अनेक नामो से याद किया जाता है. फकीरों ने इसे ही कलमा, बांग, निदा ए आसमानी, इसम ए आज़म, सुलतान उल अज्कार, कलाम आदी कहा है. हजरत ईसा ने इसे ही वर्ड और लागोस कहा है.
धुनात्मक नाम का स्थूल शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह न लिखने, पढ़ने या बोलने में आता है और न ही इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है. केवल आत्मा ही इसका अनुभव कर सकती है और वह भी तब जब कोई “पूरा गुरु” हमें आत्मा को इसके साथ मिलाप की युक्ती बता दे.
वर्णात्मक और धुनात्मक नाम का अन्तर तब ही समझ में आता है जब मनुष्य, पूरे गुरु की दया मेहर से “तीसरे तिल” पर ध्यान
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ४२

तीरथ का फल .....
बात बहुत पुरानी है. तब तीर्थ यात्रा आज की तरह वैचारिक न हो कर भावनात्मक हुआ करती थी पर कठिन भी बहुत होती थी. तब आज की तरह साधन तो थे नहीं. यात्रा पैदल या बैल गाड़ी से ही होती थी. थोड़ी थोड़ी दूरी पर रुकना होता था, इस तरह यात्रा आगे बढ़ती थी. जिसमे कई अनुभवों से गुजरना होता था. एक बार तीर्थ यात्रा पर जाते लोगों का जत्था मेरे पास रुका वे साथ चलने की जिद करने लगे, मैंने अपनी असमर्थता बताई पर यात्रियों को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा की भाई, मै तो आप लोगो के साथ जा नहीं सकता, तो आप लोग इस कद्दू को अपने साथ ले जाइए और जहां जहां आप लोग दर्शन करें और स्नान आदि करें इसे भी करवाते लायें. वे लोग अपने साथ कद्दू को भी यात्रा पर ले गये .
वे जहां जहां भी गये कद्दू को भी स्नान और दर्शन करवाते लाये. यात्रा पूरी होने पर फिर मेरे पास पड़ाव हुआ. कद्दू मुझे वापस सौंप दिया. मैंने सभी से भोज के लिए आग्रह किया और विशेष रूप से उसी कद्दू की सब्जी बनाई गयी. सभी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सभी ने कद्दू की सब्जी काड़वी होने की बात कही. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. यात्रियों को बताया की भाई ये तो उसी कद्दू की सब्जी बनी है जो यात्रा पूरी कर के और आप के साथ ही सब तीर्थो के स्नान और दर्शन कर के आया है. बेशक ये यात्रा से पहले कड़वा था, पर तीर्थाटन के बाद भी इसमें कड़वाहट बनी ही हुई है.
जब तक जीव अपने मन और स्वभाव को न सुधारेगा, तब तक कितनी ही यात्रा, सत्संग और दर्शन कर लो, इनका कोई अर्थ नहीं. कद्दू तो कड़वा का कड़वा ही रहेगा जी.
मन तो भोला बच्चा है जी, जैसा साधोगे वैसा ही सधेगा. और जैसा सध गया, वैसा ही बन जाएगा. बदलाव हमेशा भीतर से आता है जी और वैसा ही व्यवहार में नज़र भी आता है. पर व्यवहार में बदलाव कर के भीतर मन को नहीं बदला जा सकता.
सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी.
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ४१

कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ .....

कबीर साहब उस वक़्त खड्डी पर कपड़ा बुन रहे थे, जब की काशी के एक नामी विद्वान जयंत आचार्य उनके पास पहुंचे. वे कबीर साहेब के ज्ञान और संत भाव की ख्याती सुन कर आये थे. आचार्य का सोचना था की साहेब का अनूठा वेश विन्यास होगा, पर देखा की कबीर का वेश तो अत्यंत साधारण है, कमर के नीचे कुछ मैली, कुछ फटी सूती धोती भर लपेटे खड्डी पर ख़त पट. खैर, बात चीत शुरू हुई तो पता चला की कबीर तो अत्यंत साधारण है. दिन भर दुनियां दारी के कामों में लगे रहते हैं, प्रश्न उठा की तब ईश्वर का स्मरण कब करते हैं ?
कबीर, जयंत आचार्य को अपने साथ झोपड़ी के बाहर ले आये. बोले मेरा मार्ग कथनी का नहीं, करनी का है. कुछ देर यहीं खड़े रहो अभी तुम्हारे सवाल का जवाब दिखता हूँ. तभी सामने से एक स्त्री पानी से भारी गागर सर पर रखे हुए आ रही थी, उसके चेहरे पर प्रसन्नता और चाल में तेजी थी, अपने में मगन वो कुछ गुनगुनाती चली आ रही थी. गागर को उसने पकड़ा हुआ नहीं था फिर भी गागर छलक न रही थी. साहेब ने जयंत आचार्य से कहा, उस स्त्री को देखो, जो गुनगुनाती चली आ रही है. क्या उसे गागर की याद आ रही है ? जयंत बोले, यदि उसे गागर की याद न होती तो अब तक तो वो गागर नीचे गिर चुकी होती. सुनते ही कबीर तुरंत बोले, ये साधारण सी स्त्री सर पर गागर रख कर अपने में मगन. गुनगुनाती चली जाती है, फिर भी गागर का ख्याल उसके मन में बराबर बना हुआ है, क्या अब भी तुम समझते हो कि परमात्मा का स्मरण करने के लिए मुझे अलग से कोई वक़्त निकालने की ज़रुरत है ? कपड़ा बुनने का काम शरीर करता है, आत्मा नहीं, इसलिए ये हाथ भी मालिक के आनंद में लीन हो कर कपड़ा बुनते रहते है.
ऐसे ही हम जीवों को मालिक के सिमरन और आनंद में लीन रह कर जगत में अपने सभी कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करते रहना ही उचित है.
सतगुरु साहेब सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ४०

