Monday, 30 June 2014

जिज्ञासा ...... 39

क्या कारण है कि बहुतेरे अभ्यासियों को वर्षों अभ्यास कर के भी कुुुछ लाभ नहींं होता .......

वे विधि अनुसार व पूरेे परहेज के साथ अभ्यास नहीं करतेे हैंं। दरअसल ऐसे लोगों को  अभ्यासी भी नहींं कहना चाहिये, ये पूरी तरह सेे बाहरमुखी  और  दिखावटी लोग होतेेेे हैंं। अभ्यास जो पूरा सच्चा हो तो निश्चित रूप से फौरन ही अपना असर दिखलाता हैैैै।
अभ्यासी यानी सतसंगी चार प्रकार के होते हैं .....
पहले वे जो सभी बातें व सिद्धांत पोथी आदि में पढ कर या सुुन कर कण्ठस्त(याद) कर लेते हैं। जैसेे कोई बमार दवाओं के नाम  और  नुस्खे
रट लेे।  दूसरे वे जो दिखावे के लियेे दो--चार मिनट या अधिक आँखे बंंद कर के बैठ जाते हैं जैसे कोई बीमार दवा तो मुुंह में डाले पर कुल्ली कर दे।
तीसरे वे हैं जो मेंहनत से अभ्यास में तो बैठते हैं पर साथ ही विषय-भोगों में भी आसक्त रहते है, जैसे कोई रोगी दवा तो पी ले पर परहेज न करे। इन लोगों में लगन की कमी होती है।  और चौथे वे होतेे हैं जो पूरे शौक और सच्चे प्रेम व पूरी लगन से अभ्यास करते हैं औौर सांंसारिक विषय-भोगों व वासनाओं में गिरने सेंं हमेंशा बचते रहते हैं , जैसेेे कोई दवा भी पियेे और पूरा परहेज भी करेे। इसलिये चौथे किस्म के अभ्यासी ही पूरा लाभ प्राप्त कर सकते हैैंं।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ........ 38

कितने दिनों तक अभ्यास करने से सुरत ऊपरी मण्डलों में पहुँचने लगती है ........
 
इसका कोई नियम नहीं है। यह बात सच्चे शौक,  सच्चे प्रेम,पूरी भक्ति, ह़ृदय की निर्मलता,  विश्वास की द्रढता और जीव की लगन पर निर्भर करती है। जब अधिकारी उत्तम होता है तो जो बरसों में प्राप्त होना कठिन हो जाता है वह दिनों में हासिल हो जाता है।
फिर भी मध्यम स्तर का सच्चा शौक रखने वाले जीव को थोड़े दिनों के अभ्यास से अंतर में  कुछ-कुछ रस व आनंद प्राप्त होने लगता है और तीन - चार वर्षों के अभ्यास में जीव को खुद अपने अंतर की स्थिति का अंदाजा होने लगता है  - आगे सतगुरू स्वामी सदा सहाई .....

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ....... 37

भजन, ध्यान व सुमिरन का क्या अर्थ है ........

भजन - यानी अंतर में शब्द का सुनना व उसमें रस का प्राप्त होना और शब्द के आसरे सुरत का ऊपरी व रूहानी मण्डलों में चढना, इसी को  भजन करना कहते हैं।.
ध्यान  - यानी अंतर में स्वरूप पर मन, अंतर-द्रष्टि व सुरत का स्थिर होना।
सिमरन  - यानी जबान ए  दिल से नाम को याद करना य़ही सिमरन है।
ये तीनों ही अभ्यास के  अंग हैं।
जो पूरा अधिकारी है यानी जिसे सुन्न पद या  कि  दसवें द्वार पर उपदेश
 मिल चुका है, उसके लिये  भजन मुख्य व ध्यान-सुमिरन गौण हैं।  और इससे कमतर  के वास्ते ध्यान-सुमिरन मुख्य  व  भजन गौण समझना चाहिये।.
तो  हर अभ्यासी को उचित है कि जब  भी समय मिले संंतों की बानी  का  पाठ उनके अर्थों को खूब अच्छी तरह से समझ-समझ कर करे और जितना बन सके उन वचनों को अपने व्यवहार मे अपनाने का प्रयत्न करे।
भजन के वक्त पहले कुछ वक्त सुमिरन-ध्यान करें और फिर भजन मेंं लगें।  बाकी सतगुरू दयाल  पारखी हैं , हर भक्त और अभ्यासी के स्तर और हाल से  आप वाकिफ हैं  और जैसी जिस जीव को सम्भाल की जरूरत होती है वे आप ही सम्भाल लेते है..... सतगुरू स्वामी सदा सहाय .

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा....... 36

क्या उपदेश प्राप्त करने का कोई खास नियम या रीत है  ........

उपदेश की कोई खास रीत नहीं है। जब भी कोई अधिकारी जीव यानी  सच्चा जिज्ञासु आए उसी  वक्त मत के विषय मे चर्चा की जाती है और जब उसकी समझ में मत के सिद्धांत अच्छी तरह से आ जाएं तब उसे मत का उपदेश दिया जाता है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी  हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ...... 34

सुरत-शब्द योग का अभ्यास कैसे किया जाता है .......

जो शब्द ऊँचे देश (रूहानी  मण्डल)  से नीचे के पिण्डड देश में, घट तक आ रहा है और जिसकी धुनकार हर एक मनुष्य के अंतर  मे हर वक्त धडक  रही है, उसमें रूह यानी सुरत को - ध्ययान के साथ जोड़ कर , ऊपरी मण्डलों में बढाते हुए, पिण्ड और ब्रह्माण्ड की हदों को पार कर, दयाल देश में  पहुंचना  ही सुरत-शब्द योग का  अ्भ्यास कहलाता है।

राधास्वामी जी


जिज्ञासा ...... 35

शब्द की धार जो कि  नीचे की ओर आ रही है, तब सुरत की धार  उसके सहारे ऊपर की ओर कैसे बढ सकती है .......

जैसे मछली जल में रह कर धारा के विपरीत तैरती है और  ऊपर से गिरती जल धारा के सहारे ऊपर के स्थनों में चढ जाती है। गहराई से इस आत्मिक तकनीक का भेद सतगुरू वक्त या उनकी आज्ञा से किसी सच्चे अभ्यासी (साध गुरू) से ही मालूम हो सकता है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी  हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित

Sunday, 29 June 2014

जिज्ञासा ..... 33

स्त्री और पुरूष सतसंगी की आत्मिक बढत में क्या कोई फर्क होता है.....

अपने जीव के कल्याण और उद्धार की जैसी जरूरत पुरूष को है वैसी ही स्त्री की है, क्योकि दौनो ही समान रूप से  मनुष्य चोले में है। और जैसी समझ पुरूष को प्राप्त है,  कुछ कम या अधिक वैसी ही स्त्री  को भी प्राप्त है।फिर भी देखा है कि , संतमत जो कि विशुद्ध प्रेम और भक्ति का मार्ग है, इसमें अक्सर स्त्रियां जल्दी फायदा उठाने लगती हैं,क्योकि उनमें स्वभाविक रूप से प्रेम व भाव का अंग प्रधान होता है।

तो जैसे कि ग्रहस्थी का हर काम  स्त्री और पुरूष मिल कर करते हैं और धर्म-शास्त्रों में भी स्त्री को अर्धांगनी कहा गया है , इसी तरह संत मत में भी स्त्री और पुरूष का समान अधिकार है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ........ 31

सतसंगी होने का क्या अर्थ है......

