अंतर्यात्रा ..... ६३
सत्संग बेड़ा सब हितकारी ..... सत्संग , सतगुरु या पूरे साध के संग का नाम है. पर ज़रूरी है कि सतगुरु या साध संतमत का पूरा और पैरोकार हो. हम जीव सभी शुरू मे तो नादाँ ही होते हैं, फिर जब सानिध्य में बैठ कर वचनों को पूरे ध्यान से सुनते और उन पर मनन करते हैं तब ही कुछ गति प्राप्त और सतगुरु की कुछ पहचान हो पाती है. सच्चे सत्संग की परख कुछ ही बातो से हो जाती है, जो कि अति महत्वपूर्ण हैं. (१) . सत्वचन वही जो जिज्ञासु के मन में दुनियादारी कि फ़िज़ूल बातो के प्रति धीरे-धीरे उदासीनता पैदा करता जाय. (२) . सच्चे सत्संग में सत्पुरुष राधास्वामी दयाल कि ही महिमा और कुल मालिक दयाल तक पहुँचने के मार्ग का भेद और मार्ग की मंजिलो व स्तरों का वर्णन ही होता है. वहां किस्से-कहानियों, विरोध या पिछले हो चुके महात्माओं की चर्चा नहीं होती. हकीम लुकमान की तस्वीर के आगे बीमारी सुनाने से अब किसी का इलाज संभव नहीं, सो संतमत हमेशा ही ‘संत सतगुरु वक़्त’ की खोज और सत्संग की ही ताकीद करता है. (३) . वचन जो जीव को बोध कराता है कि, जीव अपनी भक्ति, प्रेम और प्रतीत को कुल मालिक राधास्वामी दयाल और सतगुरु पूरे के चरणों में किस प्रकार बढ़ा सकता है. (४) . सतगुरु की हिदायतों में वर्णन उन विघ्नों और रूकावटों का होता है, जो काल और माया एक जिज्ञासु और अभ्यासी के मन में, उसे सत मार्ग से दूर रखने के लिए पैदा करते रहते हैं. (५) . सतगुरु के वचनों में उन सभी अन्तःकरणीय स्थितियों और प्रभावों का वर्णन होता है, जो जीव को ध्यान पूर्वक सत्संग और अभ्यास और चेतना के ऊपरी मंडलों में खिचाव के समय अपने अंतर में अनुभव होते हैं. - सत्संग में संकल्प के साथ बैठ कर और ध्यान पूर्वक सतगुरु के वचनों को सुनने से, बहुत से पूर्वाग्रह, भ्रम और संशय स्वतः ही धुल जाते हैं और रूढ़िवादिता से मन की पकड़ ढीली हो जाती है. इस तरह जीव ‘अंतर्यात्रा’ के पड़ावों को धीरे-धीरे तय करने के योग्य बनता जाता है. - पर समस्या यह है कि अब जीव मे धैर्य की बहुत कमी हो गयी है. सब कुछ बस यूँ ही पा लेना चाहता है. बस इधर-उधर कहीं से सत्मार्ग और अभ्यास की बढ़ाई सुन-सुना कर, सत्संग में आ बैठता है और उपदेश ले कर अभ्यास की जुगत में लग जाता है. तो इस तरह अभ्यास जैसा उचित है वैसा कभी बन नही सकता और न ही अभ्यास में रस ही मिलेगा. क्यूँकी यह अटल है कि जब तक मन के सभी संशय-भ्रम दूर न हों और अंतर में सफाई न हो जाय और राधास्वामी दयाल ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित न हो जायं तब तक मन और सूरत (चैतन्य और चेतना) पूर्णता के साथ ‘शब्द योग अभ्यास’ में रत नहीं हो सकते. - तो अब समझना चाहिए कि जब जीव सतगुरु के सानिध्य में बैठ कर राधास्वामी दयाल की महिमा के वचनों को चित दे कर सुनेगा और समझेगा, तब ही उसके मन में संतो के वचनों के प्रति कुछ प्रतीत जाग सकती है. फिर जब उस प्रतीत के अनुसार अभ्यास कर के, अंतर में रस और राधास्वामी दयाल की दया को अनुभव करेगा, तब ही घट में सच्ची प्रीत जागेगी और प्रतीत बढ़ती जायेगी. इस तरह एक जिज्ञासु को अभ्यास का शौक एक दिन अभ्यस्त बना देता है. ..... यह मोक्ष नही, ‘मुक्ति’ की राह है राधास्वामी सदा सहाय ... राधास्वामी जी राधास्वामी हेरिटेज (संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित) |