आदि कर्म का लेखा भारी .....
जब तक आदि कर्म बीज रूप में मौजूद है यानी उसका स्रोत कायम है, कर्मों की लहर आती ही रहेगी. जब यह लहर कमजोर पड़े तब ही सुरत के वजूद की कुछ खबर पड़ सकती है और जगत में बिखराव के दबाव से जो सुरत बेहोश थी, वो अब धीरे-धीरे होश में आ सकती है.
ऊपरी मंडलों में पहुँचने पर, जन्म-जन्मान्तरों से सुरत पर जो गुजरी है, उस सब की याद आ सकती है, पर वह सब एक ख़्वाब की तरह ही होगा. स्वप्न में जीव जो कुछ भी देखता है वह सब उस वक़्त सच ही मालूम देता है, पर जब जागता है तो सब काफूर हो जाता है. यदि जाग्रत अवस्था की ही तरह स्वप्न में भी होश रहे तो जो जाग्रत में सच मालूम देता है उसकी मिथ्यता का पता चल जाय. इसलिए आदि कर्म से जो आशाये बाँध कर जीव बार-बार जगत में आता है, उसे ही दूर करने के लिए मालिक ने सुरत को जो नर चोले में जगत में भेजा तो यह कोई दंड नहीं है, बल्की यह तो मालिक की भारी दया है. चैतन्य कभी भी अचेत नहीं रह सकता. पर कुछ लोग ऐसा सोच सकते है कि, जब चैतन्य कभी अचेत नही था और रहता तो सतगुरु चेताते किसे हैं ? और सतयुग, त्रेता और द्वापर में क्यूँ न चेताया और अब कलियुग में ही क्यूँ ? तो कहता हूँ की जगत की रचना और समस्त कार्यवाही, क्रिया और प्रति क्रिया का एक अटूट हिस्सा है जिसे हम प्रक्रिया कहते हैं. कलि युग में संतों और संत मार्ग का प्रकट होना और मार्ग को आम जीवों के हित में प्रशस्त करना इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है. जो की अपने उचित समय के आने पर ही प्रकट हुआ और होता है. हमें इस देरी का कारन इस तरह समझना चाहिए कि जीव के मानसिक और बौद्धिक स्तर को इस स्तर तक आने में इतना वक़्त लगा, की वह संतों के मार्ग और सच्ची मुक्ति और पूरे उद्धार के सिद्धांतों को समझ सके. वह परम चैतन्य मालिक कुल तो सदा चैतन्य है, वहां कोई देरी नहीं , हमारे भीतर का अंधेर ही इस देरी का मुख्य कारण है.
मालिक तो नित्य है. वहां समय यानी काल का कोई वजूद ही नहीं और न ही कोई जुम्बिश या हरकत है . दयाल देश के सभी रूप, रंग और रेखा रूहानी ही है. ब्रहम्मांड के मानसिक और जगत में स्थूल है. जगत के स्तर से, दयाल देश का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता. जब हम किसी के नजदीक पहुँचते है तब ही उसका ज्ञान हो पता है. देह या मन के स्तर से दयाल देश के आत्मिक अनुभवों या शुद्ध ज्ञान के स्तर को प्राप्त नही किया जा सकता, पर शुरुआत तो देह से ही करनी होगी.
मालिक कुल तो अनाम, अरूप और ला मुकाम है. और वह eternal polarization अर्थात गहन संघठित अवस्था में अनादी से ही है. उसके नजदीक का चैतन्य यानी भास् भी coeternal with the eternal polarisation उसी गहन संगठन की कशिश में खिंचा और बंधा हुआ रहा. और जो भास् स्वाभाविक रूप से नीचे छूटता रहा, उसमे भी यही प्रक्रिया होती चली गयी. इस तरह छूटते छूटते जब इस अवस्था में पहुंचा की इस प्रक्रिया को सुचारू न रख सके, तब नये संघठन की आवश्यकता हुई और इस तरह “काल और अधा” की रचना हुई.
चूँकि काल जान यानी चैतन्य को पैदा नहीं कर सकता था, तो वे सुरते जिन पर चैतन्यता की न्यूनता के कारण, आदी कर्मों के सूक्ष्म निशाँ थे, और वे इस कारन बने की जो सुरते रूहानी रचना की प्रक्रिया में विचलित हो कर नीचे की ओर खिसकती गईं, उतनी ही उन पर आदी कर्म के सूक्ष्म गिलाफों की रेखाएं बनती चली गयीं. यही सुरतें अधा की धार के रूप में सतलोक से नीचे उतारी गयीं. अब जब तक की ये सुरतें, इस पिंड देश में उचित रीत यानी समस्त भौतिक कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करते हुए, अपने वर्तमान, संचित और आदी कर्म के गिलाफों को झाड़ कर, सतगुरु पूरे के साथ संघठित न हो ले, सर्व अंग हो कर मालिक कुल के परम आनंद और ज्ञान में रत नहीं हो सकती. ये कर्मों के गिलाफ तब तक नहीं झड़ सकते जब तक की संसारी चाहतें, जिनकी की आशा बाँध कर जीव भौतिक सुख और आनंद की कल्पनाएँ करता रहेगा. और आदी आस, जो की मालिक कुल के चरणों में समा जाने की है, उसकी धारणा दढ़ न की जाये.
इस तरह उतार नीचे की ओर होते होते जीव में बस नाम मात्र की चैतन्यता ही बा होश अवस्था में है, बाक़ी सब बे होश ही है. किसी भूखे को भोजन देना तो परोपकार मान लेता है, पर जो अम्रत अंतर में भरा है उसकी जीव को कोई खबर ही नहीं. जो यदी अंतर के भण्डार में समावे तो बजाय रोटी के अम्रत बांटे, यही सच्चा उपकार है जी.
जीव जगत के विस्तार में खुद को बिसार रहा है, तो जो काल गति मे बह रहा है उसे बहने दो जब बहते बहते सतगुरु के ठौर लगेगा, उसी क्षण से निस्तार की कार्यवाही शुरू हो जायेगी. सब की नहीं,पर अपने जीव की चिंता करो. अपनी नहीं पर सबकी सेवा करो. जिसके दिल में अभी परमार्थ की चाह नहीं जगी है, उसका अभी समय नही आया है, आदी कर्म का लेखा अभी भारी है जी.
सतगुरु स्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी .
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ३९