वे  सभी मनुष्य जिन्होंने सतगुरू वक्त से उपदेश लिया है और सुरत-शब्द योग व मार्ग का अ्भ्यास करते हैं, फिर चाहें साधु  हों या ग्रहस्थ, स्त्री हो या पुरूष,  ये सभी सतसंगी कहलाते हैं।
   
राधास्वामी जी


जिज्ञासा ........ 32

एक साधु और एक ग्रहस्थ सतसंगी की आत्मिक बढत में क्या कोई फर्क होता  है......

संतमत में वयवहारिक त्याग या ग्रहण करना  बहुत  ही तुच्छ और निम्न
स्तर की बात मानी जाती है। फिर भी - जिसके जितने भी बन्धन संसारी  कम हैं ,  उसे उतना ही अधिक अवसर अभ्यास व उसके रस की प्राप्ति का मिलता है और इस लिहाज से साधुओं की बढत अधिक ठहरती है।

पर वास्तव में त्याग व ग्रहण  का  सम्बंध जीव के मन से है। जो मन से संसारिक्ता का त्यागी है उसका स्तर बहुतों से बढ कर है और वह संतमत को बहुतों  से जल्दी समझ कर उसका पूरा लाभ प्राप्त कर सकता है,फिर चाहे वह ग्रहस्थ हो या विरक्त। पर यदि मन में मालिक के चरणों के प्रति प्रेम नहीं है तो कपड़े रंग कर, सर मुंडवा कर और  घर-द्वार,पत्नि व संतान आदि से विमुख होने से संतों की द्रष्टि में ऐसा मनुष्य नीच ही ठहरता है। ऐसे भेषी साधुओं और संसारी जीवों का स्तर एक ही है।

बल्कि इस दौर ए वक्त में  राधास्वामी दयाल किसी भी जीव से उसकी ग्रहस्थी व ऱोजगार नहीं छुड़ाते हैं और फरमाते हैं कि ग्रहस्थ में रह कर भी यदि परमार्थ का शौक पक्का और दयाल के चरणों में प्रेम  सच्चा है तो भजन अधिक सहजता से और पूर्ण रस के साथ हो सकेगा।
   
राधास्वामी जी
राघास्वामी  हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)


जिज्ञासा ............. 30

सतसंग किसे कहते हैं .....

सत संग दो तरह से होता है, अंतरमुखी और बाहरमुखी।
मालिक से मिलना यानी भजन में बैठ कर अंतर में शब्द-गुरू का संग-साथ और उसमें रस का मिलना, यही अंतरी सत संग सच्चा है।
और सतगुरू वक्त के दर्शन करना , उनके वचनों को पूरे  ध्यान से सुनना और उन्हें व्यवहारिक्ता में अपनाना और सतगुरू की आज्ञा से जहां संतों की बानी का पाठ , अर्थ या परमार्थी चर्चा होती हो वहां जाना - ये बाहरमुखी सत संग है।
साथ ही यह जानना जरूरी है  कि संतों की बानी व वचन में सच्चे कुल मालिक राधास्वामी दयाल की महिमा और सुरत-शब्द मार्ग के अभ्यास की चर्चा व अभ्यासी के उन हालात का वर्णन, जो कि अभ्यास की द्रढता व बढत के साथ-साथ दिन प्रति दिन बदलते जाते हैं। और सतगुरू दयाल के चरणों में प्रेम व प्रीत का बढना और हाल  मन व इन्द्रियों के विकारों और उन्हे दूर करने के जतन का वर्णन किया जाता है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्ववविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ...... 29

क्या संतमत में भी अन्य मतों के समान ग्रंथों व पोथियों में लिखी बातों को बतौर प्रमाण माना जाता है ..........
   
संतमत की रीत है कि जिज्ञासु , जो भी बातें सतसंग व  उपदेश में  बताई जाती हैं और मत की पोथियो में पढी जाती हैं , उन्हें अपनी आँखों से और तीनों देहों व अंतर में , अपनी बुद्धि व  अंतर द्रष्टि से देख कर खुद ही इस अटल सिद्धांत को समझ जाता है कि कानून कुदरत का या विधि का विधान हर जगह  और हर स्तर पर एक सा ही है और  इसमें बाल बराबर भी तबदीली नही हो सकती।

फिर चाहे खोजी जिस  भी मत की किताब या पोथी से जो कि सच्चे साध या अभ्यासी की लिखी हुई है, मिलान कर के देख ले, सब बातों का मेल हो जाएगा, पर  संतमत  का  सिद्धांत  अन्य  सभी  मतों  जुदा  ही  मिलेगा।        
क्योंकि उन सभी ने वही लिखा और बताया जहां तक या जिस स्तर तक वे पहुंचे और उसी स्तर  को उन्होंने  कुल का  मालिक व कर्ता मान कर नये-नये मत व सिद्धांत गढ दिये। तो ऐसे अधूरे खुद भी  मार्ग  में अटके और अनुयाइयों को कभी मार्ग पूरा न मिला तब भला मंजिल कैसे पाते.....

संतों ने जो कुछ भ कहा है, अंतर में कुदरत का भेद कहा है और यह भेद हर स्तर  पर समान है।.बुद्धिमानों के मत दुनियादारी की बातों और वर्तमान भौतिक व्यवस्था के अनुसार होते आए हैं और हैं। गगहराई से देखा जाए तो इन बुद्धिमतों में रूह और रूहानियत का कुछ भी जिक्र नहीं मिलता।

संत अपने वचनों में किसी पुरानी बानी या गुजरे वक्त के लोगों के वचन का प्रमाण देना मंजूर नहीं फरमाते क्योंकि ऐसा यकीन कच्चा होता है, उसका एतबार नहीं और ऐसे उदाहरणों से समझने वालों की समझ भी नहीं बढती, खद का अनुभव कुछ भी नहीं होता बल्कि औरों के वचनों के आसरे निष्कर्मण्य पड़े रहते हैं। - इसी को  टेक  कहते है। और ऐसी टेक संतों को सख्त नापसंद है, क्योंकि टेकी जीव का वास्तव में कुछ भी फायदा नहीं पर असल में नुकसान ही  नुकसान होता है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्ववविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा  ............   28

संतमत  और  अन्य संसारी मतों में क्या  फर्क है........

संसार के अन्य सभी मतो में अ्धिकतर प्रवृति यानी  दुनियादारी  और  कुछ-कुछ निवृति यानी परमार्थ का जिक्र है, और संतमत में केवल  निवृति का ही जिक्र होता है।  यानी सच्चे मालिक का भेद और मालिक  के चरणों में सुरत-शब्द योग की कमाई कर के पहुंचने की जुगत का वर्णन किया जाता है।.
और......
जिन बातों या ऊपरी रचना  व रूहानी मण्डलों का वेद , उपनिषद व अन्य मतों  की किताबों में गुप्त रूप से, इशारों में या अति संक्षेप में  जिक्र किया गया है, संतों ने  अ्पनी जानिब से उन सभी बातों व स्थानों और स्तरों पर पहुँच कर ,  विस्तार से जिक्र किया है। इस लिहाज से  संतों का मत व सिद्धांत, संसार के अन्य सभी मतों के सिद्धांत पदों से ऊँचा है।
 
संतमत में सिर्फ अंतरी अभ्यास का मन व सुरत के साथ भेद कहा गया है,   और किसी भी तरह की बाहरी पूजा या रीत का कोई  बन्धन नहीं है।.इसी वजह से हर मजहब, मुल्क और  बिरादरी के लोग - बिना अपने मुल्क, बिरादरी और मजहब  व उसकी रीतों को छेड़े और छोड़े , संतमत को अपने जीवन में अपना कर सच्ची मुक्ति के मार्ग पर बढ सकते हैं।क्योंकि यह  मत रूहानी है यानी रूह के उद्धार के विषय में बताता है और रूह हर मनुष्य में एक सी ही है और उसके उद्धार की जरूरत भी हर मनुष्य् की एक जैसी ही है।

यही संतमत और अन्य संसारी मतों का फर्क है...........

