जिज्ञासा.......... जीवन में कभी शान्त नहीं होती ,
और जब शान्त हुई - वही क्षण मुक्ति का है । तो जब तक राधा - स्वामी की ओर अग्रसर है , जिज्ञासु होती है पर जिस पल स्वामी की हुई - जिज्ञासा शान्त और राधास्वामी हो गई , रधास्वामी जी। पिछले एक-डेढ वर्ष से मित्रों के बहुत तरह के प्रश्न मेरे सामने आते रहे , दयाल की मौज से मुझ नादान से जैसा बन पड़ा ,प्रयास करता रहा। सो दयाल की दया-मेहर और मौज से जिज्ञासा नाम की श्रंखला में , मित्रों के सामान्य प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान ढूंढने का प्रयास है यह - आगे जैसी दयाल की मौज।
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
इस संसार में कुछ भी स्थिर या स्थायी नहीं है। सो सभी कुछ मिथ्या व नाशमान होने के कारण, हर पल बदलता रहता है। इस पर भी पाया कि हर जीव दुखों से घबराता औरर सुख की चाहत में भागता रहता है।. पर सुख भी स्थाई नहीं रहता और अंत में दुख आ ही जाता है। चूंकि जीव नहीं जानता कि स्थायी सुख क्या है और न ही उसे पाने के भेद से ही परिचित है तो सिमरन, सतसंग व भंडारों में ही अटक कर रह जाता है। इस तरह मन व इन्द्रियों के भोगों को ही सुख का साधन समझे बैठा है। हैरान होता हूँ जब विचार और बुद्धि से सम्पन्न लोगों को भी मान बड़ाई और विषय लालसाऔं में फंसा पाता हूँ। और सुख हैं कि या तो मिलते नहीं और अगर मिल भी गये तो उनके जाते रहने का डर हमेशा बना रहता है।. साथ ही लगातार भोगने से सुख भी साधारण लगने लगते हैं, जो कि और अधिक सुख पाने की तृष्णा को पैदा करते हैं। फिर यदि कोई दुख, हादसा या कठिन दौर अचानक आ जाए तो सभी सुख , दुख प्रतीत होने लगते हैं।
जिज्ञासा ..... 1
तो क्या है सुख - दुख .....
इस विषय पर संसार भर में अनगिनत लिखा और पढा गया है।
पर रूहानियत या आत्मिक द्रष्टि से विचार करने पर पाता हूँ कि जितने भी स्वाद, सुख, मौज-मजे और मेले जगत में दखाई पड़ते हैं, इन सभी का केन्द्र हमारी जीवात्मा, रूह या सुरत में ही है।
उदाहरण के लिये - जब हम कुछ खाते हैं तो उसका स्वाद हमें जिव्हा इन्द्री के माध्यम से प्राप्त होता है पर इन्द्रीयां जड़ हैं (सुरत की चेतन धार के बिना) और इस तरह सुरत का एक बाहर मुखी यंत्र या द्वार मात्र ही हैं,
जिस पर सवार हो कर सुरत की चेतन धार ही हर भोग का स्वाद ले रही है। इसीलिये चेतना के गुप्त होते ही सब स्वाद भी लुप्त हो जाते हैं। इसी तरह अन्य सभी कर्म व ज्ञान इनद्रियों के सम्बनध में समझना चाहिये।
सुरत की चेतन धार जिस भी इन्द्री पर सथिर होती है, उसी के द्वारा भोगों का स्वाद प्राप्त होता है, और जब यह धार नहीं होती तब कुछ भी पता नही चलता। जैसे कि बेहोशी की हालत में, जब कि सुरत की सब धारें अन्दर खिंची होती हैं, तब उस जीव की जिव्हा या अनय किसी भी इन्द्री पर कुछ भी रख या कर दो तो भी उसे कुछ पता नहीं चलता।
सवप्न की अवस्था भी कुछ ऐसी ही है। जब कि कोई वास्तविक पदार्थ मौजूद नहीं होता और कर्मेन्द्रियां भी सोई हुई होती हैं, इस पर भी सुरत व मन अपनी धारों और ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से सब भोग व रस प्रप्त करते हैं। साथ ही देह पर यदि कोई रोग-बीमारी या भौतिक क्लेश भी हो, तो भी उसकी कोई तकलीफ स्वप्न में मालूम नहीं पड़ती।
प्रसंगवश समझने की बात यह है कि - स्वप्न (सुषोपति), नींद या गहरी नींद इन तीनों अवस्थाओं में , संसारी लोगों का ध्यान नीचे के स्तरों पर बना रहता है जब कि सुरतशब्द अभ्यासियों का ध्यान ऊँचे घाटों की दिशा में स्वतः ही बढ जाता है। इसलिये यदि कोई मनुष्य जब और जितनी देर तक चाहे जाग्रत में ही स्वप्न की अवस्था पैदा कर ले तो जब तक यह अवस्था रहेगी वह जैसा चाहे सुख भोग सकता है और संसार व देह की हर तकलीफ व दुखों से बचा रह सकता है।
फिर यदि कोई अभ्यासी सुरत के स्थान तक पहँच सके तो बिना किसी मेंहनत और बिना किसी अंतर मुखी इन्द्री आदि की सहायता के , जब तक चाहे उस स्थान पर रहे और जैसा सुख चाहे वह बड़ी सहजता व निर्मलता के साथ और ऊँचे स्तर का हासिल कर सकता है। सुरत जिस सूर्य, कुल मालिक राधास्वामी दयाल की एक किरन मात्र है, वह यदि किसी जतन से उस अनंत प्रकाश कुल तक पहूँच जाए तो कितना अनंत आनंद और अपार सुख प्राप्त होगा, यह सिर्फ अनुभव ही किया जा सकता है - कल्पनाऔं की सीमाऔं से कहीं परे है यह ।
संतों ने इसी जतन को सुरत-शब्द अभ्यास कहा है और इसे प्राप्त करने का प्रयत्न ही सच्चा परमार्थ है -
विचारवान स्यंम ही निर्णय कर सकते हैं कि संत मत राधास्वामी का आधार कितना समर्थ है कि जिसकी सीमाएं अनंत को छूती हैं , जिसमें सम्पूर्ण मनुष्य जाति को आसरा मिलता है और जिसमें संसार के किसी भी धर्म, जाति, समुदाय और हिस्से में रहने वाला मनुष्य - स्त्री, पुरूष, बालक, जवान व बूढा संत मत राधास्वामी से समान रूप से आत्मिक उद्धार व सच्ची मुक्ति का मार्ग पा सकता है। जो कि संसारिक जीवन में मनुष्यों के बीच परस्पर मेल-मिलाप, भाईचारा और मित्र भाव को स्थायित्व प्रदान करने वाला और आत्मिक जीवन को अनंत दया के सागर में समाहित कर देने वाला मत है। इसे संत मत राधास्वामी के उपदेशों को व्यवहारिक रूप से अपनाने व अभ्यास की दिशा में बढ कर ही प्राप्त कियाजा सकता है। राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)