तुम में भी मै हूँ ........
हर सुरत में एक छिपी हुई ताकत होती है. आदि शब्द की धार को थाम कर और अपना पूरा भाग जगा कर, बाहोश अपने निज धाम में पहुंचना और अमर आनंद को प्राप्त करना. मालिक के चरणों में पहुँचने की आशा ही सच्ची चाह या इच्छा है और अंतर के अथाह अम्रत के भण्डार में समा कर अम्रत बांटना ही सच्चा उपकार है.
“भौ की धार कठिन अति भारी, सो अब उलट बही.”
सुरत अपने बल से इस जगत में कोई कार्यवाही नही कर सकती. बल्की देखा है की जीव को सुरत की कोई खबर ही नहीं. जब सुरत मन का आपा या अहं धारण करती है, तब ही देह की कुछ कार्यवाही बन पाती है.
जब पूर्व जन्मो के संस्कार, संकल्प बन कर अंतःकरण में उतरते हैं, तब भी इसके कुछ परिणाम ही जीव के व्यवहार में नज़र आ पाते हैं. इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि कोई ताकत अंतर में ज़रूर है, जो कुल-करता है, वर्ना तो देह और मन ही सब कार्यवाही जगत में करते नज़र आते हैं. और बहुतेरे हैं जो मन को ही जीव की रूह और जान समझते हैं. दरअसल होता यह है की जब सुरत सिमट कर तीसरे तिल पर पहुंचती है, तब मन ने जिस व्यवस्था से अंतःकरण को साधा हुआ होता है, सब उलट-पुलट कर अव्यवस्थित हो जाती है. तब सतगुरु और मालिक ही, जो की सुरत के सच्चे हमदर्द और रहनुमा हैं, जीव को हर आवश्यक स्तर पर आवश्यकता अनुसार अपनी सामर्थ बक्शते हैं, ताकी जीव के तन-मन की संभाल हो सके.
“सतगुरु बिन कौन सम्हारे मन को, सुरत उमंग अब शब्द गहि.”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ३८

आरत फेरूँ मै सम्मुख ठाढ़ी ,
प्रीत उमंग मेरी छिन छिन बाढ़ी .