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..............  27

यह कैसे संभव है  कि  कुल मालिक का कुल जौहर या सामर्थ  संत रूप देह में प्रगट हो जाती है  ........

मालिक कुल ज्ञान, बुद्धि, कलाओं और सामर्थों का भण्डार है। और यह  सभी कुछ मालिक के समक्ष तुलनात्मक दृष्टि से बहुत ही कम स्तर पर जीव  मे भी मौजूद है। इसीलिये  संतमत में कहा गया है कि मालिक सिन्धु के समान और जीव उसकी एक बूंद है।  जीव उस  बूंद के समान है जो सिन्धु से निकल कर माया रूपी मिट्टी के मैल में लिपट गयी है और अपने ही जैसों में घिर गई है।

पर संतों की सुरत उस लहर के समान है जो ज्वार-भाटे के समय सिन्धु से उठ कर दरिया के साथ मीलों दूर तक जाती  है और वापस लौट  कर सिन्धु में मिल जाती  है। तो संत लहर का यह सफर जहां तक होता है वह वहां तक की कीचड़ व मैल  में धंसी बूंदों(सुरतों) को भी अपने साथ वापस सिन्धु में  ले  आती है।         इस तरह संतों  की सुरत की डोरी मालिक के चरणों से लगी हुई है, जब  देह में उनकी सुरत  उतरती है,  तब वे जीव दशा में वर्ताव व व्यवहार  करते  हैं और जब ऊपर के मण्डलों में  चढ कर सत्य लोक में  पहुंचती है तब संत सुरत और मालिक में कोई भेद न रहा ।

राधास्वामी  जी
राधास्वामी  हैरिटेज
(संतमत   विश्वविधालय  की स्थापना के  प्रति   समर्पित)

जिज्ञासा..... 26

सुरत (आत्मा) का देह मे आना और जाना किस तरह होता है .......

मालिक की कुदरत (विधि का विधान) से , निशेचन के समय जीवात्मा वासना के जोर और कर्मों के अनुसार देह में प्रवेश करती है और जीव के पैदा होने के वक्त देह में प्रकट होती है , फिर इसकी छाया (प्रभाव) धीरे-धीरे नीचे के चक्रों पर पड़ती जाती है , साथ ही प्राण आदि शक्तियां भी , सुरत के देह में प्रकट होते ही क्रियाशील हो उठती हैं। 

फिर जब देह छूटने लगती है यानी वक्त मौत के जब कि वह नजदीक आ ही जाता है , तब देह से सुरत का भास (छाया) और ध्यान - जो कि वास्तव में आत्मिक ऊर्जा की ऊष्मा ही है , बड़ी ही बेचैनी और बे-होशी (जब कि जीव का खुद पर ही कोई बस नहीं चलता) के साथ , मूलाधार चक्र से खिंचना शुरू होते हैं और क्रमशः हर एक चक्र से होते हए आंखों तक पहुंचते हैं फिर यहां से सुरत तीसरे तिल यानी आज्ञा चक्र से होते हुए देह से निकल जाती है और आंखों के डेले उलट जाते हैं।

फिर विधि के विधान से गुजर कर , अपने कर्म, वासना के अनुसार समय आने पर दूसरी देह व जन्म धारण करती है। इन बातों को जीव के पैदा होते और वक्त मौत के देख कर समझा जा सकता है।

पर ..... सुरत-शब्द योग के अभ्यासी को सुरत के निकलने का अलग ही अनुभव होता है। वह प्रति दिन सुरत को सिमटाते और ऊपरी मण्डलों में चढाते हुए अभ्यास में ऐसा द्रढ हो जाता है कि वक्त मौत के जब वह नजदीक होता है, तब बिना बेचैन हुए और बिना बेहोश हुए , अपने पूरे होश में सुरत के भास,ध्यान और स्वंम सुरत को तीसरे तिल और वहां से ऊपरी मंण्डलों में जहां तक कि उसके अभ्यास की द्रढता होती है, पहुंचा देता है। साथ ही सामान्य जीवन में भी दैहिक व मानसिक कष्ट के समय भी अपनी सुरत को तीसरे तिल व ऊपरी मण्डलों में पहुंचा कर कष्टों से बच जाता है। और इस तरह कुल मालिक राधास्वामी दयाल के चरणों से अमी रस की धारा में महा आनंद को प्राप्त करता है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)


जिज्ञासा  ..... 25

ज्ञान का क्या अर्थ है.....

सत्य , अलख और अगम लोक के परे , कुल मालिक राधास्वामी दयाल के दर्शनों के अति भारी महा आनंद को प्राप्त कर शुद्ध प्रेम व शब्द स्वरूप हो जाना ही सच्चा व  पूर्ण ज्ञान है।.
इस पद पर पहुँच कर अभ्यासी - कुल माया व कुदरत की हर सीमा से पार हो जाता है। इसी अभेद भक्ति का परिणाम सच्ची मुक्ति है।
संतमत मे सच्चे व पुर्ण ज्ञान का अर्थ - पिछले युगों के कर्म , देवताओं व उनकी मूरतों की भक्ति , पूजा - उपासना या कोरा विधा ज्ञान नहीं माना गया है।  क्योंकि इनसे कुछ भी हासिल न होगा , ये सभी वयर्थ में समय और तन, मन, धन की बरबादी के कर्म-काण्ड और मन के बहलावे (छलावे)
ही हैं। फिर अब कलयुग मे किसी मनुष्य में इतनी सामर्थ भी नहीं कि सतयुग के कर्म व उपासना की रीत को नियमानुसार व शुद्ध रूप में पूर्णतयः निभा सके,  पर उलटा-सीधा जैसा मन चाहा कर-करा के अहंकार सब पाल लेते हैं।
इस कलयुग में जीव की हालत और समय के हालात कमजोर देख कर दयाल स्वंम संत सतगुरू रूप धर कर  आए  और जीव के हित  में संतमार्ग व अभ्यास की जुगत का उपदेश किया।.तो जो उपदेश  व जुगत सतगुरू
वक्त बताएं उसे चित लगा  कर करना और अंतर  में सुरत को जोड़ कर शब्द का सुनना और जब यह दौनों बातें ठीक-ठीक बन जाएं तब कुल मालिक राधास्वामी दयाल का अंतर में  प्रकाश दिखलाई पड़ना,   इस  तरह निरंतर अभ्यास से धीरे-धीरे अभ्यासी खुद एक दिन प्रकाशमय - शब्द  स्वरूप  हो जाएगा - इसी को सच्चा व पूर्ण ज्ञान कहते हैं।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के  प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ....... 24

भक्ति का क्या अर्थ है .....