राधास्वामी मत के अनुसार जो आरती की जाती है, उसकी विधि यह है कि सुरत, सतगुरु और मालिक के सम्मुख घूम घूम कर आरती फेरती है और इस तरह मालिक की प्रेम कशिश में ऊपरी मंडलों में चढ़ती चली जाती है. सुरत घूम घूम कर ही नीचे आयी है, और घूम घूम कर ही नीचे से ऊपर चढ़ती है. इस पिंड देश – देह में अंतर्मुख और बहिर्मुख दोनों ही ताकतें सामान रूप से साथ-साथ काम करती हैं. यही वजह है की सुरत का यह घूमना उस मंडल तक, जहाँ से की बहर्मुख ताकत जारी हुई है, जारी रहता है. सुरत जैसे जैसे ऊपरी मंडलों में चढ़ती जाती है, सतगुरु और मालिक के प्रति प्रीत बढ़ती जाती है और सुरत का कुछ कुछ अंग उनमे रत होता जाता है. दसवें द्वार यानी सुन्न पद के पार होने पर सत लोक के प्रेम सागर की लहरें और झोंके आने लगते हैं. मालिक प्रेम स्वरुप ही है, प्रेम रूप है, वहां प्रेम ही प्रेम है, कुछ हरकत या जुम्बिश नहीं, वहां पहुँच कर कुछ नही करना है, बस मालिक प्यारे को या बस प्यार को प्यार करना है. सुरत ही मालिक की प्यारी और मालिक ही प्रेम स्वरुप है.
इस देश में सुरत अचेत है, सतगुरु की दया-मेहर से ही चेतती है, सतगुरु सुरत की सामर्थ को बढ़ाते हैं और अपने मार्गदर्शन में एक दिन सत्य देश में पहुंचा देते हैं, पर ज़रूरी है सुरत का चेतना और हर कांक्षा का मालिक कुल के चरणों से जुड़ जाना.
जिस प्रकार चाँद की चांदनी कमोद्नी में बस जाती है, ऐसे ही मालिक कुल की लगन जो सुरत में बस जाये तो मालिक का रंग उसमे समा जाएगा और वह मालिक के प्रेम में लीन हो जायेगी फिर न देर रहेगी न दूरी.
इस कलियुग में मालिक ने जीव के उद्धार के निमित्त यही मौज धारण की है और क्ष्रद्धा, पूजन, भक्ती मार्ग से बढ़ कर प्रेम मार्ग जारी और मंजूर फरमाया है. सतगुरु पूरे जो जगत में मालिक का स्वरुप और शब्द रूप हैं, उनके प्रति क्ष्रद्धा और भक्ती अर्पण करने से कहीं बढ़ कर प्रेम भाव से पूर्ण समर्पण ही उद्धार का निश्चित और अकाट्य मार्ग है.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय.
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा .....३७
मै या तुम , जो बसे सब अंत, सोई बसंत.

सभी जीव, जगत में अपना भाग जगाने के जिए ही भेजे गये हैं. जब तक जीव चेत कर अपने भाग को नहीं जगाता और जहाँ से की सुरत आदि में आई थी, वहां चेत कर नहीं पहुंचती, वह मालिक के निर्मल आनंद को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकती.
मालिक-ए-कुल, कुन फाया, उन-मन-सुन यानी खुद की खुदी में रजा, अपने आप में समाया, अरूप, अशब्द, अनाम, अनामी, परम चैतन्य, बा-खबर, बा-होश, कुल का करता हो कर भी अकर्ता है. वह अडोल और अबोल, उसके निकट का चैतन्य जो की उसी में एक रूप होता चला गया, उसमे जो पहली मौज उठी, वही प्रेम का मूल तत्व – तन्मात्रा – आकर्ष है.