मालिक कुल के चरणों में प्रेम प्रीत और प्रतीत का होना ही भक्ति है।
यह सच्चे मन से तब ही हो सकती है जब कि अंतर में सतगुरू और मालिक के दर्शन मिलते है। ये दर्शन प्रकाशमय-शब्दस्वरूप यानी नूरानी-रूहानी होते हैं।
चूंकि सुरत-शब्द अभ्यासी को कभी-कभी ध्यान , भजन या सवप्न अवस्था में संत सतगुरू व शब्द स्वरूप मालिक के दर्शन अंतर में होने लगते हैं , तो उसकी सच्ची भक्ति उसी वक्त से शुरू होती है और दिन प्रति दिन पेम व लगन बढती जाती है।
त्रिकुटी पद पर पहुंचने पर यह प्रेम व भक्ति निर्मल हो जाती है , इस पद पर कर्मों का मैल धुल जाता है और इस पद से आगे बढने पर सच्ची व निर्मल भक्ति शुरू हो  जाती है और अगम पद पर पहुंचने पर भक्ति पूर्ण हो जाती है। इससे आगे राधास्वामी पद अनामी में सच्चा व पूर्ण ज्ञान प्राप्त  होता है।.

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा .......23

संत हमारे संचित कर्मों को किस  प्रकार कटवा  देते है.......
यह विषय  एक   अंर्तयात्री जीव के लिये गम्भीर अर्थ रखता है,
कर्म तीन तरह के होते हैं, जिन के फल से  जीव देह धारण कर के सुख व दुख  भोगता  है। ये हैं -   क्रियामान कर्म,, प्ररब्ध और संचित कर्म।.

क्रियामान कर्म वे हैं जिन्हें जीव देह में  रहते  हुए करता है और इसके अधिकांश भाग का फल भी जीव उसी वक्त प्रतिक्रिया  स्वरूप भोग लेता है।

प्रारब्ध वे कर्म हैं जिनके कारण देह मिलती है व जीवन में अच्छी-बुरी परिस्थितियां व वातावरण प्राप्त होता है।

संचित कर्म वे हैं  जो हर  एक जनम  में अलग जमा   होते   रहते हैं और फिर प्रारब्ध कर्मों में  मिल  जाते है।.

जब कोई जीव संतों की शरण   लेता  है  तब  उसके   कर्म  रुक जाते हैं , विषेश कर बुरे कर्म   और भले कर्म भी - जो  वह  करता है वह दयाल की मौज  में  करता और  खुद को करता  न मान कर  फल   की  इच्छा से रहित रहता है। --- यही   निश्काम कर्म है

इस तरह प्रारब्ध कर्म तो देह में भोग लिये जाते  हैं और  संचित   कर्म ध्यान व अभ्यास की अवस्था में कट  जाते हैं।..

संचित  कर्म जीवन में एक चक्र के समान घूमते रहते हैं, तो जब जिस कर्म के  भोगने   का   समय आता है तब जीव के मन में उस कर्म को भोगने चाह  पैदा होती है फिर  यदि इच्छा तीव्र हुई तो वह कर्म अवश्य ही भोगा जाता है।    पर शब्द योग का अभ्यासी जीव अभ्यास की स्थिति में , समय से पहले ही इन कर्मों को मार्ग में ही ध्यान की अवस्था में ही भोग लेता है।    तो जैसा कि ध्यान की अवस्था में स्थूल देह में व्यवहार नहीं होता है सो ये कर्म सूक्ष्म रूप व देह में ही भोग लिये जाते हैं।

एक तरीका और भी है - जैसा कि सभी  कर्म वासना के अनुसार ही भोगे जाते हैं। तो एक अभ्यासी जीव जिसने नित अंतरी और बाहरी सतसंग कर के , धीरे-धीरे जगत की सभी वासनाएं त्याग दी और भक्ति व प्रेम के आसरे माया के जाल से निकल कर त्रिकुटी के पद पर वहां के महा आनंद को प्राप्त करता है। तब वह माया की हद से निकल गया और वासना  भी जगत की ओर से पूरी तरह टूट व छूट जाती है। इस तरह संचित कर्मों का चक्र घूम ही नहीं पाता बल्कि वासनाओं के छूटते ही नष्ट हो जाता है।

वास्तव में देखा जाय तो इन दौनो सिद्धान्तो का फल समान ही  है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा   ......... 22

करमों का क्या अर्थ  है ......

किसी काम को करना  ही करम  कहलाता है।
जो काम मालिक  की मरजी से या   मालिक से  मिलने की गरज से किया   जाय ,   वो करम निःकाम होते हैं।  सतों  ने  परमार्थ   के हित में  इस  तरह के करमों को  उत्तम कहा है। और   जो   इसके विपरीत   है वही निषिद  करम  हैं।
सकाम करम वह है जो जीव अपने दुनियादारी के मतलब  से करता है ,  तो  परमार्थ के हित में जितना बन सके जीव को सकाम करमों का त्याग करते रहना चाहिए , इस तरह जीव खुद को भौतिक लिप्तताओ  से कुछ अलग कर सकता है।..
मतलब  यह कि ,   निज हित लाभ  की कामना व  लालसा के बिना और दूसरों को परमार्थी लाभ पहुँचाने की गरज से किया गया हर करम शुभ  है।और  जो करम या  वचन  अपने किसी खास मकसद  को साधने  की  गरज से बयान किया जाय  और  जो  दूसरों  को  तकलीफ  दे  , वही   अ्शुभ है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा....... 21

चौरासी का भोगना या आवागमन का क्या अर्थ  है.......

इस जगत में  अनेकों नस्लें और हर  नस्ल में अनकों  जून यानी   योनियां   हैं।   जिसमें सभी जीव -- मनुष्य, पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े, कुल वनस्पति,  पेड़-पौधे,  पत्थर  - पहाड़ आदि  शामिल  हैं।.तो  हर  जीव  को  अपने करमो के अनुसार ही  जून प्राप्त होती और भोगनी पड़ती है।
सभी योनियों में मात्र मनुष्य योनि ही   सबसे उत्तम है , जिसमें अंतर्द्वार व मार्ग मौजूद है , जिस पर चलने  का जतन व  अभ्यास कर के मनुष्य चौरासी के घेरे से  निकल सकता है और  आवागमन से निजात पा सकता है। तो  जगत में रहते हुए जीव के करम ही मुख्य हैं।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा...... 20

संतमत कब से जारी हुआ है ...........
संतमत सदा से है। शुरूआत में इस मत का प्रगट उपदेश देने से पहले प्राणायाम आदि संयम्, नियम व षट चक्र आदि बिंधवाए जाते थे। जिनमें पारंगत होने में जीव की करीब-करीब सारी उम्र ही बीत जाती थी, तब भी कोई विरला ही षट संपत्ति अर्जित कर पाता  था और बहुतों का काम पूरा न होता था। ऊपर  से यदि संयम्-नियम में जरा सी भी चूक हो जाए  तो कई तरह  के  खतरे और विघ्न  पैदा  हो जाते थे।. ......  तो  कलयुग  कबीर साहब आदि संतों ने प्राणायाम केे संयम्-नियम व षट चक्रों का भेदना  छुड़ा दिया और आँखों  के रास्ते से, सहसदलकँवल के पद से अभ्यास करवाना शुरू करवाया।  साहब  ने इस रास्ते का जिक्र अपनी बानी मेें कहीं इशारों में तो कहीं गुप्त कर के  किया है।  फिर..... आज से लगभग 155  साल  पहले ( दिन बसंत पंचमी, जनवरी सन् 1861 ई0 )
को राधास्वामी दयाल परमपुरूष पूरनधनी मालिक कुुल नर  देह धारी दयाल हुजूर स्वामी जी महाराज  (सांसारिक नाम हुजूर शिव दयाल सिंह सेठ) ने हजारों  जीवों की  अर्ज कुबूल करते हुए, जीवोंं के  उद्धार के  निमित्त,  आम  तौर पर संतमार्ग के भेद को खुुल कर व स्पष्ट रूप से समझाया। जिसे  सारे संसार ने राधास्वामी मत के नाम व रूप में जाना।

राधास्वामी  जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की   स्थापपपना  के  प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ...... 19

जो लोग सुरत-शब्द  मार्ग का अभ्यास नहीं करते, उनकी जीवात्मा की क्या गति होती है ....