मालिक की इसी मौज के भीतर की मौज को किसी ने न देखा न सुना. उसका होना ही नूरानी स्वरुप का प्रकट होना है. मालिक का यही नूरानी रूप दयाल है, जिसे संत मत के अनुयायी “राधास्वामी” नाम से जानते हैं, यही सत नाम अपने हुज़ूर में अनामी है. अनामी ही राधास्वामी है और यही सत्यनाम या सतनाम है. जो चैतन्य दयाल अनामी राधास्वामी के चरणों में अचेत पड़ा था, वह चैतन्य दयाल की ही कशिश से याकी आकर्षण में बंध कर उसी में खिंचता और जप्त होता चला गया. वह तो मालिक के प्रेम में बिना किसी गरज के जप्त होता चला गया. जैसे चुम्बक के आकर्षण में लोहे के कण खिंच कर चुम्बक से चिपक जाते हैं और जो चिपक जाते हैं उनमे भी चुम्बक का असर पैदा हो जाता है, पर चुम्बक से कमतर . पर अंतर में आकर्षण का तत्व दोनों में सामान ही होता है ऐसे ही सुरत जो चेती हुई है और मालिक के चरणों में जा लगी है, सो दोनों में एक ही मौज तारी है, प्रेम और दया की. जहाँ तक, प्रेमाकर्षण में बंध कर चैतन्य, आकर्ष में जप्त या एक रस या प्रेम रत होता चला गया वही दयाल देश है, जहाँ मौज भी गुप्त है यानी मौज में कोई जुम्बिश नहीं है. फिर भी यदि मालिक की मौज में कशिश को ढूँढा जाय तो यह कशिश सभी जीवों के लिए सामान रूप से जारी हो रही है बिना किसी बदलाव के, बराबर और लगातार.
जो चैतन्य अंतरी कशिश से न खिंच सका, उसमे बाहरी ताकत खुद-ब-खुद पैदा हो दई, उसी चैतन्य से, जो निम्न स्तर का होने के कारन अंतरी कशिश के संग न खिंच सका था. तब उस चैतन्य को उसकी सामर्थ के साथ नीचे काल और माया के देश भेजा गया, जहाँ की वह चेत कर अपने गिलाफ या की खोल उतार सके और निर्मल हो कर भाग जगा सके और मालिक कुल के चरणों में पहुँच कर आनंद रस का भागी हो, यही एक सुरत का आदी भाग है. जिसे जगाने के निमित्त ही कुल रचना हुई.
जो मौज आदि में हुई , उसी मौज Impulse से दयाल देश रचा गया. काल-माया के देश में पहले काल में हरकत हुई और उसका असर माया पर हुआ. माया में जड़ता inertia और वज़न दोनों ही है. रचना का होना ऐसा है की जिस भी मुकाम पर इसका होना हुआ, अपने में पूरा हुआ. जैसे धरती और आकाश में भारी अंतर है पर दोनों ही अपने मुकाम पर पूरे हैं. धरती में आकार और वजन है जबकि आकाश निराकार और वजन से रहित है.
दयाल देश तो कुल रचना से न्यारा है जी , इसका आदि तो है पर अंत नहीं. पर ब्रहम्मांड का आदि भी है और अंत भी, फिर पिंड देश यानी म्रत्यु लोक में तो आदि और अंत हर पल-छिन होते रहते हैं और इसके साथ योनी-वास, जीवन-म्रत्यु की तकलीफें और हर तरह के दुःख-संताप लगे हुए हैं. इन्हीं सब खूबियों के साथ यह स्थूल जगत बना, जिसमे हम जीव का चोला ओढ़ कर आये हैं. काल तो निरा शैतान है जी, जिसने खुद ही रस लेने के लिए त्रिलोकी की रचना की है. और जीवों को अपना मन और आपा दे कर संसारी भोग-विलासों में फंसाए रखना चाहता है. फूल खिलने के साथ ही मुरझाना शुरू हो जाता है, जीव जन्म के साथ ही म्रत्यु के द्वार की ओर बढ़ना शुरू कर देता है.
अब जब की राधास्वामी दयाल ने खुद, जीवों के सच्चे उद्धार के लिए, मनुष्य चोले में अवतरण किया है, और हर प्रेमी सुरत में अपनी दया का बीज डाला है, तो जो भी उनकी सरन में आता है, वह प्रेम के महा सागर के आनंद में स्वतः ही डूबता जाता है. अब की कलियुग में कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने ऎसी ही मौज धारण की है.
राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय.....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