जो कि अभ्यासी नहीं हैं, उनकी सुरत (जीवात्मा) पुनर्जन्म चक्र से  नहीं छूट पाती है और आवा--गमन में बंधी - चौरासी भोगती रहती है। चाहे जीव कितना ही सिमरन  कर ले, चाहे तो सारी उम्र ही क्यों  न कर  ले, पर यदि भजन न किया तो मन का मैल  तो  कुछ हद तक धुल सकता है पर जून यानी योनी न बचेगी। फिर  अगले जनम  सतगुरू से   मेला कैसे हो .... और आगे की कमाई भी जाती  रही। इसीलिये  बार-बार कहता हू कि अभ्यास मुख्य है, सो भजन में जरूर बैठो जितना  भी  समय मिले।

सो जो अभ्यासी नहीं हैं उनकी जीवात्मा देह से निकलते ही आकाश में पहुंचते-पहुंचते देह और संसार की सुध भूल जाती है और अपनी जबर लालसाओं , इच्छाओं व कर्मों के अनुसार दूसरी देह या योनी को प्राप्त होती है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधाललय की स्थापना  के  प्रति समर्पित)

जिज्ञासा......18

अभ्यास द्वरा  विकारों  को कैसे बस में किया जा सकता है......

विकारों  की जड़ असल में ब्रह्माण्ड में है।जो कि अति सूक्ष्म रूप में है और पिण्ड व जगत में ये सूक्ष्म व स्थूल रूप में प्रकट होते हैं। एक अभ्यासी की सुरत जैसे-जैसे ऊंचे घाटों पर  पहुंचती जाती है, वैसे-वैसे ही इन विकारों की ताकत भी घटती जाती है। फिर अ्भ्यास द्वारा सुरत  जब पिंड और ब्रह्माण्ड से पार होती है, तब इन विकारों की जड़ पूरी तरह से छूट जाती है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा .....17

सुरत को  शब्द अभ्यास में लगाने और ऊपरी मण्डलों में पहुंचाने का क्या लाभ है   ......

पहली  बात तो यह  कि  सुरत  मे उन ऊंचे मंडलों  का  प्रभाव पैदा हो जाता है।.दूसरी बात  यह कि सुरत जब देह को छोड़ेगी तो फौरन ही  उन  मंडलों में  पहुच जाती  है और जिस   स्तर तक  पहुंची उसी स्तर का ठहराव और आनंद प्राप्त करती है। इस प्रकार जब विकारों से रहित हो  कर सत  लोक में पहुंचेगी तब माया के घेरों से निकल जाएगी और आवा गमन से मुक्त हो जाएगी। यही निर्मल व अनंत आनंद की प्राप्ति  है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संत  मत विश्वविधालय की  स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 16


सुरत और निरत का  क्या अर्थ है .......

सुरत  का अर्थ है - शुभ में रत . तो हर आत्मा या  जीवात्मा सुरत  नहीं  होती,  पर   हो  सकती   है.।   कहने  का अर्थ   यह है   कि  सुरत एक स्थिति है न  कि आत्म - तत्व । जब जीव   की चेतना शुभ  यानी परम पुरूष की चैतन्य धार  की दिशा में अग्रसर होती है तब यही चैतन्य धार सुरत कहलाती है। और......... निरत  का अर्थ  है  -  किसी  भी  विषय में  रत न  होना , विचारों  व विकारो  से  रहित हो  जाना।.यह  स्थति   सुरत  की   स्थिति  से    बड़ी है।. आत्मिक   क्षेत्र  मे इसका अर्थ है  --  मुक्ति।
भौतिक  क्षेत्र में इसका अर्थ निवृति यानी  विकारो  से  मुक्ति  होता है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी  हैरिटेज
(संतमत   विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 15

मालिक को सर्व व्यापक कहा जाता है, फिर उसके होने का कोई खास स्थान जैसे सत्त लोक या दयाल देश कैसे हो सकता है ......

मालिक सर्व व्यापक भी है और अपने निज पद पर भी है। यही उसके विशेष व सामान्य रूप का भेद भी है, जैसे सूरज एक देशीय भी है और अपने मण्डल (सौर्य मणडल) में सर्व देशीय भी है। सूरज धरती पर उतर कर नहीं आता पर फिर भी उसके होने के प्रभाव से ही धरती पर जीवन उपजता है। तो मालिक एक देशीय भी है और सर्व देशीय भी , जिसके होने मात्र से ही जो है वह सब है और सुरत उसी मालिक की एक किरण है। तो मालिक सर्व व्यापक नहीं पर सर्व व्यपी है। वयापक नही व्याप्त है वह।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 14

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का मनुष्य देह से सम्बंध व देह में उपस्थित होना किस प्रकार सम्भव है .....

ब्रह्माण्डीय पद व स्तर मनुष्य देह की तुलना में बहुत ही अधिक विशाल और अत्यधिक दूरी पर हैं। फिर भी उनकी चैतन्य डोर हमारे अंतर से जुड़ी है, जैसे टांसफारमर से घर के बल्फ की डोर जुड़ी है। जब सुरत शब्द- योग के अभ्यास से , सारी देह से सिमट कर ऊपरी मण्डलों में पहुँचती है तो जैसा और जितनी देर चाहती है उन मण्डलों के आनंद का रस पाती है, कयोंकि हमारे अंतर के जो पद या स्तर हैं उनकी डोर पिण्ड यानी देह व इन्द्रियों से जुड़ी है। इस तरह जो धारें आती-जाती है , उन्हे दूरबीन की तरह समझना चाहिये जिसके माध्यम से हम बहुत दूर के स्थानों के भी बिलकुल नजदीक पहुँच जाते हैं।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विश्वविधालय की सथापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 13

जड़ व चेतन की गांठ का क्या अर्थ है .....
मन, इन्द्रियां, देह व समस्त भौतिक पदार्थ व भोग आदि जड़ हैं। मात्र सुरत ही चैतन्य है। त्रिकुटी के स्थान से मन व माया का प्रभाव शुरू होता व नीचे की ओर बढता जाता है। इस तरह त्रिकुटी के पद पर ही मिलौनी की शुरूआत होती है , इसी मिलौनी को जड़ व चेतन की गांठ कहा गया है, जो कि शुरूआत में बंधी।
सुरत को, जन स्तरों से हो कर वह नीचे की ओर व पिण्ड देश में उतरी है, उन्हीं स्तरों पर स्तर दर स्तर, अभ्यास की मदद से, ऊपर की ओर ले जाने से त्रिकुटी के स्तर पर जड़-चेतन की गांठ खुल जाती है। यानी माया का प्रभाव - निचले स्तरों के अनुसार व त्रिकुट के स्तर पर पूरी तरह नीचे ही छूट जाता है। इससे आगे माया का हुजूर नहीं है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 11

कँवल के दल का क्या अर्थ है .....
वृत्तियों और धारों को ही कँवल के दल कहा गया है। पिण्ड देश (देह) में स्थित कँवलों के दलों को वृत्तियां कहा जाता है और ब्रह्माण्डीय कँवलों के दलों को धारें कहा गया है।

जिज्ञासा ..... 12

जैसा कि ये सभी कँवल अंतर में स्थित हैं यानी स्थूल अंग नहीं हैं , तब भी इनका सम्बंध स्थूल देह व अंगों से कैसे कायम हो पाता है .....

शरीर यानी देह तीन प्रकार की होती है - स्थूल, सूक्ष्म व कारण।
स्थूल देह जो कि दिखाई पड़ती है इसे आत्मा का एक खोल, कवच या यंत्र मात्र ही समझना चाहिये। इसका सम्बंध सिर्फ जाग्रत अवस्था में ही कायम हो पाता है। इसीलिये स्थूल देह से सम्बंधित सभी सुखः व दुखः आदि सिर्फ जाग्रत अवस्था में ही महसूस व मालूम पड़ते हैं।
सूक्ष्म देह का सम्बंध सिर्फ स्वप्न यानी निद्रावस्था से और कारण देह का सम्बंध सुषोपति या ध्यानावस्था से है। इस तरह यह तीन आवरण , एक के ऊपर एक सुरत पर चढे हुए हैं।
इसे इस तरह समझना चाहिए कि सुरत एक चैतन्य शक्ति असंख्य धारों वाली है। यह चैतन्य धारें पहले निर्मल आभा व प्रकाश यानी नूर थी, फिर हर स्तर पर - स्तर दर स्तर माया आदि की मिलावट होती चसी गई। तो जैसे-जैसे मिलावट होती गई वैसे-वैसे आकार बनना शुरू हुआ और सुरत की यह निर्मल धारें स्तर दर स्तर स्थूल होती चली गईं।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा..... 10

सहसदलकँवल कहने का क्या अर्थ है ... और बारह कँवल किन्हें कहते हैं, इनके नाम और स्थान क्या हैं .....

पहले बताए हुए उलवी(ऊपरी) और सिफली(नीचे के) पदों व चक्रों को ही कँवल भी कहा गया है। जिनकी गिनती की शुरूआत नीचे से की जाती है।
संतमत के अनुसार इनका विस्तार इस प्रकार है -
पहला - मूलाधार चक्र गुदा के स्थान पर, यह चार दल का कँवल है, इस कँवल पर गणेश का वास माना गया है। चूंकि पिछले वक्तों में योगी-योग का अभ्यास इसी चक्र से शुरू करते थे, तो योगियों की रीस में ग्रहस्थी भी हर काम की शुरूआत गणेश पूजा से करने लगे।
दूसरा - स्वाधिष्ठान चक्र इन्द्री के स्थान पर। यह छः दल का कँवल है। इस कँवल पर ब्रह्मा-सावित्री यानी पैदा करने वाली शक्ति का वास माना गया है।
तीसरा - मणिपूर चक्र नाभि के स्थान पर। यह आठ दल का कँवल है। इस कँवल पर विष्णु यानी पालन करने वाली शक्ति का वास माना गया है।
( इन तीन कँवलों - गुदा, इन्द्री और नाभि कँवल को फकीरों ने नासूत कहा है )
चौथा - अनाहत चक्र हृदय के स्थान पर। यह बारह दल का कँवल है। इस स्थान पर शिव-शक्ति ( प्राण दायिनी व संहारक शक्ति ) का वास माना गया है।
पांचवां - विशुद्धि चक्र कण्ठ के स्थान पर। यह सोलह दल का कँवल है। इस स्थान पर दुर्गा यानी इच्छा व प्राण शक्ति का वास माना गया है।
छठा - आज्ञा चक्र दौनों नेत्रों के मध्य, मस्तक में कुछ भीतर। इसे तीसरा तिल, तीसरा नेत्र, शिव नेत्र , श्याम सेत आदि नामों से भी जाना गया है। यह दो दल का कँवल है। इस कँवल पर सुरत यानी पवित्र आत्मा का वास है।
॰॰ शब्द मार्ग के अभ्यासी को अभ्यास की शुरूआत, इसी कँवल पर सुरत की धार को समेट कर करनी होती है। इस कँवल के साथ अंतःकरण की डोर बंधी होती है और अंतःकरण के साथ दसों ज्ञान व कर्म इन्द्रियों की डोर बंधी है। उपरो्क्त तीन कँवल यानी हृदय, कण्ठ व आज्ञा चक्र को फकीरों ने मलकूत कहा है। और यही तक सिफली यानी नीचे के स्थान या पदों की सीमा पूरी होती है।
सातवां - सहसदलकँवल यह आठ दल का कँवल जोत-निरंजन का पद है। इस कँवल से दो आवाजें आसमानी प्रतीत होती हैं यानी शब्द प्रगट होता है। जिसकी डोर थाम कर सुरत ऊपरी मण्डलों में बढती है। फकीरों ने इसे जबरूत कहा है।
आठवां - त्रिकुटी यह चार दल का कँवल है। यह त्रिकुटी संतों की है , योगियों की नहीं। यही ओंकार पद है जिसे हंसमुखी भी कहा गया है। फकीरों ने इसे ही लाहूत कहा है।
नवां - सुन्न पद या दसवां द्वार, यह एक दल का कँवल है। यही पार ब्रह्म, फकीरों ने इसे हाहूत कहा है। उलवी यानी आसमानी पदों की यही अंतिम सीमा है।
दसवां - महासुन्न (मैदान) इस पद पर चार शब्द व पांच स्थान गुप्त हैं - जिसका भेद कभी किसी ने नहीं खोला, क्यों नहीं खोला .... यह भी नहीं खोला जा सकता ऐसा भौतिक जीव के हित में कतई नहीं, अभ्यासी जो इस पद पर पहुंचता है वही जानता है। यहां से दयाल देश की हद शुरू होती है।
ग्यारहवां - भँवरगुफा , यह सोहं पुरूष का पद है। फकीरों ने इसे हूतलहूत कहा है।
बारहवां - सत्तलोक यह सत्तपुरूष का पद है। फकीरों ने इस पद को हूत कहा है। इस पद के ऊपर तन पद और हैं। परमपुरूष पूरनधनी हुजूर राधास्वामी दयाल के नर देह धारन करने से पहले संतों ने इन पदों को प्रगट रूप से वर्णन नहीं किया, पर दयाल ने हुजूर स्वामी जी महाराज के रूप में आ कर , हर गुप्त को खुल कर सस्पष्ट रूप से प्रगट किया। जिसे जगत् ने संतमत राधास्वामी के नाम से जाना।

राधास्वामी जी
रधास्वामी हैरिटेज
( संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित )

जिज्ञासा ..... 9

सुरत का कुल व मूल कहां है .....

सुरत का कुल व मूल दायाल देश में है। जैसे-जैसे दयाल देश से सुरत नीचे उतरती गयी, माया की परतों के अनुसार भारी होती चली गई। जैसे सूक्ष्म, विशेष सूक्ष्म, अति सूक्ष्म और स्थूल, विशेष स्थूल और अति स्थूल। इस संसार में सुरत, माया का अति स्थूल तहों में गुप्त हो गई है, जो कि दयाल देश से तीसरे स्तर पर माना गया है। प्रथम दयाल देश जहां निर्मल चैतन्य व ऩूर ही नूर है, दूसरा ब्रह्म व माया देश जहां ब्रह्माण्डीय मन व निर्मल माया के साथ सुरत का मेल हुआ है और तीसरा यह पिणड देश जहां पिण्डी मन व स्थूल माया के साथ सुरत का मेल हुआ है। यही रचना के तीन मुख्य स्तर हैं।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 8

बंधन व मुक्ति किसे कहते हैं .....