अंतर्यात्रा ..... ३६

मनोरंजन, कैसा ? कितना ?
ज़रूरी है, संतमत के अनुयायी के लिए, मन के रंजन को सही तरीके से समझना और उसकी कैफियत को.
प्रेम और प्रतीत जिस घाट या स्तर से, जिस स्तर के प्रेमी के प्रति व्यक्त की जाती है, उसका वैसा ही प्रभाव मन पर पड़ता है और वैसी ही मन की कैफियत होती जाती है. जो यदि प्रीत का स्तर ऊंचा नहीं है तो नीचे गिरा देगा और तन-इन्द्रियों की दिशा में बहा ले जा कर माया के नाच नचाएगा.
जिसका मन राधास्वामी दयाल के चरणों में अटक गया है और सत गुरु पूरे के चरणों में ठौर-ठिकाना मिल गया है, और इतनी समझ विकसित हो गयी है की, दुनिया की हर कार्यवाहियों में परमार्थी अंग को पहचान सके, ऐसा सच्चा सत्संगी चाहें किसी भी संगत में उठे-बैठे, उसका कुछ भी हर्जा नहीं हो सकता. यदी रास्ते में कोई छैला विरह गीत गाता जा रह है तो उसे सुन कर, उस प्रेमी सत्संगी को अपने सतगुरु के दर्शनों और मालिक से मिलने की तड़प स्वतः ही पैदा हो जायेगी. हंस है तो लाख पानी में दूध की बूँद छिपी हो, वह तो निकाल ही लाएगा. सच्चे गुरमुख की हालत तो यही है जी.
परिवार के संग फिल्म देखना, हँसी-ठिठोली या पिकनिक जाना हो या तीरथ जाना हो, सच्चा प्रेमी उसमे भी परमार्थी अंग खोज ही लेता है. संत मत जीव जी स्वतंत्रता और मुक्ति का मार्ग है, सो बंधन तो कोई है ही नहीं, न तीरथ जाने का और न ही न जाने का. इस तरह एक सत्संगी, संसारी जीवों और गतिविधियों में बिना अ-सहज हुए, पूरी सहजता और स्वतंत्रता से व्यवहार और वर्ताव कर सकता है. सिर्फ द्रष्टिकोण का ही फर्क है, ताजमहल किसी को “प्रेम की इबारत” नज़र आता है तो किसी को “मकबरे की इमारत”. कहने का अर्थ यही है की एक सत्संगी का, जगत को देखने का द्रष्टिकोण ही बदल जाता है और उसके मूल में होता है – “सहज स्वीकार्य” का निर्मल भाव. अब अस्वीकार्य की कोई स्थिति ही नहीं रह जाती, इसी को “मालिक की मौज में राजी रहना” कहा गया है. तो अच्छा है, बुरा है, सब संसारी जीवों के लिए ही है, सच्चा सत्संगी तो मालिक की मौज में राजी है जी.
भक्ति, इश्क और प्रेम सब एक ही है जी. पर अंतःकरण का घाट बड़ा ही मलीन है. इसमें हर किस्म के बुरे ख्याल और तरंगे पैदा होती ही रहती हैं. तो अंतःकरण के घाट या स्तर से, मालिक की जैसी भक्ति होनी चाहिए, वैसी हो नहीं सकती. मगर घाट की सफाई करते हुए, शुरुआत तो तो यहीं से करनी होगी. और तब ही तीसरे तिल पर चित ठहर सकेगा और सतगुरु के चरणों में सच्ची और गहरी प्रीत और प्रतीत कर सकेगा. इस तरह, सुरत जब निर्मल हो कर दसवें द्वार पर पहुंचेगी, तब उसे मालिक के चरणों में निर्मल प्रेम की दात प्राप्त होगी. जिसे मालिक के चरणों के प्रेम रस की सच्ची प्यास है, वह तो भर-भर के अमी रस पिएगा जी और धीरे-धीरे शरीर, इन्द्रियों और संसार की चाह खुद-ब-खुद कम से कमतर होती जायेगी.
सच्चा प्रेमी सतगुरु का उपदेश ले कर और गुरु ज्ञान को धारण कर के, चाहे समक्ष या अंतर में, अपने तमाम कसूरों, गलतियों और उद्वेगों को सतगुरु के समक्ष जब ज़ाहिर करता और अपनी नाकिस करनी और करतूतों पर खराई से शर्माता और पछताता है, तब कुल माफी का द्वार खुला है. वे सब माफ़ कर देते हैं, सतगुरु का तो अंग ही दया का है. पर जो कोई करतूत ज़ाहिर न की तो फिर उसे ‘यम” के सामने ज़ाहिर करना ही होगा और फिर उसका नियति के अनुसार “कर्म फल” भोगना ही होगा. और जो मालिक के समक्ष जाहिर कर देगा – यूँ तो मालिक से कुछ भी छिपा नहीं, पर एक सच्चे प्रेमी की खराई के लिए ज़रूरी है के वह अपनी कमियों और कसरों को मालिक कुल के सुपुर्द कर दे. – तब मालिक खुद जीव का जिम्मेदार बन जाता है और काल और यम और उनकी नियति का तब कोई जोर नहीं चलता. मालिक तो पुरुष पुराना है और सुरत अंश भी उसकी, पुरानी है पर युगान युग से मन-माया के संग-साथ से मलीन हो रही है. तो जब माया को धो कर और मन को फेर कर, सुरत मालिक के समक्ष उपस्थित होती है, तब मिलते ही पहचान हो जाती है कि हम तो आशिक पुराने हैं.
तुलसी साहब ने फ़रमाया है –
“तुलसी अब संग साई, आदि की चिन्हारी पाई.”
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ३५

... प्रेम रतन धन पायो .