सुरत अपने मूल पद से उतर कर तीन गुण - सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण फिर पांच तत्व - प्रथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश फिर चार अंतःकरण - मन, बुद्धि, चित व अहंकार फिर पांच ज्ञानेन्द्रियों - आंख, नाक, कान, जिव्हा व त्वचा फिर पांच कर्मेंन्द्रियों - हाथ, पैर, मुंह, लिंग व गुदा और इन सभी के माध्यम से जगत में फंस गई है। इस तरह सुरत का देह व देह से सम्बंधित पदार्थों के साथ मोह का ऐसा बंधन पड़ गया है कि सुरत भूले बैठी है - अपना कुल, मूल और घर का पता। बंधन दो प्रकार के होते हैं, बाहरी और अंतरी। बाहरी बंधन पारिवारिक व सामाजिक सम्बंधों, धन-सम्पदा, रीत-रिवाज आदि के और अंतरी बंधन देह, इन्द्री, मन, तत्व, गुण और अंतःकरण के होते हैं। इन सभी बंधनों से छूटना ही सच्ची मुक्ति है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ...... 7

सुरत और शब्द में क्या सम्बंध है .....

वही जो सूरज व उसकी किरण में और सागर व उसकी बूंद में है।
सुरत को शब्द-सागर की एक बूंद की तरह जानो , जो सागर से अलग हो कर कीचड़ रूपी माया की परतों या तहों में लिपट गई है और काल के
बंधनों में फंस गई है। संत - जोकि उस शब्द-सागर की लहर हैं, वही इस बूंद को माया की परतों और जगत के बंधनों से छुड़ा कर वापस शब्द रूपी सागर में मिला सकते हैं और यही सच्ची मुक्ति है जी।

राधास्वामी जी
रधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 6

सभी सांसारिक मतों में मालिक का नाम जपने का विधान है। तो मालिक के नाम और शब्द में कोई फर्क है क्या .....

मालिक कुल का सच्चा नाम शब्द ही है। और उसे जपने का अर्थ यह है कि हर वक्त उसकी धुन धार मे ध्यान बने रहना चाहिये यानी हर वक्त सच्चे मालिक को याद रखना चाहिये - इसी को सिमरन कहते हैं।
संसार में तरह-तरह के नामों को मालिक से जोड़ कर बताया जाता है। यह सभी जिव्हा से लिये जाने वाले वर्णात्मक नाम हैं। कोई कुछ रटता रहता है तो कोई कुछ और।पर जिव्हा हिलाते रहने से ,सुरत की उठान नहीं होती और न ही अन्य कोई लाभ होता है। सच्चे नाम का सच्चा भेद जानने का शौक जिसे है वो सतगुरू वक्त को खोजे, क्योंकि नाम का सच्चा और पूरा भेद तो उन्हीं से मिलेगा।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 5

शब्द को आकाश का गुण क्यों कहते हैं .....

इसका अर्थ यह है कि शब्द आकाश में व्याप्त है। गुण चेतना की धार को कहते हैं और गुणी वह जो चैतन्य हो। मतलब यह कि शब्द की सामर्थ से ही चिदाकाश चेतन है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 4

आदि नाद या शब्द क्या है .....

इस विषय पर मै - दस नाद और मंजिल अट्ठारह ..... लेख में विस्तार से लिख चुका हूँ।
शब्द जो कि प्रकाश कुल का है, अनंत का स्वरूप, इसकी महिमा अपार है।
आदि शब्द सब का करता और मालिक है। इसी को आदि नाद व आवाज़े-गैब कहते हैं। प्रणव पद यानि वेद के प्रगट होने के स्थान से जो शब्द प्रगट है उसे अनहद नाद या शब्द ब्रह्म कहा गया है। फारसी में इसे ही कुदरत-कुल कहा है और बाइबिल कहती है कि - आदि में शब्द था , शब्द मालिक के साथ था और शब्द ही मालिक था (है)।
शब्द की महिमा तो सभी मतों में की गई है पर शब्द का भेद किसी मत में नहीं मिलता। सिर्फ संतों ने शब्द का भेद कहीं इशारों में तो कहीं गुप्त रूप से अपनी-अपनी बानी में प्रगट किया है। फिर जब परम् पुरूष ने जीवों पर अति भारी दया करी और नर रूप धारण कर गुरू रूप में जगत में आए और शब्द के भेद को विस्तार से खुल कर समझाया - जगत ने उन्हें परमपुरूष पूरनधनी हुजूर स्वामी जी महाराज के रूप में जाना और राधास्वामी महाराज के नाम से पुकारा, माता-पिता द्वारा आपका सांसारिक नाम शिव दयाल सिंह सेठ रक्खा गया। हुजूर कुल मालिक दयाल की बानी व उपदेश को ही सारा जगत संतमत राधास्वामी के नाम से जानता है।
राधास्वामी सदा सहाय .....
राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा ..... 3

संतमत-राधास्वामी और अन्य संसारी मतों में क्या अंतर है .....

संसारी सभी मतों में विषेश कर प्रवृति यानी संसारी बातों और कुछ-कुछ निवृति यानी परमार्थ के विषय में बताया गया है। और संतमत
राधास्वामी में केवल निवृति के विषय की ही चर्चा की जाती है, यानी सच्चे मालिक का परिचय, महिमा और उसके चरणों में प्रेम व भक्ति के आसरे सुरत-शब्द मार्ग से कमाई करते हुए पहुँचने का उपदेश किया जाता है। साथ ही ऊपर के जिन रूहानी मण्डलों का भेद वेद उपनिषद आदि अन्य मतों की किताबों में गुप्त कर के, इशारों में व बहुत ही संक्षेप में बताया गया है, संतों ने स्यंम इन रूहानी मण्डलों को देख व अनुभव कर के विस्तार से वर्णन किया और मार्ग के भेदों को समझाया है। इस तरह संतों का सिद्धांत अन्य सभी संसारी मतों से बहुत ऊँचा है। संतों ने मन व आत्मा के भेद को स्पष्ट करते हुए अंतर में शब्द अभ्यास का तरीका बताया है साथ ही किसी भी प्रकार की बाहरमुखी पूजा या कारवाही की कोई पाबंदी नहीं होने से संसार का हर मनुष्य (स्त्री, पुरूष, बालक, जवान व बूढा) कभी भी संत मार्ग पर बढ सकता है और बिना अपने संसारी मत की रीतों क तोड़े या छोड़े, अपने जीते जी अपने जीव के कल्याण व उद्धार को देख व अनुभव कर सकता है। संतमत राधास्वामी एक आत्मिक मत है यानी आत्मा के उद्धार का मार्ग बताता है और आत्मा हर मनुष्य में एक समान ही है और हर एक जीव को अपने कव्याण व आत्मिक उद्धार की जरूरत भी समान रूप से ही है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा...... 2

संतमत-राधास्वामी क्या है .....
संतमत या राधास्वामी मत , सारे संसार के सभी मतों व पंथों की जड़ व जान और समस्त विधाओं का सिद्धांत पद है।जिसे संतों ने गहन चिंतन, मनन, अभ्यास और अनुभव के आधार पर प्रगट किया। यह आदि और अंत का मत है जिसे अपना कर मनुष्य , सच्चे व कुल मालिक राधास्वामी दयाल की पहचान , उनसे मिलनने का मार्ग और मार्ग के भेद को जान करर सच्ची खुशी , निर्मल आनंद और सच्चे उद्धार को प्राप्त कर सकता है।
यह मत व इसका अभ्यास विषेश रूप में उनके लिये अर्थ रखता है, जिनमें सच्चे मालिक राधास्वामी दयाल से मिलने व अपने जीव के सच्चे कल्याण व उद्धार की सच्ची लगन है। संसारिक लालसाओं और मान बड़ाई के पीछे भागने वालों और परमार्थ को आजीविका का साधन बनाने वालों और परमार्थी वाद-विवाद को समय बिताने का शगल व शौक रखने वालों को न तो इस मत से कोई फायदा मिलेगा और न ही उनकी समझ में ही आएगा। पंडालों में बैठ कर व लाउड स्पीकरों पर चिल्ला कर न तो नाम का भेद मिलता है और न ही मार्ग का। संतों ने इस मत को सुरत-शब्द योग कहा है।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)