राधास्वामी दयाल – परम पुरुष पूरण धनि हुजुर स्वामी जी महाराज और संतों ने अपनी बानी में विशेष तौर से “प्रेम” पर अधिक जोर दिया है. बात तो यही है की प्रेम की मदद से हर काम और विशेष रूप से परमार्थी कार्यवाहियों में शीघ्र बढ़त हासिल होती है. जब की कोरे वैराग से पूरा फायदा हासिल नहीं हो सकता और न की कोरी समझ और बुद्धि से ही सच्चा मुकाम हासिल हो सकता है.
देखा जाय तो दुनियां के सभी काम पूरे शौक या लगन और मोहब्बत से ही चल रहे हैं. जहाँ लगन और प्रेम नहीं है, वहां कोई काम मुकम्मल नहीं बन सकता. इस लिए लाज़मी है की सभी जीव जो सच्चे और पूरे परमार्थ के ख्वाइश मंद है और सच्चे मालिक कुल के दर्शनों के अभिलाषी है, जो की अरूप है और जिसके निज स्वरुप के दर्शन अंतर में ही हो सकते है, तो लाज़मी है की पहले तहे दिल से उससे डूब कर मोहब्बत की जाय, तब ही एक सच्चा मुरीद, अपने मुर्शिद के सच्चे, निज, रूहानी और नूरानी स्वरुप के दर्शन, अंतर में पा सकता है.
पर देखा, की कुछ लोग ऐसी ख्वाइश रखते हैं की पहले अंतर में दर्शन प्राप्त हों तो प्रेम भी हो जाय. पर कुल मालिक जो अरूप है और किसी को भी दर्शन उसका पहले हो नहीं सकता, इस वजह से पहले प्रेम कर पाना मुश्किल है. पर जीव जो पहले गुरु स्वरुप में प्यार लाये और फिर गुरु के निज स्वरुप से मिलने का जतन शुरू करे तो उसका प्रेम अरूप पद में धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा. सतगुरु उपदेश के वक़्त उसी के निज रूप का भेद देते हैं, जो, अकह और अपार और रूप रंग रेखा से न्यारा है. और यही, कुल मालिक, कुल रचना और सेवक का निज रूप है. तब इस तरह से भेद को समझ कर और मार्ग की मंजिलों और मंडलों की जानकारी ले कर जो अभ्यासी बढ़ना शुरू करेगा, तो जो प्रेम उसे गुरु स्वरुप में आया है वही आगे बढ़ कर उनके निज रूहानी और नूरानी स्वरुप में बढ़ता जाएगा और इस तरह एक दिन प्रेमी अभ्यासी, स्वरुप और चरणों में प्रीत-प्रेम के आसरे ही सभी अंतरी मंडलों व आयामों को पार करता हुआ एक दिन धुर धाम तक पहुँच जाएगा.
पर इसका यह अर्थ भी नहीं कि भजन का कोई अर्थ ही नहीं या वह किसी तरह कमतर है. बल्कि भजन, सच्चाई और पूरी रीत से बन सके इसके लिए मन की सफाई और ह्रदय में प्रेम का पैदा होना ज़रूरी है. इस बात को समझते हुए, जब भी अभ्यासी के मन में, भजन के वक़्त, अ-पवित्र विचार और पाप-कर्मों की ओर प्रेरित करने वाली तरंगें उठें, तो ऎसी स्थिति में भजन कम कर देना चाहिए और भजन की बजाय सतगुरु के स्वरुप पर ध्यान को स्थिर करना चाहिए, इससे अ-पवित्र तरंगें कम होते हुए रुक जाती हैं. और फिर भजन में बैठना आसान हो जाता है. साथ ही अपने मन को धिक्कारना चाहिए की भविष्य में ऎसी अ-पवित्र गुनावन उठाना उचित नहीं है. इसके लिए मन को नीचे के नरकों में गिरने और राधास्वामी दयाल के चरणों से दूर होने का भय दिखाना पड़ता है. इस तरह मन को होशियार और सफाई की ओर प्रेरित करना, भजन के जतन के लिए हितकर होता है. फिर जब मन सफाई और प्रेम के साथ भजन का जतन करने लगे, तब भजन का वक़्त, जैसा भी सहज रूप से बन सके, बढ़ाते जाना है. वरना ध्यान का अभ्यास अधिक करते हुए उसके बाद कुछ देर भजन का अभ्यास करते रहना ही उचित होता है, जब तक की मन की पूरी सफाई न हो जाय. जैसे-जैसे मन की सफाई होती जायेगी, ह्रदय में प्रेम का उफान भी बढ़ता जाएगा. आगे राधास्वामी – दयाल है जी, जब एक सुरत मालिक की तरफ एक भी कदम बढ़ाती है, मालिक की दया हम तक दो कदम नजदीक आ जाती है.
राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय.
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ३४

बहत प्रेम बयार, सुरत सकल रस भीजत भीनी .....

मालिक की मौज और मन की गति, दोनों की दिशा विपरीत होती है. मौज का सार अंतर में सिमटना है और मन बाहार्मुख बिखराव की दिशा में बढ़ता है. कुल रचना मौज से ही है और कुल का मकसद यही है की, कुल का मालिक कुल में सिमटाव हो और कुल मालिक में एक हों.
सुरत और मन का मेल नहीं हो सकता. सुरत और शब्द के गुण सामान हैं, इस तरह सुरत में प्रेम कुदरती तौर पर है. जब भी मन का जोर कम होता है, प्रेम खुद-ब-खुद प्रकट हो जाता है. सुरत जो की अभी मन की आसक्ति की वज़ह से, बहार मन-इंद्री के भोगों में फंसी है, वह तो अंतर में प्रेम से ही सिमटेगी.
सुरत और शब्द की प्रीत स्वाभाविक और कुदरती है. जब की सांसारिक प्रीत, मन की किसी न किसी लालसा, कामना और मतलब से होती है, जो की समय के साथ (काल के प्रभाव से) बदलती रहती है और मतलब पूरा होते ही – नदारत हो जाती है. यूँ तो संसार में एक माँ और बच्चे की प्रीत सबसे उत्तम, शुद्ध, सात्विक और आला दर्जे की मानी गई है, पर, शादी होने और बच्चे होने के बाद, इस आला दर्जे की प्रीत में भी कमी आती हुई देखी जाती है.
शरीर रुपी दिए में लालसाओं के तेल से, विषय-भोगों के प्रति आसक्ति रुपी प्रीत की बत्ती जल रही है. सांसारिक आसक्ति की प्रीत को मालिक कुल और सतगुरु की भक्ति की रीत में बदल कर ही, चौरासी का जीव, निराकार की प्रीत में लीन हो कर प्रेम स्वरुप हो जाता है, जो व्यापक नहीं पर व्याप्त है, हर जगह, हर पल, हर दिशा और हर रूप में.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय ....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्व विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

अंतर्यात्रा ..... ३३

सतगुरु से करूँ पुकारी .
संतन मत कीजे ज़ारी ..
_ संत मत को आम तौर से ज़ारी करने के लिए ये प्रार्थना हुजुर महाराज (राय सालिग्राम जी माथुर) ने, स्वामी जी महाराज से की थी. इसी “शब्द” में हुजुर महाराज ने फ़रमाया है की, “ जैसी मौज आपकी हो, वैसी दया फरमावें. मैं हर तरह से आपकी राजा में राजी हूँ. चाहे मेरी ही सुरत अंतर में फेरें, चाहे सबका उद्धार फरमावें. जो मौज हो वही मंजूर है.” ये भला कैसे हो सकता था कि गुरमुख की प्रार्थना को सतगुरु नामंज़ूर फरमाते ? सतगुरु रूप दयाल ने अपने गुरमुख की प्रर्थना को भरी दया और मौज से मंज़ूर फ़रमाया और उसका निर्वाह भी किया.
यह एक सच्चे गुरमुख की आरती-प्रार्थना है, जो की सर्वांग सतगुरु की मौज और मर्जी में ही वर्तता है और सभी जीवों के उद्धार के लिए प्रार्थना करता है और गुरु की मौज में ही राजी रहता है. – यही सबसे उत्तम हालात है.
इससे निचले स्तर पर वे जीव हैं, जो चाहते तो सच्चे दिल से यही हैं की सभी संत मत में शामिल हों, लेकिन इसमें उनके “मन की ख़ुशी” भी शामिल होती है और वही प्रधान हो जाती है, न की मालिक की मौज. इससे भी निचला स्तर निकृष्ट कहलाता है, इस मानसिकता के लोग मन मत के अनुयायी होते हैं. जो की अपनी नाम बढ़ाई और प्रशंसा की चाहत में, मत के कार्यों को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं. अंततः खुद को ही सतगुरु प्रचारित करने लगते हैं. सांसारिक चाल का हाल तो यह है की, ऐसी मानसिकता से इत्तेफाक रखने वालों की गुटबंदियां, सच्चे सत्संगियों से कहीं बड़ी जमात बन जाती हैं. जो संतमत के नाम पर मनमत के प्रसार में जुट जाते हैं. क्यूंकि, इससे उनके मन की संतुष्टि और सांसारिक हित सध जाते हैं. तोइस तरह की जमात का लक्ष अंतर में नहीं पर सांसारिक धन-संपत्ति और मान बढ़ाई पर ही टिका होता है, स्वामी जी महाराज के गुप्त होने के बाद से ही मनमतों का ऐसा बिखराव होता चला आया है और हो रहा है. पर अच्छा ही है, इससे निर्मल सत्संग में छ्टौनी होती रहती है. पर बुरा यह हुआ कि मनमतों की जमात के आगे निर्मल सत्संग ही गुप्त हो गया. किस किस की कहूँ, हम सभी की द्रष्टि में अवगुण का दोष झलक रहा है, जिसकी जैसी अवगुण द्रष्टि, उतनी ही उसको सत्य की बर्दाश्त कम हो जाती है. फिर भी उद्धार तो सबका होना है, पर अपने-अपने अधिकार के अनुसार, कोई इसी जनम में तर जायेगा, कोई कुछ जनम बाद. यही दयाल की भरी दया है.
जो भी जीव सत्संग में उपदेश को ध्यान से सुन कर और अंतर में परख कर, मन में गुनेगा और बुद्धि से विचारेगा, और उसका मन इसके लिए हांमी भरेगा. तब ही उसका चित संतमत के सिद्धांतों को ग्रहण कर सकेगा, जो की एक सत्संगी के व्यवहार और वर्ताव में स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है.
जब सुरत और मन की धारें अंतर में एक हो कर आगे बढ़ती हैं तब धीरे-धीरे मन की धार, ब्रह्म में और सुरत की धार अंततः निज देश पहुँच जाती है. उस वक़्त, सुरत जिस आनंद का अनुभव करती है उसका वर्णन संभव नहीं है. उस आनंद सागर में रत हो कर सुरत, आनंद की मौजों में वास करती है और आनंद की लहरों और तरंगों का अनुभव करती है. और मालिक के सम्मुख प्रेम से सराबोर हो कर, उसकी आरत में लौलीन होती है. “आरत” का अर्थ है – आ यानि, मन-माया के सभी अंगों से अनभिज्ञ हो कर, मालिक कुल के सम्मुख सिमट आना और रत का अर्थ है, मालिक कुल के चरणों में, प्रेम रस में डूब कर और नतमस्तक हो कर लीन हो जाना.
जब मालिक कुल के चरणों में प्रीत पक्की हो जाएगी, तब काल-कर्म सब झूठे पड़ जायेंगे, उनके वार खली और धार थोथी हो जाती है. जीव के कर्मों की डोर अब मालिक के हाथों में होती है, तब ऐसा कोई कर्म ही जीव से नहीं बनता कि, जिस पर काल अपना प्रभाव डाल सके.
राधास्वामी दयाल की दया, सतगुरु स्वामी सदा सहाय.....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हेरिटेज
संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.