जिज्ञासा.......... जीवन में कभी शान्त नहीं होती ,

और जब शान्त हुई - वही क्षण मुक्ति का है । तो जब तक राधा - स्वामी की ओर अग्रसर है , जिज्ञासु होती है पर जिस पल स्वामी की हुई - जिज्ञासा शान्त और राधास्वामी हो गई , रधास्वामी जी। पिछले एक-डेढ वर्ष से मित्रों के बहुत तरह के प्रश्न मेरे सामने आते रहे , दयाल की मौज से मुझ नादान से जैसा बन पड़ा ,प्रयास करता रहा। सो दयाल की दया-मेहर और मौज से जिज्ञासा नाम की श्रंखला में , मित्रों के सामान्य प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान ढूंढने का प्रयास है यह - आगे जैसी दयाल की मौज।

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज

इस संसार में कुछ भी स्थिर या स्थायी नहीं है। सो सभी कुछ मिथ्या व नाशमान होने के कारण, हर पल बदलता रहता है। इस पर भी पाया कि हर जीव दुखों से घबराता औरर सुख की चाहत में भागता रहता है।. पर सुख भी स्थाई नहीं रहता और अंत में दुख आ ही जाता है। चूंकि जीव नहीं जानता कि स्थायी सुख क्या है और न ही उसे पाने के भेद से ही परिचित है तो सिमरन, सतसंग व भंडारों में ही अटक कर रह जाता है। इस तरह मन व इन्द्रियों के भोगों को ही सुख का साधन समझे बैठा है। हैरान होता हूँ जब विचार और बुद्धि से सम्पन्न लोगों को भी मान बड़ाई और विषय लालसाऔं में फंसा पाता हूँ। और सुख हैं कि या तो मिलते नहीं और अगर मिल भी गये तो उनके जाते रहने का डर हमेशा बना रहता है।. साथ ही लगातार भोगने से सुख भी साधारण लगने लगते हैं, जो कि और अधिक सुख पाने की तृष्णा को पैदा करते हैं। फिर यदि कोई दुख, हादसा या कठिन दौर अचानक आ जाए तो सभी सुख , दुख प्रतीत होने लगते हैं।

जिज्ञासा ..... 1

तो क्या है सुख - दुख .....

इस विषय पर संसार भर में अनगिनत लिखा और पढा गया है।
पर रूहानियत या आत्मिक द्रष्टि से विचार करने पर पाता हूँ कि जितने भी स्वाद, सुख, मौज-मजे और मेले जगत में दखाई पड़ते हैं, इन सभी का केन्द्र हमारी जीवात्मा, रूह या सुरत में ही है।
उदाहरण के लिये - जब हम कुछ खाते हैं तो उसका स्वाद हमें जिव्हा इन्द्री के माध्यम से प्राप्त होता है पर इन्द्रीयां जड़ हैं (सुरत की चेतन धार के बिना) और इस तरह सुरत का एक बाहर मुखी यंत्र या द्वार मात्र ही हैं,
जिस पर सवार हो कर सुरत की चेतन धार ही हर भोग का स्वाद ले रही है। इसीलिये चेतना के गुप्त होते ही सब स्वाद भी लुप्त हो जाते हैं। इसी तरह अन्य सभी कर्म व ज्ञान इनद्रियों के सम्बनध में समझना चाहिये।
सुरत की चेतन धार जिस भी इन्द्री पर सथिर होती है, उसी के द्वारा भोगों का स्वाद प्राप्त होता है, और जब यह धार नहीं होती तब कुछ भी पता नही चलता। जैसे कि बेहोशी की हालत में, जब कि सुरत की सब धारें अन्दर खिंची होती हैं, तब उस जीव की जिव्हा या अनय किसी भी इन्द्री पर कुछ भी रख या कर दो तो भी उसे कुछ पता नहीं चलता।
सवप्न की अवस्था भी कुछ ऐसी ही है। जब कि कोई वास्तविक पदार्थ मौजूद नहीं होता और कर्मेन्द्रियां भी सोई हुई होती हैं, इस पर भी सुरत व मन अपनी धारों और ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से सब भोग व रस प्रप्त करते हैं। साथ ही देह पर यदि कोई रोग-बीमारी या भौतिक क्लेश भी हो, तो भी उसकी कोई तकलीफ स्वप्न में मालूम नहीं पड़ती।
प्रसंगवश समझने की बात यह है कि - स्वप्न (सुषोपति), नींद या गहरी नींद इन तीनों अवस्थाओं में , संसारी लोगों का ध्यान नीचे के स्तरों पर बना रहता है जब कि सुरतशब्द अभ्यासियों का ध्यान ऊँचे घाटों की दिशा में स्वतः ही बढ जाता है। इसलिये यदि कोई मनुष्य जब और जितनी देर तक चाहे जाग्रत में ही स्वप्न की अवस्था पैदा कर ले तो जब तक यह अवस्था रहेगी वह जैसा चाहे सुख भोग सकता है और संसार व देह की हर तकलीफ व दुखों से बचा रह सकता है।
फिर यदि कोई अभ्यासी सुरत के स्थान तक पहँच सके तो बिना किसी मेंहनत और बिना किसी अंतर मुखी इन्द्री आदि की सहायता के , जब तक चाहे उस स्थान पर रहे और जैसा सुख चाहे वह बड़ी सहजता व निर्मलता के साथ और ऊँचे स्तर का हासिल कर सकता है। सुरत जिस सूर्य, कुल मालिक राधास्वामी दयाल की एक किरन मात्र है, वह यदि किसी जतन से उस अनंत प्रकाश कुल तक पहूँच जाए तो कितना अनंत आनंद और अपार सुख प्राप्त होगा, यह सिर्फ अनुभव ही किया जा सकता है - कल्पनाऔं की सीमाऔं से कहीं परे है यह ।
संतों ने इसी जतन को सुरत-शब्द अभ्यास कहा है और इसे प्राप्त करने का प्रयत्न ही सच्चा परमार्थ है -
विचारवान स्यंम ही निर्णय कर सकते हैं कि संत मत राधास्वामी का आधार कितना समर्थ है कि जिसकी सीमाएं अनंत को छूती हैं , जिसमें सम्पूर्ण मनुष्य जाति को आसरा मिलता है और जिसमें संसार के किसी भी धर्म, जाति, समुदाय और हिस्से में रहने वाला मनुष्य - स्त्री, पुरूष, बालक, जवान व बूढा संत मत राधास्वामी से समान रूप से आत्मिक उद्धार व सच्ची मुक्ति का मार्ग पा सकता है। जो कि संसारिक जीवन में मनुष्यों के बीच परस्पर मेल-मिलाप, भाईचारा और मित्र भाव को स्थायित्व प्रदान करने वाला और आत्मिक जीवन को अनंत दया के सागर में समाहित कर देने वाला मत है। इसे संत मत राधास्वामी के उपदेशों को व्यवहारिक रूप से अपनाने व अभ्यास की दिशा में बढ कर ही प्राप्त कियाजा सकता है। राधास्वामी सदा सहाय .....

राधास्वामी जी
राधास्वामी हैरिटेज
(संतमत विश्वविधालय की स्थापना के प्रति समर्पित)